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'हिंदी' को लेकर बैकफुट पर फडणवीस; त्रिभाषा फॉर्मूले का क्यों हो रहा विरोध?

नई शिक्षा नीति के तहत आने वाले त्रिभाषा फॉर्मूले और हिंदी को लेकर केंद्र सरकार का अतिरिक्त आग्रह कई राज्यों को रास नहीं आ रहा. उन्होंने इसके खिलाफ आवाज उठाई है.

The Nation language war
मुंबई में राज ठाकरे की तस्वीर के साथ मनसे का पोस्टर
अपडेटेड 18 जुलाई , 2025

तमिलनाडु सरकार ने मई के आखिरी दिनों में अप्रत्याशित कदम उठाते हुए केंद्र सरकार से समग्र शिक्षा योजना (एसएसएस) के तहत मिलने वाली 2,000 करोड़ रुपए की धनराशि दिलवाने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया.

उसने कहा कि केंद्र ने यह धनराशि राज्य सरकार को राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 लागू करने के लिए मजबूर करने की गरज से रोक रखी है. तमिलनाडु एनईपी के त्रिभाषा फॉर्मूले और उसके बहाने ''हिंदी थोपने’’ का जोर-शोर से विरोध कर रहा है.

यह गैर-हिंदीभाषी राज्यों और केंद्र के बीच एनईपी को लेकर चल रही लड़ाई का ताजातरीन टकराव है. शीर्ष अदालत ने 9 मई को वकील जी.एस. मणि की वह याचिका खारिज कर दी जिसमें तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल की सरकारों को एनईपी लागू करने का निर्देश देने की मांग की गई थी.

अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत उसकी शक्ति नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने तक सीमित है, राज्य सरकारों को नीतिगत फैसले लेने का निर्देश देने का अधिकार इसमें शामिल नहीं. व्यथित राज्यों का आरोप है कि ''हिंदी थोपने’’ की कोशिश संघ परिवार और उसकी तरफ से केंद्र में स्थापित नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भाजपा सरकार की व्यापक साजिश का हिस्सा है जिसमें वह स्थानीय संस्कृतियों और भाषाओं की जड़ें खोदना और देश की सांस्कृतिक विविधता को खतरे में डालना चाहती है.

तमिलनाडु के इस तुर्शी और तेवरों वाले विरोध के बाद महाराष्ट्र में नाराजगी चरम पर पहुंची. विरोध बढ़ने के बाद देवेंद्र फडणवीस की अगुआई वाली भाजपा गठबंधन की सरकार को कक्षा 1 से 5 में मराठी और अंग्रेजी के बाद हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाने से पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा.

कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) और माकपा से लेकर राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) तक, विभिन्न विचारधाराओं के समूहों ने आप‌‌त्ति जाहिर की. उन्होंने असाधारण एकजुटता दिखाते हुए ''मराठी की कीमत पर हिंदी थोपने’’ के खिलाफ आवाज उठाई.

गैर-हिंदीभाषी राज्यों की लड़ाई का मुख्य लब्बोलुबाब यही है. और महाराष्ट्र का मामला इसका प्रतीक है. अप्रैल के मध्य में प्राथमिक कक्षाओं में हिंदी को अनिवार्य बनाए जाने के सरकारी संकल्प (जीआर) के बाद हितधारकों ने यह बताने में जरा देरी नहीं की कि इससे उनके छोटे बच्चों को और भी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा.

महाराष्ट्र स्कूल प्रिंसिपल एसोसिएशन के पूर्व प्रमुख महेंद्र गणपुले का कहना है कि 6-10 बरस के बच्चे तीसरी भाषा सीखने के लिहाज से बहुत छोटे हैं और इससे गणित सरीखे बेहद अहम विषयों को दी जाने वाली अहमियत में कमी आ सकती है. गणपुले ने यह भी बताया कि अंग्रेजी के बारे में लिए गए फैसले के विपरीत हिंदी के मामले में विशेषज्ञों से कोई सलाह-मशविरा नहीं किया गया.

