- अरुण पुरी
इन दिनों भारत के वैश्विक पटल पर ऊपर चढ़ने और शिखर के नजदीक पहुंचने पर काफी ध्यान जा रहा है. पर यहां एक ऐसा शिखर है जिस पर हम पहुंचना नहीं चाहेंगे: नेचर पत्रिका के मुताबिक, भारत अब दुनिया का सबसे बड़ा प्लास्टिक प्रदूषक है. समझना जरूरी है कि हमने यह संदिग्ध सम्मान कैसे हासिल किया.
प्लास्टिक कचरा पैदा करने के मामले में भारत दुनिया का महज चौथा सबसे बड़ा देश है; अमेरिका, चीन और यूरोपीय यूनियन गुट हमसे कहीं ज्यादा प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करते हैं. मगर भारत को मायूस करने वाली बात यह है कि दूसरों के मुकाबले हमारे यहां अब भी कचरा प्रबंधन की आदिम प्रथाएं प्रचलित हैं.
अध्ययनों से पता चलता है कि हमारा केवल 12 फीसद प्लास्टिक कचरा ही संसाधित होता है. बाकी 88 फीसद कचरे के विशाल खुले अंबारों पर जमा होता रहता है, नदियों का दम घोंटता है, या घर-परिवारों और अनौपचारिक कचरा बीनने वालों के हाथों जला दिया जाता है. नेचर के मुताबिक, हम हर साल 93 लाख टन प्लास्टिक उत्सर्जन उत्पन्न करते हैं.
इनमें से करीब 58 लाख टन हम जलाते हैं, जिससे जहरीली गैसें निकलती हैं. तकरीबन 35 लाख टन का हश्र प्लास्टिक के मलबे में होता है. इसमें उस बड़ी मात्रा की तो गिनती ही नहीं है जो खुले ढेरों में फेंक दी जाती है और शब्दश: जहर फैलाती है. यह हमारी जमीन, पानी, हवा और खाद्य शृंखला में हमेशा के लिए घुलते जहरीले पदार्थों का डरावना सिलसिला है.
तुलना के लिए चीन को लीजिए. उसका प्लास्टिक उत्पादन भारत के मुकाबले शायद 4-6 गुना ज्यादा है. महज छह साल पहले तक उसे दुनिया का सबसे बड़ा प्लास्टिक प्रदूषक करार दिया जाता था.
लेकिन अब उसका सालाना प्लास्टिक उत्सर्जन महज 28 लाख टन है, जिससे बेहतर रीसाइक्लिंग तकनीकें और ज्यादा सख्त नियामकीय व्यवस्था अपनाने में अच्छी-खासी प्रगति की झलक मिलती है. दूसरी तरफ, भारत की घोषित प्रति व्यक्ति खपत हालांकि 30 किलो के वैश्विक औसत के आधे से भी कम 13 किलो है, लेकिन उसका रीसाइक्लिंग क्षेत्र भीषण नाकारेपन से छलनी है.
प्लास्टिक के बगैर भारत का गुजारा नहीं. आधुनिक अर्थव्यवस्थाएं इस बहुविध, टिकाऊ और हल्के वजन के पदार्थ में लिपटे तोहफे की तरह आती हैं. यह पैकेजिंग सामग्री से लेकर मोबाइल फोन, कंप्यूटर, कार, पानी के जहाज, हवाई जहाज, नलसाजी, फर्शसाजी, तमाम तरह के महंगे औद्योगिक इस्तेमाल, और ठेठ अंतरिक्षयान तक रोजमर्रा की उपयोगिताओं का अभिन्न अंग है.
प्लास्टिक उद्योग वित्त वर्ष 2022-23 में 3.5 लाख करोड़ रुपए का था, यानी जीडीपी का 1.4 फीसद. भारत में 30,000 से ज्यादा प्लास्टिक प्रसंस्करण इकाइयां हैं, जिनमें से करीब 90 फीसद छोटे और मध्यम उद्यम हैं. कुल मिलाकर वे 40 लाख लोगों को रोजगार देते हैं. भारत ने वित्त वर्ष 2024-25 में 12.5 अरब डॉलर की प्लास्टिक का निर्यात भी किया.
