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CJI की कमेटी ने जस्टिस वर्मा को कैसे माना दोषी; महाभियोग पर सरकार की मंशा पर क्यों उठ रहे सवाल?

दिल्ली हाइकोर्ट के पूर्व जज देश में महाभियोग का सामना करने वाले पहले न्यायाधीश बन सकते हैं, मगर प्रक्रिया में खामियां और केंद्र की ओर से इसे आगे बढ़ाने की मंशा के पीछे अच्छे संकेत नहीं.

जस्टिस यशवंत वर्मा  (Photo: ITG)
जस्टिस यशवंत वर्मा (Photo: ITG)
अपडेटेड 1 अगस्त , 2025

भारतीय राजनीति के जटिल संसार में, जहां फैसले अक्सर बंद दरवाजों के भीतर लिए जाते हैं, संसदीय मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू एक संवेदनशील मिशन में जुटे हैं. वे दलगत विभाजनों से परे सभी नेताओं का समर्थन उस एक काम के लिए जुटा रहे हैं जो भारत के न्यायिक इतिहास का ऐतिहासिक क्षण हो सकता है—न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा यानी हाइकोर्ट के किसी जज पर पहला महाभियोग.

जज के आउटहाउस में आग से शुरू हुई यह कहानी अब भ्रष्टाचार के सामान्य कांड से आगे चली गई है. इसने भारत की न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच की दरारों को उघाड़ दिया और राष्ट्र की स्थापना के समय से ही खदबदा रहे तनावों को उजागर कर दिया.

राजधानी पर काले बादल एकाधिक अर्थों में मंडरा रहे हैं और ज्यों-ज्यों संसद का मॉनसून सत्र नजदीक आ रहा है, यह मामला प्रमाण, प्रक्रिया और शक्ति के बारे में गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. जब रखवाले ही आरोपों के कठघरे में हों तो रखवालों की निगरानी कौन करे? और तब क्या हो जब जवाबदेही का तंत्र सांस्थानिक युद्ध का हथियार बन जाए?

आग जिसने हजारों सवाल सुलगा दिए

दिल्ली के पेड़ों से घिरे तुगलक क्रिसेंट एवेन्यू में, जहां जज और राजनयिक रहते हैं, 14 मार्च, 2025 आम शुक्रवार की तरह शुरू हुआ. तब दिल्ली हाइकोर्ट में सेवारत न्यायमूर्ति वर्मा अपनी पत्नी के साथ भोपाल में थे. उनकी बेटी दीया 30 नंबर के उस विशाल बंगले में थीं, जो उनका सरकारी आवास है. घर के कर्मचारी रोजमर्रा के कामों में जुट गए, सीआरपीएफ (केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल) के गार्डों ने अपनी चौकियां संभाल लीं, और ऐसा कुछ न था जिससे लगे कि यह रात भारतीय न्यायशास्त्र के सफर का रास्ता बदल देगी.

रात करीब 11.35 बजे दीया ने वह सुना जिसे बाद में उन्होंने धमाका कहा. घर के कर्मचारियों के साथ आवाज की ओर भागते हुए उन्होंने उन सर्वेंट क्वार्टर्स के पास बने तालाबंद स्टोररूम से लपटें निकलती देखीं जिन्हें एक चारदीवारी मुख्य आवास से अलग करती थी. शुरू में न तो सीआरपीएफ के कर्मियों ने और न ही मुख्य गेट पर तैनात गार्डों ने कोई कदम उठाया, यही वह ब्योरा था जिसने बाद में साजिश के सिद्धांतों को हवा दी.

जब दिल्ली अग्निशमन सेवा के लोग आए और उन्होंने सुरक्षाकर्मियों की मदद से ताला जड़े दरवाजे को तोड़कर खोला, उन्हें ऐसा नजारा देखने को मिला जो समझ से परे था. इस मामले को उसकी सबसे यादगार साउंडबाइट दमकलकर्मियों के फोन वीडियो में दर्ज स्टेशन ऑफिसर मनोज मेहलावत के मुंह से अचानक निकले उद्गार ने दी: ''महात्मा गांधी में आग लग रही है.’’ इशारा साफ था: गांधी की तस्वीर छपे 500 रुपए के नोटों की फर्श पर जलती गड्डियां, कुछ जल चुकी थीं और अन्य लपटों में आधी झुलसी थीं.

