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BJP का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने में हो रही देरी; क्या RSS ने मामला फंसा दिया?

भाजपा में संगठनात्मक बदलाव पर आरएसएस की छाप पूरी तरह से स्पष्ट दिखती है, लेकिन सात निर्णायक राज्यों में अब भी आपसी सहमति बन पाने का इंतजार है.

THE BIG STORY BJP-RSS
नागपुर के एक कार्यक्रम में RSS सरसंघचालक मोहन भागवत और प्रधानमंत्री मोदी
अपडेटेड 26 अगस्त , 2025

सत्तारूढ़ भाजपा के लिए यह साल आत्ममंथन, मजबूती पाने और नए सिरे से फोकस तय करने का रहा है. हालांकि, पार्टी 2024 में लगातार तीसरी बार सत्ता पाने में सफल रही लेकिन अब पहले की तुलना में सहयोगियों पर कहीं ज्यादा निर्भर है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार सत्ता में है और ऊपरी तौर पर सामान्य ढंग से कामकाज भी जारी है.

लोकसभा चुनाव के बाद तीन राज्यों में शानदार चुनावी जीत ने उस हार को एक तरह से नेपथ्य में धकेल दिया है. लेकिन पार्टी के शक्तिशाली संगठनात्मक तंत्र के भीतर एक असामान्य सन्नाटा पसरा रहा, जब तक भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने उसमें हलचल नहीं मचाई.

इस पर मंथन ने ऐसे समय जोर पकड़ा है जब पार्टी नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की तैयारी में जुटी है. आरएसएस की छाप साफ नजर आ रही है, और सूत्रों का तो यह भी कहना है कि भाजपा और संघ के व्यापक तंत्र में साझा समझ बनी है. वह यह कि अब व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के बजाए वैचारिक निष्ठा और कार्यकर्ता अनुशासन को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

दिसंबर 2024 से जारी संगठनात्मक चुनावों के क्रम में भाजपा की 36 राज्य इकाइयों में से 28 में यह प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और तकनीकी रूप से अब जेपी नड्डा की जगह नया पार्टी प्रमुख चुनने की प्रक्रिया आगे बढ़ाई जा सकती है (पार्टी संविधान के मुताबिक, कोरम पूरा करने के लिए कम से कम 19 राज्यों में संगठनात्मक चुनाव होना जरूरी है).

लेकिन अब तक न तो चुनाव की तारीख घोषित नहीं की गई है और न शीर्ष पद के लिए किसी उम्मीदवार के नाम पर आम सहमति ही बनी है. इसके अलावा, छह प्रमुख राज्य इकाइयों उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, झारखंड, दिल्ली और हरियाणा में अब तक अध्यक्ष का चुनाव नहीं हो पाया है. वहीं, पंजाब में कार्यकारी अध्यक्ष की नियुक्ति की गई है, जबकि अशांत मणिपुर में यह प्रक्रिया अधर में अटकी है.

स्थिति पिछले दशक की तुलना में खासी अलग है. तब लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा सुचारु ढंग से नेतृत्व परिवर्तन में सफल रही थी. अमित शाह ने 2014 में दो माह के भीतर ही कार्यभार संभाल लिया, जबकि नड्डा की नियुक्ति जून 2019 में हुई (उन्हें पहले ही दो बार विस्तार मिल चुका है).

इससे दोनों नेताओं को राज्य अध्यक्षों की नियुक्तियों की रूपरेखा तय करने का मौका मिला. लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं है. संघ यह तय कर रहा है कि पार्टी के प्रमुख नेताओं के चयन और नियुक्ति में उसकी भूमिका ज्यादा हो. इसलिए देरी हो नहीं रही है, बल्कि ऐसा योजना के तहत किया जा रहा है. पार्टी नेता इसे ''रणनीतिक पुनर्संतुलन’’ कहते हैं. ऐसा हमेशा से होता रहा है. भाजपा जब भी किसी दुविधा में होती है, संघ का असर बढ़ जाता है.