बढ़ता बैर
स्कूल शिक्षा मंत्री दादाजी भुसे ने 22 अप्रैल को कहा कि वे हिंदी से संबंधित आदेश पर रोक लगा रहे हैं. फडणवीस ने हालांकि इससे इनकार किया, लेकिन जाहिर है कि स्थानीय निकायों के आसन्न चुनावों की वजह से उन्हें पुनर्विचार करना पड़ा. भाजपा के सूत्रों का कहना है कि वे नहीं चाहते थे कि उन पर ''मराठी विरोधी’’ होने का ठप्पा लगे, तब तो और भी जब महाराष्ट्र में पार्टी को गैर-मराठी समुदायों का प्रचंड समर्थन हासिल है.

हिंदी के मुद्दे की वजह से ही राजनैतिक तौर पर रंजिशजदा चचेरे भाई उद्धव और राज ठाकरे ने संभावित सुलह के लिए एक दूसरे की तरफ हाथ बढ़ाया. शिवसेना (एकनाथ शिंदे गुट) की तरफ से परिवहन मंत्री प्रताप सरनाइक ने खुलेआम यह दावा करके आग को और भड़का दिया कि हिंदी मुंबई की ''बोली-भाषा’’ बन गई है.

महाराष्ट्र और तमिलनाडु हिंदी के खिलाफ खड़े होने वाले अकेले राज्य नहीं हैं. पंजाब, तेलंगाना, केरल और पश्चिम बंगाल सरीखे राज्यों में भी इसके खिलाफ बेचैनी बढ़ रही है. इस लड़ाई ने भारत की भाषाई विविधता को बचाने की जरूरत को लेकर ज्यादा बड़ी बहस छेड़ दी है, जिसमें यह डर तारी है कि हिंदी पर केंद्र के जोर से क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों को दबाया जा रहा है.

स्वीकार नहीं  चेन्नै में द्रमुक कार्यकर्ताओं का हिंदी-विरोधी एक प्रदर्शन

तमिलनाडु में हिंदी-विरोधी आंदोलन की जड़ें 1937 तक जाती हैं जब सी. राजागोपालाचारी की अगुआई वाली मद्रास प्रेसिडेंसी की सरकार ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य बनाने की कोशिश की थी. मौजूदा बहस ने पुरानी दरारों और दुश्चिंताओं को फिर उघाड़ दिया है.

मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने एनईपी को ''हिंदी का उपनिवेशवाद’’ करार दिया, तो उनके बेटे और उपमुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन ने एक्स पर एक पोस्ट में लिखा कि यह महज ''भाषाई संघर्ष नहीं बल्कि तमिल संस्कृति को बचाने का जातीय संघर्ष’’ है. स्टालिन ने केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के खिलाफ भी तलवारें खींच लीं जब प्रधान ने कथित तौर पर तमिलनाडु के अनुपालन करने तक धन रोकने की धमकी दी.

पंजाब सरकार ने इसी साल पंजाबी को राज्य के स्कूलों में अनिवार्य विषय बना दिया और कहा कि दसवीं कक्षा पास करने के लिए छात्रों को इसे प्राथमिक विषय के रूप में पढ़ना होगा.

ऐसा उसने दसवीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा साल में दो बार करवाने से जुड़े केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के मसौदा नियमों का विरोध करने के बाद किया, और यह दावा किया कि पंजाबी को विषयों की सूची से बाहर छोड़ दिया गया है. तेलंगाना सरकार ने भी सभी स्कूलों में कक्षा 1 से 10 तक के छात्रों के लिए तेलुगु को अनिवार्य भाषा के रूप में लागू कर दिया है.