फायर ब्रिगेड के डिविजनल ऑफिसर सुमन कुमार ने बाद में अपनी गवाही में कहा कि उन्होंने अपने करियर में 'ऐसा कभी नहीं देखा’. दमकलकर्मियों और पुलिसकर्मियों समेत कई गवाहों ने बताया कि करेंसी नोटों का डेढ़ फुट ऊंचा ढेर था. मगर उसके बाद जो हुआ, या यूं कहें कि जो नहीं हुआ, वह भी इतना ही अहम साबित होना था. दिल्ली पुलिस ने सबूत जुटाने की कोई कार्रवाई नहीं की. न जब्ती ज्ञापन तैयार किया, न पंचनामा बनाया.

फॉरेंसिक जांच के लिए एक भी करेंसी नोट सुरक्षित नहीं रखा गया. पौ फटते-फटते जली हुई नकदी गायब हो गई, बताया गया कि अज्ञात लोगों ने हटा ली, जबकि अपराध स्थल की रखवाली करने वाला भी कोई न था. आधी रात को लगी आग की खबर शायद पुलिस के रोजनामचों में ही दफन रह जाती अगर कोई—जिसकी पहचान अज्ञात है—यह जानकारी बाद में मीडिया को लीक न कर देता. खबर न्यूज चैनलों पर धमाके के साथ छा गई जब एक जज के आवास पर जलते नोटों की तस्वीर ने जनता को झकझोर दिया.

सुप्रीम कोर्ट के सांस्थानिक तंत्र ने अस्वाभाविक तेजी दिखाई. कुछ ही दिनों के भीतर तब भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआइ) संजीव खन्ना ने दिल्ली हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस डी.के. उपाध्याय से आरंभिक रिपोर्ट मांगी, जिन्होंने कहा कि ''पूरे मामले की ज्यादा गहन जांच की जरूरत है.’’ सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने एक असाधारण बैठक में वर्मा का तबादला उनके मातृ हाइकोर्ट इलाहाबाद करने का प्रस्ताव रखा, जो साफ इशारा था कि न्यायपालिका संभावित घोटाले से दूरी बना रही थी.

न्यायमूर्ति वर्मा ने 15 मार्च को दिल्ली लौटने पर जो किया, या जो नहीं किया, वह बाद में उनके खिलाफ मामले में सबसे अहम बन गया. वे जले हुए स्टोररूम में तत्काल नहीं गए. उन्होंने पुलिस में उस बारे में कोई शिकायत भी दर्ज नहीं करवाई जिसे बाद में उन्होंने अपने को फंसाने की साजिश करार दिया. इलाहाबाद हाइकोर्ट में अपने तबादले को उन्होंने विरोध किए बिना स्वीकार कर लिया. उनके आलोचकों के लिए यह व्यवहार अपराधबोध का संकेत था. उनका बचाव करने वालों को इसमें भौचक शख्स के सदमे और गफलत की झलक नजर आई. 

सीजेआइ खन्ना ने 22 मार्च को ''आंतरिक (इनहाउस) जांच’’ करने के लिए तीन सदस्यों की समित गठित कर दी, जिसमें न्यायमूर्ति शील नागू (पंजाब और हरियाणा हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश), न्यायमूर्ति जी.एस. संधावालिया (हिमाचल प्रदेश हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश) और कर्नाटक हाइकोर्ट की न्यायमूर्ति अनु शिवरामन थीं. 3 मई को पेश उनकी 64 पेज की रिपोर्ट न्यायिक अभियोग की तरह मालूम देती है.

आरोपों पर न्यायमूर्ति वर्मा की प्रतिक्रिया से उनके मन के विश्वास की ताकत और उनकी कमजोर स्थिति दोनों का खुलासा हुआ. उनके 101 पेज के जवाब में कहा गया कि उनके सामने ''एक ऐसे तथ्य को गलत साबित करने का भारी-भरकम काम है जिसे प्रथम दृष्ट्या सच मान लिया गया है’’, जो प्रमाण के दायित्व को उलट देना और इस तरह न्याय के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन है.
उनकी आपत्तियां महज प्रक्रिया से आगे जाती थीं.

