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क्या संविधान का 42वां संशोधन लोगों के बजाय शासक की इच्छा थी?

दिल्ली हाइकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश शिव नारायण धींगरा के मुताबिक, संविधान की उद्देशिका यानी प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवाद' शब्द जोड़ना 42वें संशोधन के जरिए किया गया घातक पाप था.

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर
अपडेटेड 30 जुलाई , 2025

- संजय हेगड़े 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने 26 जून को दबी जबान कही जाने वाली बात खुलकर बोल दी. वे संविधान की उद्देशिका से 'पंथनिरपेक्ष' और 'समाजवाद' शब्दों को हटाने पर चर्चा चाहते थे. उन्होंने कहा कि आंबेडकर ने कभी इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया, इन्हें आपातकाल के दौरान चोरी-छिपे जोड़ दिया गया. आपातकाल की 50वीं सालगिरह उन्हें इन शब्दों को पूरी तरह हटाने पर चर्चा का अच्छा मौका जान पड़ती थी.

होसबाले सुधार की मांग नहीं कर रहे हैं बल्कि उन्हें उलटना चाहते हैं. संविधान कोई रेस्तरांओं में मिलने वाली व्यंजनों की सूची नहीं है. आप अपनी पसंद की चीज चुनकर बाकी को छोड़ नहीं सकते. उद्देशिका हमारे राष्ट्रीय उद्देश्य का प्रतिबिंब है. इसके मर्म को बदलना बहस का विषय नहीं बल्कि इसका विध्वंस ही है.

बेशक, 42वें संशोधन ने 1976 में इन शब्दों को जोड़ा. लेकिन उनके पीछे निहित विचार हमेशा वहां था. पंथनिरपेक्षता और समाजवाद भूजल की तरह पूरे संविधान में बहते हैं. पंथनिरपेक्षता आपको हर पन्ने पर नहीं मिलेगी. लेकिन ध्यान से देखिए, वह वहां है. अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष बराबरी का वादा करता है. अनुच्छेद 15 और 16 भेदभाव का निषेध करते हैं. अनुच्छेद 25 धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी देता है. अनुच्छेद 27 और 28 धर्म को राज्यसत्ता की संस्थाओं से बाहर रखते हैं. अनुच्छेद 29 और 30 अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की रक्षा करते हैं. इनमें से किसी के भी कारगर होने के लिए 'पंथनिरपेक्ष' शब्द की जरूरत नहीं है. लेकिन यह शब्द उन्हें एक दूसरे से बांधता है. भारत में पंथनिरपेक्षता का अर्थ धर्म के प्रति शत्रुता नहीं है. इसका अर्थ राज्यसत्ता को सभी धर्मों से बराबर दूरी पर रखना है. यह मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर के आगे शीश नहीं नवाती. यह आस्था की रक्षा करती है. और नहीं मानने के अधिकार की भी. यह पराई या विदेशी नहीं है. यह संवैधानिक है.

समाजवाद भी बाहर से लाकर नहीं रोपा गया. इसका अर्थ है सामाजिक न्याय. आंबेडकर ने इस विचार का विरोध नहीं किया. उन्होंने बस एक ही आर्थिक मॉडल के साथ बंधकर रह जाने के खिलाफ आगाह किया था. निर्देशक सिद्धांत काफी कुछ कह देते हैं: असमानता कम करें, उचित मेहनताना सुनिश्चित करें, श्रम की गरिमा की रक्षा करें. 

होसबाले का कहना है कि संशोधन काले और अंधेरे दौर में किए गए. सही है. लेकिन बुरे पल में किया गया हर काम बुरा नहीं हो जाता. अदालतों ने संशोधन के उस हिस्से को रद्द नहीं किया. यहां तक कि आपातकाल की बहुत-सी ज्यादतियों को उलट देने वाली जनता सरकार ने भी उन शब्दों को बनाए रखा और उस सरकार के अहम मंत्री होने के नाते अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने इन शब्दों को बनाए रखने पर कोई आपत्ति नहीं उठाई.