आधिकारिक रूप से पश्चिम बंगाल कम शत्रुतापूर्ण नजर आ रहा है. उसने पिछले साल राज्य शिक्षा नीति (एसईपी) 2023 लागू की, जो विशेषज्ञों का कहना है कि एनईपी की प्रच्छन्न नकल ही है. राज्य सरकार ने पहले दावा किया था कि वह एनईपी को नहीं अपनाएगी. उसने एनईपी जैसे ही कई सुधार शुरू किए हैं, जिनमें स्कूलों में सेमेस्टर प्रणाली, अंतरविषयी अध्ययन, चार साल के अंडरग्रेजुएट कोर्स और छात्रों को कक्षा में रोकने की प्रणाली खत्म करना शामिल है.

एनईपी को स्वीकार करने के प्रति ममता बनर्जी के प्रशासन की तत्परता त्रिभाषा फॉर्मूले को लागू करने के उनके फैसले से जाहिर है, हालांकि हिंदी फिर भी संवेदनशील मुद्दा है. ऑल इंडिया सेव एजुकेशन कमेटी के महासचिव प्रो. तरुण कांति नस्कर ने बंगाल में एसईपी के भेष में एनईपी का बखान इस तरह किया: ''एनईपी में हिंदी अनिवार्य नहीं है, लेकिन केंद्र ने कोई शक नहीं छोड़ा कि अकेली तीसरी वैकल्पिक भाषा यही है. तमिलनाडु के विपरीत बंगाल ने इसके विरोध के लिए कुछ नहीं किया.’’

लड़ाई का एक और मोर्चा एनसीईआरटी किताबें हैं. उकसावा उनके शीर्षकों से ही शुरू हो जाता है. मसलन, कक्षा 6 और 7 की अंग्रेजी की पाठ्यपुस्तकों का नाम ''पूरवी’’ रखा गया है, जो पहले क्रमश: ''हनीसकल’’ और ''हनीकॉम्ब’’ थे, जबकि गणित की पाठ्यपुस्तक का नाम बदलकर ''गणित प्रकाश’’ रख दिया गया है. इससे परेशान केरल सरकार का कहना है कि यह ''संघीय सिद्धांतों और संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ’’ और ''मलयालियों पर हिंदी थोपने’’ की कोशिश है.

कक्षा 7 की पाठ्यपुस्तकों से मुगलों और दिल्ली सल्तनत के सभी जिक्र हटाने और दूसरी तरफ अल्पज्ञात और धुंधले भारतीय राजवंशों, कुंभ मेले, ''पवित्र भूगोल’’ और ''मेक इन इंडिया’’ सरीखी केंद्रीय पहलों के उल्लेख जोड़ने के लिए भी एनसीईआरटी की आलोचना की गई. आलोचकों ने उपनिवेशवाद से मुक्ति की आड़ में इतिहास के साथ छेड़छाड़ की इस कोशिश को आड़े हाथों लिया.

एनसीईआरटी के एक अधिकारी ने कहा कि भाषाओं की नई पाठ्यपुस्तकों के नाम बांसुरी, मल्हार, सारंगी और खयाल सरीखे भारतीय संगीत के वाद्ययंत्रों और रागों के नाम पर रखे गए हैं. उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत की सांगीतिक धरोहर के ये तत्व पूरे भारत के साझा हैं. यह नजरिया आनंददायक शिक्षा को अपनाने, सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करने और शिक्षा को कला और संगीत के साथ जोड़ने के एनईपी के विजन के साथ घनिष्ठ रूप से मेल खाता है.

प्रवासी पैटर्न
हिंदी के लिए आधिकारिक जोर तब दिया जा रहा है जब आर्थिक रूप से कमजोर हिंदी भाषी राज्यों से लोगों का प्रवासन बढ़ रहा है. इससे पूरे भारत में इस भाषाई समूह की मौजूदगी बढ़ी है. मसलन, महाराष्ट्र में 2011 की जनगणना दर्शाती है कि 2001 में मुंबई में हिंदी को अपनी मातृभाषा बताने वाले उत्तरदाताओं की संख्या 26 लाख थी, जो अब करीब 40 फीसद बढ़कर 36 लाख हो गई. मराठी मानुस अब भी शहर का सबसे बड़ा जातीय-भाषाई समूह है. मगर इनकी आबादी 2001 में 45 लाख थी, जो 2011 में घटकर 44 लाख रह गई.