उन्होंने कहा कि समिति ने जांच का तानाबाना तीन प्रकल्पित सवालों के इर्द-गिर्द बुन लिया: उस कमरे में रखे धन का हिसाब वे कैसे देते हैं? उसका स्रोत क्या था? उसे किसने हटाया? वर्मा ने कहा कि इन सवालों में उस तथ्य को जस का तस मान लिया गया जिसकी जांच उन्हें करनी थी—कि वह धन जिसके बारे में उन्होंने दावा किया कि उनका नहीं है, उन्हीं का है. साथ ही, समिति को तथ्यों का पता लगाने का जो आदेश दिया गया, उसका यह भी अर्थ था कि उसने समुचित न्यायिक जांच के सुरक्षा उपायों के बिना काम किया, न शपथ पर गवाहों की जांच, न प्रमाण के नियम, न गवाहियों की सत्यता की जांच की कोई औपचारिक प्रक्रिया.

यह कोई जांच थी ही नहीं!

समिति की रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए सीजेआइ खन्ना ने वर्मा को 48 घंटों के भीतर इस्तीफा देने की सलाह दी, तो जज का जवाब दोटूक था. सलाह को खारिज करते हुए 6 जून की उनकी चिट्ठी में अवज्ञा और निराशा व्यक्त की गई. उन्होंने लिखा, ''ऐसी सलाह को स्वीकारने का अर्थ यह होगा कि मैं उस प्रक्रिया और परिणाम को मौन स्वीकृति दे रहा हूं जिसे मैं सम्मानपूर्वक मूलत: अन्यायपूर्ण मानता हूं.’’

इस मामले की अनियमितताओं को इससे ज्यादा स्पष्ट रूप से शायद कुछ और नहीं दर्शाता कि जांचकर्ताओं ने जांच न करना चुना. मामले की समीक्षा करते हुए पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने उन खामियों की पहचान की जो जानी-बूझी चूक ज्यादा लगती हैं. किसी भी फॉरेंसिक जांच ने आग लगने का कारण तय नहीं किया. न्यायमूर्ति वर्मा के धमाके के दावे को बगैर जांच खारिज कर दिया गया.

स्टोररूम की निगरानी कर रहे सीसीटीवी कैमरों ने, जो संभवत: सबसे अहम प्रमाण थे, रहस्यमयी रूप से काम करना बंद कर दिया, और जांचकर्ताओं की ओर से उसकी मांग किए जाने तक उनका डेटा इस तरह गंवा दिया गया कि उसे फिर हासिल नहीं किया जा सकता. समिति ने यह नाकामी तो दर्ज की मगर कोई प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकाला, इसके बजाए न्यायमूर्ति वर्मा को ही इस फुटेज को सुरक्षित नहीं रखने के लिए दोषी ठहराया, जबकि उनके पास ऐसा करने और अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए 10 दिन का वक्त था.

दिल्ली पुलिस के आचरण ने भी सवाल खड़े कर दिए. यहां गंभीर अपराध के प्रमाण कानून प्रवर्तन अधिकारियों के ऐन सामने थे, फिर भी उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की. बाद में सवाल करने पर अधिकारियों ने दावा किया कि वरिष्ठों ने उन्हें कहा कि इसमें ''ऊपर के प्रभावशाली लोग शामिल हैं’’ और उन्हें आगे कोई कार्रवाई नहीं करनी चाहिए.

जांच की यह अक्षमता खुद समिति तक व्याप्त थी. यह स्वीकार करते हुए कि पुलिस का आचरण 'लापरवाही’ भरा था, उन्होंने और गहन जांच करने से यह कहकर मना कर दिया कि यह ''उनके अधिकार क्षेत्र का हिस्सा नहीं’’ था. उन्होंने यह पता लगाने की कोई कोशिश नहीं की कि नकदी कहां से आई, यह असली थी या नकली, या यह उस स्टोररूम में कैसे पहुंची. धनराशि भी अटकलों का विषय बनी रही; मीडिया रिपोर्टों में 15 करोड़ रुपए बतलाए गए, मगर कोई आधिकारिक गिनती नहीं की गई.

