दुनिया भर में हर 30वें सेकंड कोई न कोई हेपेटाइटिस से जुड़े लिवर के संक्रमण से मारा जाता है—विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2024 के आंकड़ों के मुताबिक इससे हर साल 13 लाख मौत होती हैं. इनमें से करीब 9,00,000 अकेले हेपेटाइटिस बी वायरस (एचबीवी) से होती हैं, जिनमें से ज्यादातर की वजह सिरोसिस और लिवर कैंसर है.
यह मलेरिया से होने वाली मौतों से ज्यादा और टीबी के लगभग बराबर हैं. करीब 2.9 करोड़ भारतीय इस वायरस से ग्रस्त हैं, जो दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी तादाद है. फिर भी तीन दशक से रक्षात्मक टीका और असरदार एंटी-वायरल मौजूद होने के बावजूद हम इसे पूरी तरह खत्म करने में नाकाम रहे. क्यों?
सचाई यह है कि डॉक्टर समाज को नहीं जोड़ पाए. हमने एचबीवी को चिकित्सा से जुड़े मसले के तौर पर लिया, न कि सामाजिक मसले के तौर पर, जैसे कोविड-19, एचआइवी या टीबी को लिया है. ज्यादातर लोगों में संक्रमण छह महीने से भी कम वक्त टिकता है. दूसरों में यह जड़ पकड़कर लिवर को गंभीर रूप से नुक्सान पहुंचा सकता है.
चौंकाने वाली बात यह कि 10 फीसद से भी कम संक्रमित लोगों में इस रोग की पहचान हो पाती है; यौन संबंधों से वायरस के लगने से जुड़े लांछन और शर्म की वजह से 5 फीसद से भी कम का इलाज हो पाता है. यह अज्ञान और नादानी सुखद तो कतई नहीं. एचबीवी खून, वीर्य, लार और दूसरे शारीरिक तरल पदार्थों से फैल सकता है और माता से भी मिल सकता है. मगर दोष संक्रमित व्यक्ति का नहीं.
एचबीवी से संक्रमित लोगों की समय-समय पर निगरानी बहुत जरूरी है—10 संक्रमित व्यक्तियों में से एक में सिरोसिस या कैंसर विकसित हो जाता है. मरीज बार-बार जांच करवाते हैं, लेकिन बदकिस्मती से इलाज नहीं किया जाता क्योंकि मौजूदा दिशानिर्देश बहुत सीमित हैं, जिनसे करीब 60 फीसद इलाज से बाहर हो जाते हैं. उन्हें डर और कलंक के साये में जीना पड़ता है. अब चुनिंदा मरीजों के इलाज के बजाए सभी एचबीवी पॉजिटिव लोगों का इलाज करवाने की तरफ बढ़ने का समय आ गया है. टेनोफोविर सरीखी एक गोली रोज इस वायरस को जिंदगी भर के लिए दबा सकती है, फैलाव को रोक सकती है.
भारत में जन्म के समय महज 63 फीसद को ही टीका लगाया जाता है. इसके सबसे सस्ते टीकों में से एक होने और भारत के बड़े टीका उत्पादक देश होने के बावजूद एचबीवी टीका यहां बाजार में बमुश्किल उपलब्ध है और जन जागरूकता भी नहीं है. दिल्ली के महज 4.4 फीसद वयस्कों को पूरे टीके लगे हैं. क्या आपको लगे हैं? दुखद तो यह कि करीब एक-तिहाई स्वास्थ्य पेशेवरों तक को नहीं लगे हैं. हर भारतीय को जानना चाहिए: एचबीवी टीका सुरक्षित, असरदार और हरेक के लिए है.
कोविड ने हमें खुद अपनी जांच करने की ताकत सिखाई. एचबीवी से संक्रमित लोगों के नजदीकी संपर्क में आने वाले हर शख्स की जांच होनी ही चाहिए. शिक्षा, कार्यस्थल और स्वास्थ्य सेवा में भेदभाव विरोधी कानून बनाएं और लागू करें. हमें एक ही जगह जांच और इलाज करवा पाने के लिए एचबीवी किट की जरूरत है. संक्रमित मरीजों में से करीब 80 फीसद को मुफ्त और सुलभ इलाज से जोड़ना चाहिए.
एचबीवी सेवाओं को प्रसवपूर्व देखभाल, गैरसंचारी रोग, एचआइवी और टीबी से जुड़े कार्यक्रमों के साथ जोड़ा जाना चाहिए. हमें हेपेटाइटिस की जांच को नियमित स्वास्थ्य जांच और जनसंख्या आधारित सामान्य जांच में शामिल करना होगा. गर्भवती महिलाओं की एचबीवी और हेपेटाइटिस सी वायरस (एचसीवी) दोनों जांच की जानी चाहिए—एचसीवी केवल रक्त संपर्क से फैलता है और 55 लाख भारतीय इससे प्रभावित हैं.
भारत ने 28 जुलाई, 2018 को राष्ट्रीय वायरल हेपेटाइटिस नियंत्रण कार्यक्रम (एनवीएचसीपी) लॉन्च किया, जो 2030 तक वायरल हेपेटाइटिस को जड़ से खत्म करने के उद्देश्य से शुरू किए गए दुनिया के सबसे बड़े अभियानों में से एक है. यह एचबीवी और एचसीवी की मुफ्त पहचान और इलाज की सुविधा देता है. हालांकि जांच के मामले में असरदार काम हुआ है, पर इलाज करवाने वालों की संख्या अब भी कम है.
दुनिया भर में हेपेटाइटिस से रोजाना करीब 3,500 मौतों और उनमें से 11 फीसद भारत में होने के साथ यह संकट फौरन कार्रवाई की मांग करता है. हर टाली जा सकने वाली मौत कार्रवाई का आह्वान होती है. हरेक रोका जा सकने वाला नया संक्रमण हमारी सामूहिक नाकामी को सामने लाता है. हमें राजनैतिक इच्छाशक्ति, वैज्ञानिक नेतृत्व और मजबूत सामुदायिक भागीदारी से ओतप्रोत समाजव्यापी नजरिए की जरूरत है. आइए इसे टुकड़ों में समझें. न शर्म, न दोषारोपण. बस इलाज.
डॉ. एस.के. सरीन, एम.डी., डी.एम. प्रोफेसर ऑफ इमिनेंस, चांसलर, आइएलबीएस यूनिवर्सिटी