भगवा असर
अट्ठाइस राज्य इकाइयों में हुई नियुक्तियां भी बहुत कुछ कहती हैं. ये कोई आलाकमान के जरिए नहीं हुईं. आरएसएस और उसके आनुषंगिक संगठनों ने राज्य प्रमुखों के चयन में अहम भूमिका निभाई. क्षेत्र और प्रांत प्रचारकों से बाकायदा परामर्श किया गया और कई मामलों में उनकी सिफारिशें स्वीकारी भी गईं.

संघ के राष्ट्रीय नेतृत्व ने निर्देश भी जारी किया—किसी नए दलबदलू की नियुक्ति नहीं की जाएगी. दरअसल, आरएसएस ऐसे नेताओं के चयन का पक्षधर है जो उसके अपने विस्तृत परिवार में ही तैयार हुए हों, और जो सिर्फ चुनावी रणनीति नहीं बल्कि वैचारिक कार्य और जमीनी स्तर पर लामबंदी की अहमियत को भी समझते हों.

वे राज्य अपवाद रहे जहां पार्टी का पारंपरिक जनाधार नहीं है या जहां पार्टी कुछ नया प्रयोग करना चाहती थी. कारोबारी से नेता बने राजीव चंद्रशेखर को केरल भाजपा अध्यक्ष बनाया गया. तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक छोड़कर आए नैनार नागेंद्रन को यह पद मिला. लेकिन आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में अनुभवी और संघ के भरोसेमंद पी.वी.एन. माधव और एन. रामचंद्र राव को प्राथमिकता मिली.

सांसदों की तुलना में विधायकों और विधान परिषद सदस्यों को भी स्पष्ट तौर पर प्राथमिकता मिली. सांसदों को दिल्ली की सत्ता की राजनीति में ''ज्यादा व्यस्त’’ माना गया. संघ सूत्रों का कहना है कि इसका उद्देश्य राज्य और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अगले चरण के लिए वैचारिक आधार तैयार करना है.

यह सब एक दीर्घकालिक योजना का हिस्सा है—इसके लिए भाजपा को ऐसा राष्ट्रीय अध्यक्ष चाहिए जो मोदी के बाद के दौर में पार्टी का नेतृत्व संभाल सके, जहां करिश्मा और केंद्रीकरण की जगह नहीं मिलेगी. नवनियुक्त राज्य अध्यक्षों से ऐसा बदलाव आगे बढ़ाने की उम्मीद है जिसमें भाजपा की व्यक्तिपरक के बजाए कार्यकर्ता-संचालित आंदोलन वाली छवि को फिर से स्थापित किया जा सके.

दूसरी नियुक्तियां
सत्ता का एक नया समीकरण 14 जुलाई को उभरता दिखा. केंद्र सरकार ने तीन नए राज्यपाल नियुक्त किए, जिसे एक रणनीतिक संकेत मान सकते हैं. आरएसएस से गहरा जुड़ाव रखने वाले अपेक्षाकृत कम चर्चित शिक्षाविद् प्रो. असीम कुमार घोष को हरियाणा का राज्यपाल बनाया गया. जम्मू-कश्मीर के उप-मुख्यमंत्री रह चुके तथा आरएसएस के प्रति निष्ठावान कविंदर गुप्ता को लद्दाख में उप-राज्यपाल बनाया गया.

यह कदम संवेदनशील क्षेत्रों में वैचारिक समीकरण साधने के इरादे से उठाया गया. गोवा में पूर्व टीडीपी नेता और अब भाजपा में शामिल हो चुके अशोक गजपति राजू को राज्यपाल पद की जिम्मेदारी मिली. औपचारिक तौर पर भाजपा में होने के बावजूद राजू के टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू के साथ करीबी संबंध हैं और उनकी नियुक्ति को एनडीए 3.0 में गठबंधन प्रबंधन माना गया.