महाभियोग की पहेली

अब जब संसद वर्मा पर महाभियोग की तैयार कर रही है, वह प्रक्रिया ही विवादास्पद बन गई है. न्यायाधीश (जांच) अधिनियम 1968 के तहत महाभियोग को निर्धारित राह का अनुसरण करना होता है: सांसद प्रस्ताव पेश करते हैं, अध्यक्ष या सभापति उसे स्वीकार करते हैं, तीन जजों की समिति जांच करती है, और दोषी पाने पर ही संसद चर्चा और मतदान करती है. इस सांविधिक प्रक्रिया में कानूनी प्रतिनिधित्व के अधिकार और शपथ पर लिए गए साक्ष्य समेत बेहद अहम सुरक्षा उपाय शामिल हैं.

इसके बावजूद मंत्री रिजिजू ने सुझाव दिया कि सरकार इस मामले को 'थोड़ा अलग’ ढंग से देखती है, जो इस बात का इशारा है कि सरकार सांविधिक जांच को दरकिनार कर सकती है क्योंकि आंतरिक जांच की रिपोर्ट आ ही चुकी है. इस नजरिए ने संवैधानिक विशेषज्ञों को चौंका दिया है.

जैसा कि 1991 में सुप्रीम कोर्ट के एक जज के खिलाफ भारत की पहली (नाकाम) महाभियोग की कार्यवाही में हिस्सा ले चुकी इंदिरा जयसिंह आगाह करती हैं कि आंतरिक जांच को सांविधिक जरूरत के साथ गड्डमड्ड करना ''न्यायमूर्ति वर्मा के निष्पक्ष प्रक्रिया के अधिकार का अवमूल्यन’’ और खुद कानून का ही उल्लंघन करता है.

इसे एक और लंबित महाभियोग के बरअक्स देखें तो सरकार की चुनिंदा तत्परता और जाहिर हो जाती है. दिसंबर 2024 से राज्यसभा के 55 सांसदों ने विश्व हिंदू परिषद के एक आयोजन में कथित भड़काऊ सांप्रदायिक बयान के लिए इलाहाबाद हाइकोर्ट के न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है.

मगर छह महीने बाद भी उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ का कहना है कि वे अब भी दस्तखत सत्यापित कर रहे हैं. वही धनखड़ जिन्होंने सीजेआइ को न्यायमूर्ति यादव के खिलाफ आंतरिक जांच न करने के लिए लिखा था, अब पूरी तरह वैसी ही एक जांच के आधार पर न्यायमूर्ति वर्मा के खिलाफ त्वरित कार्रवाई की हिमायत कर रहे हैं.

गहरा खेल

यह नाटकीय महाभियोग भारत की न्यायपालिका और मोदी सरकार के बीच चले आ रहे संघर्ष की कसौटी भी बनने जा रहा है. तनाव तभी से बढ़ता रहा जब 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को यह कहते हुए असंवैधानिक घोषित कर दिया था कि यह न्यायिक नियुक्तियों के मामले में कार्यपालिका को बहुत ज्यादा शक्ति देता है. सरकार कॉलेजियम प्रणाली से वैसे भी खीझी हुई है जिसमें जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं, और इसे गैर-जवाबदेह और अपारदर्शी मानती है.

कई मंत्री और उपराष्ट्रपति धनखड़ तक न्यायिक अतिक्रमण की आलोचना और उसे कार्यपालिका की ज्यादा देखरेख के तहत लाने की मांग कर चुके हैं. वर्मा का मामला जोरदार गोला-बारूद मुहैया करता है. यहां एक जज है जिसके पास ऐसी नकदी मिली जिसकी कोई सफाई नहीं दी गई, और न्यायपालिका की ही जांच ने उसे दोषी पाया. बाहरी निगरानी के लिए इससे बेहतर दलील और क्या होगी?

पर निहितार्थ कहीं ज्यादा गहरे हैं. महाभियोग के आधार के तौर पर आंतरिक रिपोर्ट को स्वीकार करके और सांविधिक सुरक्षा उपायों को दरकिनार करके सरकार ऐसी नजीर कायम करती है जो न्यायिक स्वतंत्रता को मूलत: बदल सकती है. कथित भ्रष्ट जज के खिलाफ आज का हथियार कल असुविधाजनक जजों को हटाने का औजार बन सकता है. वर्मा खुद भी उलझन में डाल देने वाले निशाने हैं. साथी खासकर उन्हें कर कानून के क्षेत्र का विशेषज्ञ बताते हैं.