सुप्रीम कोर्ट ने इसका फैसला कर दिया. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मुकदमे में पंथनिरपेक्षता को संविधान की मूल विशेषताओं में गिनाया गया. एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) में अदालत ने कहा कि पंथनिरपेक्षता संविधान की बुनियादी खूबियों का हिस्सा है.

आप मूल ढांचे में संशोधन नहीं कर सकते. आप घर को तोड़े बिना नींव को नहीं छू सकते. संसद शक्तिमान है, लेकिन सर्वशक्तिमान नहीं. होसबाले की मांग शब्दार्थों को लेकर नहीं है. यह राज्यसत्ता को नए सिरे से गढ़ने को लेकर है. यह भारत को पंथनिरपेक्ष गणराज्य से बहुसंख्यकवादी लोकतंत्र में बदलने को लेकर है.

भारत एक रंग, एक भाषा, एक आस्था नहीं है. यह जटिल और परतदार समाज है. पंथनिरपेक्षता विविधता को संभालने का हमारा तरीका है. पंथनिरपेक्ष होने के लिए आपको 'पंथनिरपेक्ष' शब्द की जरूरत नहीं. लेकिन ज्यों ही आप इस शब्द को हटा देते हैं, इसके विपरीत के लिए जगह खुली छोड़ देते हैं. यही जोखिम है. शब्द मायने रखते हैं. इसीलिए आरएसएस उन्हें हटाना चाहता है. किसी और चीज का रास्ता साफ करने के लिए. वे हिंदू राष्ट्र चाहते हैं, पंथनिरपेक्ष गणराज्य नहीं. उद्देशिका कोई मसौदा नहीं है. यह घोषणा है. यह बताती है कि हम कौन हैं. यह बताती है कि हम क्या होना चाहते हैं. हम भले इस पर हमेशा खरे न उतर पाएं. लेकिन हम इसे तिलांजलि न दें और अपना राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र उन लोगों को नए सिरे से न लिखने दें जिन्होंने अव्वल तो इसके शब्दों में कभी यकीन ही नहीं किया.

(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)

यह शासक की इच्छा थी, लोगों की नहीं

- न्यायमूर्ति शिव नारायण धींगरा (सेवानिवृत्त)

संवैधानिक संशोधनों की सिफारिश करने के लिए 1976 में स्वर्ण सिंह समिति बनाई गई. उसने उसी साल अपनी रिपोर्ट दे दी, और इस रिपोर्ट के आधार पर 42वें संशोधन के जरिए संविधान की उद्देशिका या प्रस्तावना संशोधित कर दी गई. संविधान में दो शब्द 'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्षता' जोड़ दिए गए, और हम 'संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य' के बजाए 'संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य' बन गए. इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया (4 जुलाई, 1976) में प्रकाशित एक लेख में प्रख्यात विधिवेत्ता श्री एन.ए. पालखीवाला ने दलील दी कि उद्देशिका संविधान का नहीं, संवैधानिक व्यवस्था का हिस्सा थी. अनुच्छेद 368 केवल संविधान में संशोधन की चर्चा करता है, संवैधानिक व्यवस्था में संशोधन की नहीं. लेख भारत के इतिहास की सबसे अहम घटनाओं का जिक्र करता है और ऐतिहासिक तथ्य के तौर पर बताता है कि भारत के लोगों ने 1949 में अपने धीरे-धीरे खुलते भविष्य के लिए क्या करने का संकल्प लिया था. कोई भी संसद अपने ऐतिहासिक अतीत को संशोधित या परिवर्तित नहीं कर सकती.