एक दिन पहले ही पार्टी ने चार नए राज्यसभा सदस्यों के नाम तय किए थे—इतिहासकार मीनाक्षी जैन, आरएसएस के वरिष्ठ नेता सी. सदानंदन मास्टर, 26/11 के विशेष सरकारी वकील उज्ज्वल निकम और पूर्व विदेश सचिव हर्षवर्धन शृंगला. संदेश एकदम स्पष्ट है—संवैधानिक, सांस्कृतिक और कानूनी संस्थाओं की नियुक्तियों में संघ के प्रति निष्ठा और राष्ट्रवादी साख को प्राथमिकता दी जाएगी. भाजपा संगठनात्मक निर्णय लेने में भले ही समय लगा रही हो लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि व्यापक वैचारिक पारिस्थितिकी तंत्र चुपचाप राज्य तंत्र पर अपनी पकड़ मजबूत करता जा रहा है.

उधर अड़चनें जो हैं
हालांकि अब 28 राज्य इकाइयों के अध्यक्ष हैं, लेकिन सात बड़ी राज्य इकाइयां अभी भी नेतृत्वहीन हैं. वजह महज प्रक्रियागत देरी नहीं है, बल्कि गुटबाजी, उत्तराधिकार की लड़ाई और विचाराधारात्मक नियंत्रण फिर से स्थापित करने की युक्ति और रणनीति का उसमें बड़ा हाथ है.

कर्नाटक: भाजपा का यह दक्षिणी गढ़ विधानसभा (2023) और लोकसभा चुनावों में झटके झेलने के बाद नेतृत्व के संकट से जूझ रहा है. दिग्गज पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के बेटे राज्य अध्यक्ष बी.वाइ. विजयेंद्र ज्यादा लोकप्रिय नहीं हैं. राष्ट्रीय महामंत्री बी.एल. संतोष समानांतर सत्ता केंद्र बनकर उभरे और आखिरी भाजपाई मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई से जुड़े गुटों का समर्थन जुटा रहे हैं. केंद्रीय नेतृत्व पसोपेश में है. उसे पता है कि बीएसवाइ के अलावा कोई भी अहम लिंगायत आधार पर पकड़ नहीं रख सकता.

गुजरात: मौजूदा राज्य अध्यक्ष सी.आर. पाटील का कार्यकाल बहुत पहले पूरा हो चुका. फिर वे अब केंद्रीय मंत्री भी हैं, जो पार्टी के एक व्यक्ति एक पद के नियम के उलट है. मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल का खेमा और ओबीसी नेताओं की एकजुटता अपना असर बढ़ाने में लगे हैं, खासकर जब कांग्रेस और आप ने आदिवासी इलाकों में पैठ बना ली है. यह प्रधानमंत्री मोदी का गृहराज्य है. पार्टी को तय करना है कि दिल्ली से किसी को भेजा जाए या किसी स्थानीय नेता को चुना जाए जो राज्य सरकार से तालमेल बैठा सके.

उत्तर प्रदेश: मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बढ़ते असर ने दिल्ली को चौकन्ना कर दिया है. उनके किसी करीबी की नियुक्ति से राज्य इकाई रबर स्टैंप बनकर रह जाएगी. मगर बाहरी व्यक्ति को चुनने में बगावत का खतरा है. लोकसभा चुनाव में निराशाजनक प्रदर्शन और 2027 के विधानसभा चुनाव करीब आने के साथ पार्टी को तेजी से कदम उठाना होगा. आरएसएस सरकार और संगठन के बीच सेतु बनाने के लिए बढ़-चढ़कर जोर दे रहा है.

हरियाणा: पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के दिल्ली जाने के बावजूद उनकी छाया अब भी मंडरा रही है. उनके शिष्य मोहन लाल बडोली फिर राज्य अध्यक्ष पर दांव लगा रहे हैं, जिन्हें मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी का समर्थन हासिल है. लेकिन खट्टर के कुछ वफादारों का कहना है कि वे मुख्यमंत्री के ज्यादा ही करीबी हैं.