उनके फैसलों से विचाराधारात्मक पूर्वाग्रह के बजाए चौकस तर्कवितर्क की झलक मिली. ऐसे जज को संदिग्ध परिस्थितियों में मिली जली हुई नकदी के बूते धराशायी किया जा सकता है, यह डरावना संदेश देता है: अगर हटाने के तंत्र को इतनी आसानी से सक्रिय किया जा सकता है, तो कोई भी सुरक्षित नहीं.

इस बीच बुनियादी रहस्य अनसुलझे हैं. उस रात किसका धन जल रहा था? वर्मा समझा नहीं पाए तो समिति ने उन्हें जिम्मेदार मान लिया. यह उस स्टोररूम में कैसे पहुंचा? इसका कोई सबूत सामने नहीं आया कि जज या उनके परिवार ने उसे वहां रखा. आग लगने की वजह भी नहीं पता चली. जज ने विस्फोट का जिक्र किया जबकि अग्निशमन अफसरों ने शॉर्ट सर्किट का संदेह जताया. फिर भी कोई फॉरेंसिक जांच नहीं हुई.

ये खामियां इसलिए मायने रखती हैं क्योंकि ये सत्य की खोज करने की बजाए पूर्वानुमान की कवायद में बदल जाती हैं. समिति की यह दलील कि न्यायमूर्ति वर्मा इसलिए दोषी होंगे ही क्योंकि वे अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर सके, न्याय के बुनियादी सिद्धांत को उलट देती है. जैसा कि सिब्बल ने कहा, ''आपराधिक कानून के किस सिद्धांत के तहत आप पूर्वानुमान के आधार पर किसी को दोषी ठहरा सकते हैं?’’

न्यायमूर्ति वर्मा शायद महाभियोग के जरिए हटाए गए भारत के पहले जज के तौर पर इतिहास में दाखिल होंगे. मगर प्रक्रियागत नवाचारों के जरिए और अनुत्तरित सवालों की बुनियाद पर उनको हटाया जाना न्यायिक जवाबदेही की मांग कर रहे लोगों के लिए बड़ी कीमत चुकाकर हासिल जीत साबित हो सकता है.

यह नजीर कायम होने पर, सांविधिक प्रक्रिया की एवजी के तौर पर आंतरिक जांच को स्वीकार करना, रहस्यमयी परिस्थितियों को समझा न पाने को दोष मान लेना, आपराधिक जांच के बिना आगे बढ़ना, उसी तंत्र और व्यवस्था को परेशान करने के लिए लौटकर आ सकता है जिसकी रक्षा करने का वे दावा करते हैं.ठ्ठ

न्यायमूर्ति वर्मा ने आग वाली घटना के बाद जो कुछ किया, या नहीं किया, बाद में वही उनके खिलाफ इस मामले में सबसे अहम साबित हो गया. उन्होंने कोई शिकायत दर्ज नहीं करवाई, अपने तबादले को स्वीकार कर लिया...

अगर सरकार न्यायमूर्ति वर्मा के खिलाफ महाभियोग के लिए सांविधिक सुरक्षा उपायों को दरकिनार करती है तो वह ऐसी नजीर पेश कर सकती है जो न्यायिक स्वतंत्रता को बुनियादी तौर पर बदल सकती है.

सीजेआइ की ओर से बनाई गई जांच समिति ने न्यायमूर्ति वर्मा को आखिर दोषी कैसे माना?


●समिति ने 55 गवाहों की गवाही, वीडियो/फोटो की फॉरेंसिक जांच, और इलेक्ट्रॉनिक तथा कॉल रिकॉर्ड्स का विवेचन किया ताकि अपने नतीजे पर पहुंच सके.

●जली हुई मुद्रा के कई विजुअल मिले. एक वीडियो में एक दमकल अधिकारी को 500 रुपए के नोटों पर छपी तस्वीर के बारे में यह कहते सुना जा सकता है, ''महात्मा गांधी में आग लग रही है भाई.’’

●वर्मा के निजी सचिव राजेंद्र कार्की ने आग के बाद सफाई का काम संभाला, जिससे जानबूझकर सबूतों से छेड़छाड़ का संदेह उभरा. कार्की ने 15 मार्च को रात 1.23 बजे जस्टिस वर्मा ने बात की, जब सबूत हटाए जाने की संभावना थी.