समाजवाद इस देश के लोगों को संविधान की तरफ से दिए गए मूलभूत अधिकारों का विरोधी है. समाजवादी देश अपने नागरिकों को बोलने की स्वतंत्रता, पसंद का काम करने की स्वतंत्रता नहीं देते, और न ही कमाई का अपनी इच्छानुरूप इस्तेमाल करने की स्वतंत्रता देते हैं. लोकतंत्र में मूलभूत अधिकार और मानवाधिकार पवित्रपावन होते हैं. लेकिन समाजवाद में शासन प्रमुख और राजकीय विधानसभाएं सर्वोच्च हो जाती हैं. हमारे संविधान में गरीबों के उत्थान के लिए कई प्रावधान हैं और राज्यसत्ता उनका पालन करती है. लेकिन 'समाजवाद' शब्द जोड़ देने से राज्यसत्ता को संविधान और उसके प्रावधानों की व्याख्या करने और लोगों के मूलभूत अधिकारों पर अंकुश लगाने का अधिकार मिल जाता है.

इसी कोशिश में सरकार ने बैंकों और अन्य उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया था, और निजी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करने के लिए समाजवादी पैटर्न का अब भी इस्तेमाल कर सकती है. ऐसा नहीं है कि संविधान की उद्देशिका को यह पता नहीं था: संविधान सभा में 'समाजवाद' शब्द पर बहसें हुई थीं और बहस के बाद यह फैसला किया गया था कि उद्देशिका में इसे शामिल न किया जाए और सरकार को समाजवाद के विचार से बांधे बिना दबे-कुचले और गरीब लोगों के उत्थान के लिए संविधान में ही जरूरी प्रावधान किए जाएं. उस वक्त के दो प्रमुख समाजवादी देशों चीन और सोवियत संघ में मूलभूत अधिकारों का हश्र सभी को पता था और है.

भारत में 'पंथनिरपेक्ष' शब्द का कोई इतिहास नहीं है. हम 'सर्वधर्म समभाव' में विश्वास करते हैं, जिसका अर्थ हर धर्म, हर जीवन पद्धति, और उन सभी विचारों का सम्मान है जो मानव मस्तिष्क अपने उत्थान के संदर्भ में विकसित कर सकता है और जो नकारात्मक ढंग से समाज को प्रभावित नहीं करते. भारत में इतिहास बताता है कि राज्यसत्ता ने सिर्फ उस धर्म में विश्वास किया है जिसका अर्थ है कानून और लोगों के शासन का स्वीकार. धर्म को अंग्रेजी के रिलीजन के बराबर नहीं रखा जा सकता; किसी भी अन्य भाषा में धर्म के समतुल्य कोई शब्द नहीं.

धर्म का वास्तविक अर्थ है अपनी प्रजा के प्रति राज्यसत्ता के समग्र कर्तव्य और धर्म के प्रति मनुष्य के कर्तव्य. रिलीजन आस्था है, जबकि धर्म कर्तव्यों के बारे में है. इसलिए पंथनिरपेक्ष शब्द की भारतीय संविधान में कोई जगह नहीं होनी चाहिए. विभिन्न प्रावधान इस देश के लोगों को अपनी आस्था और रिलीजन का पालन करने की पर्याप्त स्वतंत्रता देते हैं. संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में राज्यसत्ता का धर्म बताया गया है. सेक्युलर का 'धर्मनिरपेक्ष' अनुवाद न केवल दोषपूर्ण है बल्कि भारतीय राष्ट्र की जड़ों पर ही प्रहार करता है. कोई भी राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष यानी अपने कर्तव्यों के प्रति विरक्त और उदासीन नहीं हो सकता. 'सर्वधर्म समभाव' आपको हर आस्था और रिलीजन के प्रति सम्मान रखने के लिए बाध्य करता है.

मैं संविधान की प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवाद' शब्द जोड़ने को 42वें संशोधन के जरिए किया गया घातक पाप मानता हूं, जिसका उद्देश्य यह दिखाना था कि यह संविधान नहीं बल्कि शासक की इच्छा थी और वही सर्वोच्च थी.

(लेखक दिल्ली हाइकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश हैं)

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