गर्म किए जाने पर उनके व्यवहार के आधार पर प्लास्टिक को दो व्यापक श्रेणियों में बांटा जाता है—थर्मोप्लास्टिक, जो गर्म होने पर नरम हो जाती है, पिघलाई और नए आकारों में गढ़ी जा सकती है और इसलिए रीसाइकल की जा सकती है; और थर्मोसेट, जैसे बैकलाइट, जिसे केवल एक बार ढाला जा सकता है और इलेक्ट्रिक इंसुलेशन, पकाने के बर्तन, छत डालने और ऑटो तथा औद्योगिक कलपुर्जों के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
दोनों ही किस्में बायोडिग्रेडेबल नहीं हैं. वे हमेशा कायम रहती हैं. मगर वक्त के साथ वे जहरीले सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म कणों में विखंडित हो जाती हैं, जो छन-छनकर मिट्टी, महासागरों और खाद्य शृंखलाओं में पैठ जाते हैं. माइक्रोप्लास्टिक रक्तधारा में प्रवेश करके दिमाग और दिल सरीखे अंगों में जमा हो रही है.
सरकार ने प्लास्टिक का इस्तेमाल कम करने के लिए 2022 में ''कम इस्तेमाल और कचरा फैलाने की ज्यादा क्षमता" वाली एकल-उपयोग प्लास्टिक (एसयूपी) की 19 चीजों पर प्रतिबंध लगा दिया. इनमें प्लास्टिक की कटलरी, स्ट्रॉ, ट्रे और सजावटी थर्मोकोल शामिल थे. इसके अलावा कैरी बैग सरीखी एसयूपी की चीजों के लिए मोटाई का मानदंड तय कर दिया—केवल 100 माइक्रॉन से ऊपर के उत्पादों की इजाजत दी गई.
सरकार ने उसी साल प्लास्टिक पैकेजिंग के लिए विस्तारित उत्पादक जिम्मेदारी (ईपीआर) के दिशार्निदेश अधिसूचित किए, जिनमें उत्पादकों, आयातकों और ब्रांड मालिकों के लिए उनके उत्पादों की पैकेजिंग से उत्पन्न प्लास्टिक का 100 फीसद आजीवन निबटारा सुनिश्चित करना अनिवार्य बना दिया गया.
लेकिन, जैसा कि भारत में बाकी तमाम चीजों के साथ भी होता है, नेक इरादे अमल की देहरी पर आकर ठिठक जाते हैं. अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में एसयूपी पर पाबंदी के दायरे में इस श्रेणी के बमुश्किल 11 फीसद उत्पाद थे, और एसयूपी की मोटाई के नियमों का पालन नहीं करने वाले कैरी बैग, सजावट में इस्तेमाल थर्मोकोल और गुब्बारों सरीखे दूसरे प्रतिबंधित उत्पादों के साथ, प्रमुख शहरों में इफरात से उपलब्ध थे.
नॉर्वे की लाभ-निरपेक्ष संस्था ग्रिड-अरेंडल में सीनियर सर्कुलर इकोनॉमी विशेषज्ञ स्वाति सिंह संब्याल का कहना है कि कानून लागू नहीं कर पाने की एक मुख्य वजह राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों और स्थानीय सरकारों में सख्ती की कमी है. वे बताती हैं, ''इसके अलावा प्लास्टिक के विकल्पों का उद्योग अपेक्षाकृत छोटा है और उसमें विशेषज्ञता की भी कमी है."
बांस की कटलरी, सुपारी के पत्तों के टेबलवेयर या कागज की प्लेट समेत एसयूपी के विकल्प मंहगे हैं और तमाम आय समूहों के लोगों के लिए सुलभ भी नहीं हैं. सीनियर एसोसिएट एडिटर सोनल खेत्रपाल ने आंकड़ों और जानकारियों के विशाल अंबार से छांटकर उन जरूरी बातों का तानाबाना बुना है जो तत्काल ध्यान देने की मांग करती हैं. उम्मीद है कि इस हफ्ते की आवरण कथा कारगर रोडमैप बनाने में योगदान देगी. शायद वह रोड रीसाइकल की गई प्लास्टिक से बनाई जा सके.
— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह).