अपने 90वें जन्मदिन से ठीक पहले 2 जुलाई को चौदहवें दलाई लामा ने एक बेहद खास घोषणा की. उन्होंने पुष्ट किया कि दलाई लामा की परंपरा जारी रहेगी. उन्होंने अपने गादेन फोदरंग ट्रस्ट को पंद्रहवें दलाई लामा को चुनने का विशेषाधिकार सौंपा और किसी भी बाहरी हस्तक्षेप पर रोक लगा दी.
कुछ घंटों के भीतर चीन के विदेश मंत्रालय ने 2007 के 'जीवित बुद्धों के पुनर्जन्म की व्यवस्था संभालने संबंधी अपने उपायों' के तहत उनकी घोषणा को अवैध करार दिया. चीन का दावा है कि सभी पावन लामा के पुनर्जन्म के संबंध में चीनी सरकार की स्वीकृति अनिवार्य है.
इस मामले में दो परस्पर विरोधी धाराएं इसी तरह चलती हैं—एक का संचालन भारतीय धरती पर ट्रस्ट की तरफ से किया जाता है, और दूसरे की कमान चीन के सरकारी पक्ष ने अपने हाथ में ले रखी है.
धर्मशाला से हुई घोषणा पर भारत की प्रतिक्रिया मिली-जुली रही. केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने इसका पुरजोर समर्थन करते हुए कहा, ''केवल दलाई लामा और उनकी तरफ से स्थापित परंपराएं ही उनके उत्तराधिकारी का चुनाव कर सकते हैं.'' हालांकि, विदेश मंत्रालय (एमईए) ने साफ किया कि सरकार आस्था से जुड़े मामलों पर 'अपनी कोई राय नहीं अपनाती.'
रिजिजू अन्य सरकारी पदाधिकारियों के साथ दलाई लामा के जन्मदिन समारोह में शामिल हुए, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें शुभकामनाएं भेजीं. चीन ने इस पर विरोध जताया, जैसा उसने रिजिजू की टिप्पणियों को लेकर भी किया था. यह विरोधाभास भारत के संतुलन साधने के प्रयासों को जाहिर करता है. रिजिजू की टिप्पणियों ने दलाई लामा के रुख के साथ संभावित तालमेल का संकेत दिया लेकिन विदेश मंत्रालय का स्पष्टीकरण चीन को उकसाने से बचने की इच्छा दिखाता है.
दलाई लामा के उत्तराधिकारी पर नियंत्रण स्थापित करने पर जोर चीन की सोची-समझी रणनीति है. अपनी पसंद के दलाई लामा को पदासीन कराने के जरिए बीजिंग तिब्बत पर अपनी ऐतिहासिक संप्रभुता की धारणा को मजबूती देना चाहता है. चीन समर्थित पंद्रहवें दलाई लामा प्रवासी तिब्बती समुदाय की एकता खंडित कर सकते हैं, आंतरिक असंतोष दबा सकते हैं और नैतिक स्तर पर दलाई लामा की सर्वोच्च सत्ता को कमजोर कर सकते हैं. बीजिंग की मान्यता पाने वाले उत्तराधिकारी करिश्माई दलाई लामा के निधन के बाद तिब्बती मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय समर्थन में भी कमी ला सकते हैं.
दूसरी तरफ, 1959 से दलाई लामा और बड़े तिब्बती समुदाय के मेजबान और तिब्बत के साथ गहरे सभ्यतागत संबंध रखने वाले भारत के अपने हित हैं. धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आधिकारिक रुख अपनाए रखने के बावजूद, खासकर अगर दलाई लामा के ट्रस्ट की तरफ से मान्यता प्राप्त पंद्रहवें दलाई लामा का जन्म भारत में हुआ तो वह चुप्पी साधे नहीं रह सकता. वह भारत अथवा संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र या कहीं और दलाई लामा और तिब्बत से जुड़े अन्य अवतारी लामाओं के पुनर्जन्म पर आंख मूंदकर चीन का दखल स्वीकार नहीं सकता.
तिब्बत का एक सामरिक महत्व है और फिर चीन में संकटों से जूझती तिब्बती संस्कृति के संरक्षण में भारत की गहरी रुचि रही है. तिब्बती समुदाय, केंद्रीय तिब्बती प्रशासन और निश्चित तौर पर चौदहवें दलाई लामा के उत्तराधिकारी (यदि भारत में उनकी पहचान हुई तो) के साथ तालमेल बनाए रखना व्यावहारिक जरूरत होगी. 17वें करमापा के उत्तराधिकारी के मामले में चूक से सबक सीखना जरूरी है.
भारत-चीन संबंधों में तिब्बत एक संवेदनशील मुद्दा है लेकिन बीजिंग की मांगों के आगे झुकना इसका समाधान नहीं है. तटस्थ रुख अपनाने से गेंद चीन के पाले में जाने का खतरा है और इससे आक्रामक चीन के साथ टकराव उत्पन्न हो सकता है. गादेन फोदरंग ट्रस्ट की प्रक्रियाओं का स्पष्ट समर्थन करने के बजाए भारत को अपनी परंपराओं को संरक्षित करने के तिब्बती लोगों के अधिकार के प्रति समर्थन बढ़ाना चाहिए और केंद्रीय तिब्बत प्रशासन के साथ घनिष्ठता को मजबूत करना चाहिए.
यह विवेकपूर्ण समर्थन न केवल चीन के साथ टकराव से बचाएगा बल्कि एक धार्मिक प्रक्रिया पर नियंत्रण स्थापित करने की चीन की कोशिशों से निबटने में भी मददगार साबित होगा. और यह संकेत देने में भी सफल रहेगा कि भारत चीनी दखल के बजाए पारंपरिक तिब्बती तरीकों से चुने गए उत्तराधिकारी को ही स्वीकारेगा. अपने हितों की रक्षा, चीन से जटिल रिश्तों में किसी तनाव से बचने और दलाई लामा के जीवनकाल के बाद भी उनकी विरासत की गूंज बरकरार रखना सुनिश्चित करने के लिए भारत को एक छोटा लेकिन दृढ़ कदम उठाना ही होगा.
अशोक के. कंठ
लेखक चीन में भारत के राजदूत रह चुके हैं और अभी कई थिंक-टैंक से जुड़े हैं.