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प्रधान संपादक की कलम से

यह बदलाव म्यूचुअल फंडों या एसआइपी तक ही सीमित नहीं. शेयरों के नकद बाजार में अब खुदरा निवेशकों की हिस्सेदारी लगभग आधी है जो वित्त वर्ष 2019 में एक तिहाई थी.

इंडिया टुडे कवर : नए तेजड़िए
इंडिया टुडे कवर : नए तेजड़िए
अपडेटेड 1 सितंबर , 2025

- अरूण पुरी

दशकों से भारत का मध्य वर्ग अपनी अधिकांश बचत सावधि जमा, सोने या अचल संपत्ति में निवेश करता रहा है. इन निवेशों से भले ही रिटर्न कम मिला हो लेकिन इन्हें कम जोखिम वाला सुविधाजनक क्षेत्र माना जाता था. शेयरों में निवेश केवल साहसी, अमीर या ऊंचे-संपर्क वाले लोगों के लिए आरक्षित था.

इस सप्ताह की हमारी आवरण कथा भारत के पूंजी बाजारों में एक खामोश लेकिन व्यापक बदलाव की थाह लेती है. मध्य वर्ग, जो कभी संकोची और जोखिम से बचने वाला था, अब भारत के वित्तीय इंजन का केंद्र है. वे अब महज तमाशबीन नहीं हैं. वे खेल के नियम तय कर रहे हैं और एक ऐसी स्थिर ताकत के रूप में काम कर रहे हैं जो वैश्विक तूफानों से शेयर बाजारों को बचाती है. 

और वे ऐसा बड़े पैमाने पर कर रहे हैं. 'डीमैट’ खातों की संख्या वित्त वर्ष 20 में 4.1 करोड़ से लगभग पांच गुना बढ़कर वित्त वर्ष 25 तक करीब 19.2 करोड़ हो गई जो 35 प्रतिशत की शानदार वार्षिक चक्रवृद्धि है. पते की एक और बात—जीडीपी के हिस्से के रूप में घरेलू बचत वित्त वर्ष 21 में 22.7 प्रतिशत थी जो वित्त वर्ष 25 में गिरकर 18.5 फीसद रह गई है. वह पैसा गायब नहीं हुआ है.

बस शेयर बाजार में चला गया है—कम से कम इसका अधिकांश हिस्सा. यह म्यूचुअल फंड उद्योग में आए अपूर्व उछाल से स्पष्ट है. उनका कुल एसेट्स अंडर मैनेजमेंट (एयूएम) पांच वर्षों में तिगुना होकर वित्त वर्ष 26 की पहली तिमाही के अंत तक 74.4 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया है. इस बड़े हिस्से में भी छोटे निवेशकों की भागीदारी एक दशक पहले के 20 फीसद से बढ़कर 28 प्रतिशत हो गई है. एचएनआइ यानी अमीर निवेशकों के साथ मिलकर अब वे म्यूचुअल फंडों के कुल एयूएम का 63 प्रतिशत हिस्सा हैं.

सिस्टमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान (एसआइपी) का बढ़ना इस परिपक्वता का संकेत है. वित्त वर्ष 26 की पहली तिमाही में एसआइपी में मासिक योगदान 27,269 करोड़ रुपए रहा जो वित्त वर्ष 19 में महज 8,055 करोड़ रुपए था. भारत में अब 9.2 करोड़ एसआइपी खाते हैं, जिनमें से 8.6 करोड़ से ज्यादा हर महीने सक्रिय रूप से निवेश कर रहे हैं. 

यह बदलाव म्यूचुअल फंडों या एसआइपी तक ही सीमित नहीं. शेयरों के नकद बाजार में अब खुदरा निवेशकों की हिस्सेदारी लगभग आधी है जो वित्त वर्ष 2019 में एक तिहाई थी. डेरिवेटिव खंड में हाल के वर्षों में उनकी हिस्सेदारी दोगुनी से भी ज्यादा—20 प्रतिशत से बढ़कर 44 प्रतिशत—हो गई है. कई निवेशकों ने फ्यूचर्स ऐंड ऑप्शन्स में हाथ आजमाए हैं; कई ने गलतियां भी कीं. पर व्यापक रुझान स्पष्ट है—भारत के छोटे निवेशक सीख रहे, नई चीजों से परिचित हो रहे और निखर रहे हैं.

घरेलू पूंजी के इस नए आधार ने भारतीय बाजार के गणित को बुनियादी तौर पर बदल दिया है. जरा गौर करें: इस साल के पहले पांच महीनों में विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआइ) ने भारतीय शेयर और बॉन्ड बाजारों से 97,000 करोड़ रुपए से ज्यादा निकाले.