●वर्मा की बेटी दीया ने 15 मार्च को शुरू में नकदी के बारे में जानकारी की बात को स्वीकार किया, बाद में अपने बयान से मुकरने की कोशिश की

●स्टोररूम की निगरानी करने वाले सीसीटीवी कैमरे की हार्ड डिस्क गायब है. समिति ने निष्कर्ष निकाला कि अगर फुटेज से वर्मा के दावों को बल मिलता तो उनके पास उसे पेश करके अपनी बेगुनाही साबित करने का काफी समय था.

●सीजेआइ की ओर से पूछे जाने पर न्यायमूर्ति वर्मा नकदी के स्रोत-स्वामित्व के बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं दे सके जो कथित तौर पर उनके आवासीय परिसर में पाया गया था.

न्यायमूर्ति वर्मा की दलील

न्यायमूर्ति वर्मा ने खुद को निर्दोष बताया और इस्तीफा देने से इनकार कर दिया. इसके अलावा उन्होंने अपनी बचाव में निम्न दलीलें दी हैं-
●स्टोररूम में नकदी रखने से इनकार किया और कहा कि वहां पिछले गेट से कोई भी आ और जा सकता था
●तर्क दिया कि सीसीटीवी फुटेज उन्हें निर्दोष साबित कर सकते थे मगर वे रहस्यमयी ढंग से गायब हो गए
●अपने बेदाग करियर का हवाला देते हुए कहा कि उनके पास ऐसा गलत काम करने का कोई मकसद/इतिहास नहीं है
●दावा किया कि उनकी बेटी और स्टाफ ने आग के बाद उस स्टोररूम का मुआयना किया और उन्हें नकदी के कोई निशान नहीं मिले
●जोर दिया कि न तो दमकल विभाग न ही पुलिस ने घटनास्थल से किसी तरह की नकदी का दस्तावेजीकरण या जब्ती की
●दावा किया कि उन्हें निशाना बनाया जा रहा है, और बदनाम करने के लिए दिसंबर 2024 से ही सोशल मीडिया कैंपेन चलाया जा रहा

कैसे चलता है जज पर महाभियोग

भारत में सुप्रीम कोर्ट या हाइकोर्ट के जज को महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है, जिसके लिए संविधान और न्यायाधीश (जांच) अधिनियम 1968 में बताई गई सुनिश्चित प्रक्रिया अपनानी होती है. यहां इस प्रक्रिया का पूरा सिलसिलेवार ब्योरा प्रस्तुत है:

1 शुरुआत: महाभियोग की शुरुआत लोकसभा में (कम से कम 100 सदस्यों के दस्तखत से) या राज्यसभा में (कम से कम 50 सदस्यों के दस्तखत से) प्रस्ताव लाकर की जा सकती है. न्यायमूर्ति वर्मा के मामले में संसद में प्रस्ताव चर्चा के लिए स्वीकार किया जा चुका है.

2 जांच: पीठासीन अधिकारी (लोकसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति) प्रस्ताव की जांच के लिए तीन सदस्यों की समिति को भेज सकते हैं. समिति में आम तौर पर भारत के प्रधान न्यायाधीश या सुप्रीम कोर्ट के एक जज, हाइकोर्ट के एक मुक्चय न्यायाधीश, और एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता होते हैं. न्यायमूर्ति वर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय जांच समिति ने पहले ही महाभियोग की सिफारिश कर दी है. यह स्पष्ट नहीं है कि संसद इस सिफारिश को मानेगी या न्यायमूर्ति वर्मा के खिलाफ आरोपों की जांच के लिए अपनी समिति बनाएगी.

3 संसदीय मंजूरी: अगर समिति जज को दोषी पाती है, तो रिपोर्ट संबंधित सदन में प्रस्तुत की जाती है. प्रस्ताव तभी सफल होता है जब वह लोकसभा और राज्यसभा दोनों में विशेष बहुमत (उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई और कुल सदस्यों के बहुमत) से पारित हो. न्यायमूर्ति वर्मा के महाभियोग पर संसद के मॉनसून सत्र में बहस और मतदान होने की संभावना है.

4 राष्ट्रपति का आदेश: अगर दोनों सदन प्रस्ताव को आवश्यक बहुमत से पारित कर देते हैं, तो यह राष्ट्रपति को भेजा जाता है, जो फिर जज को हटाने का आदेश जारी करते हैं.

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