कर्बला की लड़ाई की तरह यह जंग भी आखिरी दम तक लड़ी जानी चाहिए.’’ यह बात करीब 30 साल के जूस विक्रेता रजा अहमदी ने मुझसे कही. उनका बिजनेस बागों, वाइन और शेरो-शायरी के लिए मशहूर ईरान के फारस सूबे में स्थित शिराज के नासेर खुसरो स्ट्रीट पर है.
शुक्रवार 13 जून को ईरान पर इज्राएली हवाई हमले शुरू होने के ठीक दो दिन बाद की बात थी. रजा 7वीं सदी की उस लड़ाई का जिक्र कर रहे थे, जिसे इस्लामी इतिहास में सियासी जुल्म के खिलाफ नैतिक प्रतिरोध का प्रतीक माना जाता है.
हम सड़कों पर ईद अल-गदीर का जश्न मना रहे थे, पूरे माहौल में उल्लास छाया हुआ, हर तरफ मीठे पेय की खुशबू बिखरी हुई थी और दूर से धमाकों की आवाजें आ रही थीं. हर 10 सेकंड में आसमान इंटरसेप्ट किए गए ड्रोन की लकीरों से जगमगा उठता था. फिर भी, रजा की हिम्मत जस की तस बरकरार थी.
हमले शुरू होने से एक दिन पहले मैं उत्तरी क्षेत्र में इस्फहान के शाही नक्श-ए-जहां चौक पर थी. 28 वर्षीय हमीद रजाई भारतीय पर्यटकों को फारसी कालीन बेच रहे थे और मजाकिया लहजे में आगाह कर रहे थे: ''कौन जाने कल अमेरिका हम पर बमबारी कर दे...’’ उनका नाटकीय अंदाज चोटिल चेहरे की वजह से और भी ज्यादा अजीब लग रहा था. हाल ही के बाइक हादसे की वजह से उनके चेहरे पर पट्टी बंधी हुई थी. रजाई ने अपनी चोटिल आंख की तरफ इशारा करते हुए कहा, ''मैं कई जंगों में बचा हूं. इसमें भी बच जाऊंगा.’’
ईरान में अपने पूरे प्रवास के दौरान जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह यही थी कि आम नागरिक ऐसी असाधारण घटनाओं का सामना कैसे करते हैं. जैसे, तेहरान निवासी सुरैया अमानी से जब अमेरिकी हमले के अंदेशे के बारे में पूछा गया तो वे इससे पूरी तरह बेपरवाह दिखीं. अब 60 साल की हो चुकीं सुरैया ने 1980 के दशक में अपना बचपन ईरान-इराक जंग के दौरान भूमिगत बंकरों में बिताया था. जब न्यूज चैनलों ने इज्राएली हमलों में पांच ईरानी एटमी वैज्ञानिकों और इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर के कमांडरों की मौत की सूचना दी तब उन्होंने कंधे उचकाते हुए कहा, ''ये चीजें तो यहां चलती ही रहती हैं.’’
शिराज में रजा के साथ बातचीत के कुछ ही समय बाद 15 जून सब्र के इम्तिहान का दिन साबित हुआ. आंशिक रूप से इंटरनेट ब्लैकआउट होने लगा और व्हाट्सऐप मैसेज आने बंद हो गए, वीडियो अपलोड नहीं हो रहे थे और टेलीग्राम की गति भी धीमी पड़ गई थी. अलग-थलग पड़ने की भावना उस समय और गहरा गई. उसी दिन देर शाम शहर के बाहर सैन्य प्रतिष्ठानों पर बमबारी हुई, जिसकी आवाजें इतनी तेज थीं कि कोई भी चैन से सो नहीं सकता था.
फिर भी सुबह तक शहर फिर से गुलजार नजर आया. स्थानीय लोग अपने कॉलेज या दफ्तर जा रहे थे; जर्जर यूरोपीय कारों, मुख्यत: हर जगह नजर आने वाली प्यूजो ने सड़कों पर जाम की स्थिति उत्पन्न कर रखी थी. और सरकारी अनिवार्यता के कारण हिजाब पहने महिलाएं एकदम सजी-धजी और आत्मविश्वास से लबरेज दिख रही थीं और गुलाब जल और जाफरान वाली चीनी कैंडीज जैसी चीजें खरीदने में जुटी हुई थीं.