कांग्रेस से भाजपा में आए कद्दावर नेता तथा खट्टर के कट्टर विरोधी केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने एक रात्रिभोज का आयोजन करके अपनी दिलचस्पी का संकेत दिया. अहीरवाल इलाके (दक्षिण हरियाणा) के 12 विधायक उनके रात्रिभोज में मौजूद थे. लेकिन 74 वर्ष की उम्र में उनकी संभावनाएं कम ही हैं.

दिल्ली: राष्ट्रीय राजधानी में भाजपा इतनी ताकतवर पहले कभी नहीं रही—उसने लोकसभा की सातों सीटें जीतीं और विधानसभा चुनाव में आप को हराया. तो भी राज्य अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा कमजोर हैं और उनकी जगह किसी ऊर्जावान नेता की जरूरत है. दिल्ली अक्सर संगठन से जुड़े प्रयोगों को आजमाने की जमीन रही है और यहां का चयन बेहद अहम होगा.

झारखंड: दिग्गज नेता बाबूलाल मरांडी की प्रासंगिकता फीकी है. झामुमो-कांग्रेस गठबंधन ने विधानसभा और लोकसभा दोनों में आदिवासी आधार कायम रखा. भाजपा को तय करना है कि आदिवासी चेहरे को आगे लाए या ओबीसी लामबंदी पर भरोसा करे.

पंजाब: कांग्रेस से सुनील जाखड़ को लाने का प्रयोग नाकाम रहा. पार्टी ने 7 जुलाई को आरएसएस से जुड़े नेता अश्विनी शर्मा को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया. जून में एअर इंडिया के विमान हादसे में राज्य प्रभारी विजय रूपाणी की मौत से राज्य इकाई में उथलपुथल जारी है.

लंबा खेल
अध्यक्ष के चुनाव में देरी से भाजपा में बहस का संकेत मिलता है. बताते हैं कि संघ परंपरावादी को चाहता है जिसकी जड़ें गहरी हों. मोदी-शाह का खेमा ऐसे व्यक्ति को चाह सकता है जो गठबंधन की राजनीति और चुनावी व्यावहारिकताओं में ज्यादा रचा-बसा हो. केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल की संभावना भी है और संगठन में योगदान नहीं देने वाले मंत्रियों के पद छोड़ने की मांग उठ रही है.

एक बात पूरी तरह से साफ है: संघ अब और दोयम दर्जे की भूमिका निभाकर संतुष्ट नहीं. वह न केवल राज्यों की नियुक्तियों के अगले दौर की बल्कि केंद्रीय नेतृत्व में बदलाव की पटकथा भी लिख रहा है. बाकी बचे सात राज्यों के अध्यक्ष अंतत: चुने ही जाएंगे. राष्ट्रीय अध्यक्ष का नाम भी तय होगा.

मगर यह विचारधारात्मक दिशा तय करने का संघर्ष भी है. जैसा कि भाजपा के एक अंदरूनी सूत्र सवाल करते हैं, क्या भाजपा अब भी मोदी की केंद्रीयकृत मशीन है या यह धीरे-धीरे संघ के विकेंद्रीकृत और कार्यकर्ता को सबसे आगे रखने वाले तौर-तरीके की तरफ लौट रही है? इस सवाल का जवाब आहिस्ता-आहिस्ता ही सही लेकिन मिल रहा है. और इस लंबे विराम की अवधि में संघ अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है.

संघ यह तय कर रहा है कि पार्टी की नियुक्तियों में उसकी चले. इसलिए देरी हो नहीं रही है, बल्कि ऐसा डिजाइन के तहत किया जा रहा है. पार्टी नेता इसे ''रणनीतिक पुनर्संतुलन’’ कहते हैं.

संघ अब परदे के पीछे से दोयम दर्जे की भूमिका से संतुष्ट नहीं. उसका दखल न सिर्फ राज्यों की नियुक्तियों में खुलकर है, बल्कि वह केंद्रीय नेतृत्व में बदलाव की पटकथा भी तैयार कर रहा है. उसकी पैठ धीरे-धीरे पुख्ता हो रही है.

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