यह एक चौंका देने वाला उलटगति थी, जो अमेरिकी फेडरल रिजर्व की दर बढ़ोतरी, भू-राजनीतिक तनाव और जोखिम उठाने की क्षमता में बदलाव जैसी वैश्विक चुनौतियों के चलते हुई. एक दशक पहले इस तरह की निकासी होती तो भारतीय बाजार के सूचकांक औंधे मुंह गिरे होते. पर बाजार तो स्थिर रहे. जुलाई 2025 में सेंसेक्स 81,000 के आसपास घूमता रहा जबकि निक्रटी 25,000 के इर्द-गिर्द बना रहा.

यह मजबूती आकस्मिक नहीं थी. यह घरेलू रकम के निरंतर प्रवाह के बल पर आई थी जिसने पक्का किया कि विदेशी धन बाहर निकला तो खुदरा पूंजी आगे आएगी. वित्त वर्ष 19 और 25 के बीच एनएसई में सूचीबद्ध कंपनियों के बाजार पूंजीकरण में खुदरा निवेशकों और म्यूचुअल फंडों की साझा हिस्सेदारी 15.8 प्रतिशत से बढ़कर 19.9 प्रतिशत हो गई.

इसी अवधि में एफपीआइ की हिस्सेदारी 21 प्रतिशत से घटकर 17.5 प्रतिशत रह गई. शक्ति संतुलन स्पष्ट रूप से बदल रहा है. भारत के बाजार अब पूरी तरह से वैश्विक पूंजी के मिजाज पर निर्भर नहीं. घरेलू निवेशक संतुलन और सुरक्षा कवच दोनों के रूप में उभर रहे हैं.

यह दरअसल नीति, तकनीक और व्यवहार परिवर्तन के एक दशक लंबे मेल का नतीजा है. ई-केवाइसी, दो-दिन का निबटान चक्र और ज्यादा पारदर्शिता जैसे सेबी के नियामकीय कदमों ने पहुंच और भरोसे में सुधार किया है. डिजिटल बुनियादी ढांचे की अहम भूमिका रही है. जेरोधा, ग्रो और अपस्टॉक्स जैसी ऐप-आधारित ब्रोकरेज फर्मों ने प्रवेश बाधाओं को कम किया है और ट्रेडिंग को आसान बनाया है.

मोबाइल की पहुंच, सस्ते डेटा और फिनटेक नवाचार ने बाजार तक देश के हर जिले की पहुंच बनाई है. वित्तीय साक्षरता भी बढ़ी है. सरकारी अभियानों, स्कूल-आधारित निवेशक शिक्षा कार्यक्रमों और 'फिनफ्लुएंसर्स’ के उभार ने निवेशकों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार करने में मदद की है जो योजनाओं, जोखिमों और रणनीतियों के बारे में पहले से कहीं जागरूक है.

इस लम्हे को जो बात खास बनाती है, वह है भागीदारी की व्यापकता. नए निवेशकों की औसत उम्र अब 28 वर्ष से थोड़ी ही ज्यादा है. लगभग एक-चौथाई नए डीमैट खाते महिलाओं के हैं—जो 2019 के 16 प्रतिशत से ज्यादा हैं. इस नए उत्साह के बढ़ने के प्रमाण वास्तव में ऐसी जगहों के हैं, जिनके बारे में आप सोच भी नहीं सकते होंगे.

वित्त वर्ष 23 और वित्त वर्ष 25 के बीच उत्तर प्रदेश ने 65 प्रतिशत की उछाल के साथ डीमैट खाता वृद्धि में राष्ट्रीय औसत को पीछे छोड़ दिया; बिहार ने 70 प्रतिशत इजाफा दर्ज किया. महाराष्ट्र और गुजरात शीर्ष योगदान देने वाले बने हुए हैं लेकिन मझोले और छोटे शहरों से हो रही बढ़ोतरी भारत के वित्तीय लोकतंत्रीकरण के अगले दौर को रक्रतार दे रही है.

डिप्टी एडिटर अनिलेश एस. महाजन, जिन्होंने इस खामोश क्रांति के सभी पहलुओं को उजागर किया है, बताते हैं कि जोखिम अभी भी बरकरार है. खुदरा एफऐंडओ ट्रेडिंग में उछाल का मतलब छोटे निवेशकों का काफी नुक्सान भी है. सेबी के आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्ष 22 और 24 के बीच ऑप्शन ट्रेडिंग में उन्होंने लगभग 1.8 लाख करोड़ रुपए गंवा दिए.

आइपीओ के जुनून के कारण लिस्टिंग के बाद गिरावट आई है. इसके अलावा बढ़ता घरेलू कर्ज, खासकर क्रेडिट कार्डों और बिना गारंटी वाले ऋणों के जरिए, एक चेतावनी भरा संकेत है जिस पर नियामक कड़ी नजर रख रहे हैं.

लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि एक संरचनात्मक बदलाव हो रहा है जो भारत के मध्य वर्ग और पूंजी बाजार के बीच नए सिरे से सामाजिक समझ गढ़ रहा है. वे सिर्फ तेजी की लहरों पर सवार नहीं. वे खुद ही तेजी की तरंग हैं.

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