करीब तीन दशक की अपनी पुलिस सेवा में यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई है कि कानून-व्यवस्था और जनसुरक्षा का दारोमदार बीते अनुभवों पर है और लगातार नवाचार पर भी. भारत जैसे विविधताओं से भरे और उत्सवों से जीवंत देश में भगदड़ की घटनाएं बार-बार सामने आती हैं, जो हमारी लगातार सतर्कता और सक्रिय उपायों की मांग करती हैं.
पिछले पांच साल में देश के अलग-अलग हिस्सों से भगदड़ की दो दर्जन से ज्यादा घटनाएं रिपोर्ट हुई हैं. ये ज्यादातर धार्मिक त्योहारों और बड़ी जनसभाओं के दौरान होती हैं. हरेक हादसा—चाहे वह सांस्कृतिक उत्सव के दौरान हुआ हो या किसी अचानक उमड़ी भीड़ के चलते—भीड़ प्रबंधन की रणनीतियों और सरकारी तंत्र की कमजोरियों की गंभीर याद दिलाता है.
यह साफ है कि हमें भीड़ को नियंत्रित करने का अपना तरीका बदलना होगा, और पुलिस व्यवस्था के हर स्तर पर नेतृत्व को भी बदलते हालात के मुताबिक ढलना होगा—खासतौर से तब, जब बेंगलूरू में 4 जून को हुई भगदड़ जैसी घटनाएं हमें यह बताती हैं कि नाकाफी योजना और प्रतिक्रिया की कितनी बड़ी मानवीय कीमत चुकानी पड़ती है.
सिर्फ इस साल ही आंध्र प्रदेश, गोवा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में भगदड़ से जुड़ी मौतें हुई हैं. बेंगलूरू में उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन ने न सिर्फ कई लोगों की जान ली और उनके परिवारों को गहरा दुख दिया, बल्कि हमारी व्यवस्था की कमजोर कड़ियों को भी उजागर कर दिया.
राज्य सरकार ने पुलिस नेतृत्व के खिलाफ कार्रवाई की है और न्यायिक जांच का आदेश भी दिया गया है, लेकिन उन सभी लोगों को भी जवाबदेह ठहराना होगा जिन्होंने पुलिस को बिना पूरी तैयारी के सिर्फ 12 घंटे पहले इस कार्यक्रम को मंजूरी देने के लिए मजबूर किया.
इस हादसे से जो सबक मिले हैं, उन्हें देश भर के पुलिस नेतृत्व को गंभीरता से अपनाना होगा. सबसे पहली जरूरत है कि भीड़ प्रबंधन की रणनीतियों को लगातार अपडेट किया जाए. भीड़ वाली जगहों पर प्रवेश और निकास मार्गों की साफ तौर पर पहचान, फिजिकल बैरियर्स का निर्माण और पर्याप्त पुलिस बल की तैनाती जैसी तैयारियां अब वैकल्पिक नहीं रहीं, ये जरूरी हैं. बीते अनुभवों से मिले सबक ही हमें आने वाले खतरों की पहचान पहले से करने में मदद करते हैं.
दूसरा अहम सबक है—सघन ट्रेनिंग और तैयारी की अनिवार्यता. भगदड़ जैसी अनियंत्रित स्थितियों में सबसे आगे खड़े पुलिसकर्मी को रियल-टाइम में सही फैसला लेने की जरूरत होती है. इसके लिए उन्हें नियमित मॉक ड्रिल और सिमुलेशन अभ्यासों में भाग लेना होगा.
ऐसा अभ्यास ही उन्हें दबाव की स्थिति में ठंडे दिमाग से सही फैसला करने के लिए तैयार करता है. पुलिस बल की संस्कृति ऐसी बनाई जानी चाहिए कि वे न सिर्फ रोजमर्रा की ड्यूटी में माहिर हों, बल्कि आपातकालीन परिस्थितियों में भी दक्षता से काम करें.
तकनीक का बेहतर उपयोग भी एक अहम पहलू है जिसमें अभी बहुत सुधार की गुंजाइश है. ड्रोन और रियल-टाइम एनालिटिक्स समेत संचार और निगरानी की आधुनिक तकनीकें अधिकतम भीड़ के समय हालात के बारे में लोगों को पहले से आगाह कर सकते हैं.
हमें अपनी पुलिसिंग शैली को सिर्फ प्रतिक्रिया देने वाली नहीं, बल्कि पहले से तैयार रहने वाली बनाना होगा. कानून-व्यवस्था, आपातकालीन सेवाओं और कार्यक्रम आयोजकों के बीच तालमेल का होना भी ऐसे आयोजनों की सफलता के लिए बेहद जरूरी है.
सार्वजनिक सहयोग भी असरदार भीड़ प्रबंधन की बुनियाद है. आम लोगों को आपातस्थिति में संयमित रहने के लिए जागरूक करना बेहद जरूरी है. जन-जागरूकता अभियानों के जरिए हम लोगों को जरूरी जानकारी दे सकते हैं जिससे वे भीड़ वाली जगहों में सुरक्षित रहना सीखें, और संभावित अफरा-तफरी को नियंत्रित व्यवस्था में बदला जा सके.
अंत में, भारत में बार-बार हो रही भगदड़ की चिंताजनक घटनाएं हमें आत्ममंथन करने, खुद को ढालने और जनसुरक्षा की रणनीतियों को मजबूत करने के लिए मजबूर करती हैं. बेंगलूरू की भगदड़ से मिले सबक को बदलाव की शुरुआत बनाना चाहिए—एक ऐसा मौका जब पुलिस नेतृत्व अपनी रणनीतियों की समीक्षा करे, ट्रेनिंग को मजबूत करे और तकनीक तथा जनसंपर्क में निवेश करे. यही उन पीड़ितों और उनके दुखी परिवारों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
अभिनव कुमार (सेवारत IPS अधिकारी)