तेहरान, काशान, इस्फहान, शिराज, यज्द और मशहद में बिताए दो हफ्तों के दौरान मैं किसी भी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिली जिसके चेहरे पर जंग को लेकर कोई शिकन नजर आई हो. यही नहीं, लोग इज्राएल पर जवाबी हमलों का खुलकर समर्थन कर रहे थे. दूसरी तरफ, आयतुल्ला के शासन के प्रति नाराजगी भी नजर आ रही थी, जिसे वे ईरान की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और आम लोगों के जीवन में मुल्लों के कट्टरतापूर्ण दखल के लिए जिम्मेदार मानते हैं. इस्फहान में एक शहरी योजनाकार मेहरदाद (बदला नाम) ने कहा, ''हम सब सरकार को नापसंद करते हैं. एक बदलाव अच्छा होगा. लेकिन हम नहीं चाहते कि ऐसा इज्राएल या अमेरिका के दखल से हो.’’
वैसे, अगर कोई खुले तौर पर मायूसी देखना चाहता था, तो ऐसा कुछ नहीं था. 22 जून की सुबह-सुबह, मशहद के इमाम रजा दरगाह पर अजान बिना किसी रुकावट के गूंज रही थी हालांकि इसी दौरान खबरें आ रही थीं कि इस्फहान, फोर्दो और नतंज में अमेरिका ने ईरान के न्यूक्लियर ठिकानों पर बम गिराए हैं. लेकिन उस वक्त भी मशहद के रेस्तरांओं में गर्म कबाब परोसे जा रहे थे और लोग बाजारों में खरीदारी कर रहे थे. जिंदगी रोजाना के ढर्रे के मुताबिक चल रही थी.
एक भारतीय के तौर पर मुझे अप्रत्याशित गर्मजोशी और अपनापन मिला. टैक्सी वालों ने बिना कुछ कहे किराया माफ कर दिया, कैफे में बिल लेने से मना कर दिया गया. कई स्थानीय लोगों ने इस बात पर बेहद शॄमदगी जताई कि जंग की वजह से हमें मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. लोग बेहद अपनेपन के साथ हमें ''हिंदोस्तानी!’’ पुकारते और बातचीत में अक्सर बॉलीवुड सितारे, खासकर अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान और हेमा मालिनी का जिक्र होता था.
सबसे आश्चर्यजनक यह था कि मुझे जितने भारतीय छात्र मिले, खासकर कश्मीरी युवा वे मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे. जींस और साधारण टी-शर्ट के साथ पारंपरिक हिजाब पहने शिराज यूनिवर्सिटी में एमबीबीएस की द्वितीय वर्ष की छात्रा रुबीना ने कहा, ''हम यहां महफूज महसूस करते हैं.’’ लेकिन जैसे निकासी शुरू हुई, उनमें से कई को पढ़ाई छोड़ने और वर्षों नहीं तो भी महीनों की अपनी मेहनत और उम्मीदें पीछे छोड़ने पर विवश होना पड़ा.
मेरा जो सफर ईरान के चार शहरों की कला-वास्तुकला की थीम पर आधारित अध्ययन दौरे के रूप में शुरू हुआ था, वह उस युद्ध की नाटकीयता, बाधाओं और चिंता के साथ समाप्त हुआ, जिसने कुछ समय के लिए पूरी दुनिया की सांसें अटका दीं. अमेरिकी हमलों के कुछ ही घंटों के भीतर मशहद से हमें निकालने के भारतीय दूतावास के प्रयास सराहनीय रूप से सफल रहे.
जैसे ही महान एयर का बोइंग 747 नई दिल्ली में उतरा, केबिन भावनाओं के कोलाहल से गूंज उठा. पंजाबी ''जो बोले सो निहाल’’ के नारे लगा रहे थे तो कश्मीरी ''या अली’’ कहकर शुक्र अदा कर रहे थे. गुजराती भी धीमे स्वर में गायत्री मंत्र पढ़ते जा रहे थे. उस पल में मेरे जेहन में केवल युद्ध के वे पल कौंध रहे थे जिन्हें हम ईरान में पीछे छोड़ आए थे. साथ ही वह अडिग विश्वास भी ध्यान आ रहा था, जिसके साथ वहां के लोग इस सबको झेल रहे थे. गरिमा, जीवटता और उम्मीद...इन सबने हमारे साथ उड़ान भरी थी.
तेहरान, काशान, इस्फहान, शिराज, यज्द और मशहद में बिताए दो हफ्तों के दौरान मैं किसी भी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिली जिसके चेहरे पर जंग को लेकर शिकन नजर आई हो.