दरअसल, मुंबई जैसे शहरी केंद्रों में भीड़भाड़ के कारण कई उत्तर भारतीय छोटे शहरों और यहां तक कि गांवों की ओर चले गए हैं, जहां वे होटलों, रेस्तरां, कारखानों और खेतों में मजदूरी करते हैं. इस वजह से शिवसेना और मनसे जैसी स्थानीय पार्टियां हिंदीभाषियों का विरोध कर रही हैं.

पूर्व आइएएस अधिकारी, लेखक और राज्य भाषा सलाहकार समिति के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत देशमुख ने फडणवीस को पत्र लिखकर पहली कक्षा से हिंदी को अनिवार्य बनाने के कदम का विरोध किया. इसे वे ''हिंदीभाषियों का मराठी पर सांस्कृतिक हमला’’ करार देते हैं. उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि ज्यादातर प्रवासी मराठी सीखने की जहमत नहीं उठाना चाहते.

लेखक और इतिहासकार मनु एस. पिल्लै कहते हैं कि उन्हें हिंदी को ''विशेष सरकारी संरक्षण’’ देने का कोई कारण नजर नहीं आता. उनकी राय में, ''यह पुरानी धारणा है कि राष्ट्रों की एकजुटता के लिए एक साझी भाषा की जरूरत होती है. हमारा देश विविधताओं से भरा है और अपनी विविधता को सियासी ढांचे में धकेलने के बजाए हमें अपनी सभी भाषाओं को फलने-फूलने देना चाहिए.’’

एक वैचारिक कवायद
सांस्कृतिक कार्यकर्ता और पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया को मूर्त रूप देने वाले जी.एन. देवी का कहना है कि भारत में हिंदीभाषियों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई है, जिसमें ''हिंदी के साथ कई छोटी भाषाओं को समाहित कर लिया गया है.’’ 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में 52.8 करोड़ से ज्यादा हिंदी भाषा बोलने वाले लोग थे लेकिन इस आंकड़े में 20.6 करोड़ लोग ऐसे थे, जिनकी मातृभाषा को हिंदी भाषा की श्रेणी में रखा गया.

इसमें भोजपुरी (5.1 करोड़), छत्तीसगढ़ी (1.6 करोड़) और कुमांऊनी (20 लाख) शामिल थीं. इसलिए, हिंदी बोलने वालों की वास्तविक संख्या लगभग 32 करोड़ है. चूंकि जनगणना का आधार 121 करोड़ था, इसका मतलब हुआ कि केवल एक-तिहाई आबादी ही हिंदी बोलती है. देवी कहते हैं, ''आबादी का 30 फीसद हिस्सा बाकी 70 फीसद लोगों पर अपनी इच्छा कैसे थोप सकता है? इसे किसी भी राजनैतिक तरीके से जायज नहीं माना जा सकता.’’

भाजपा और उसके वैचारिक स्रोत आरएसएस पर लंबे समय से धर्म, भाषा और संस्कृति के मामले में भारत पर एक एकरूपतावादी मॉडल थोपने का आरोप लगता रहा है. लेखक और शिक्षाविद् प्रो. अपूर्वानंद कहते हैं कि ''हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’’ का जोर हिंदुत्व प्रोजेक्ट से जुड़ा था, लेकिन एक भाषा, एक राष्ट्र, एक धर्म और एक संस्कृति पर जोर राष्ट्रवाद के यूरोपीय मॉडल के अनुरूप है.

अपूर्वानंद कहते हैं कि 1960 के दशक में अपनाया गया त्रिभाषा फॉर्मूला शिक्षा शास्त्र और शैक्षिक सिद्धांतों पर आधारित नहीं था. यह उस राज्य में न बोली जाने वाली भाषा सीखकर देश को एक सूत्र में बांधने की कोशिश का हिस्सा था. इसका मतलब था कि खासी बोलने वाला बांग्ला सीख सकता था और बिहार वाला हिंदी सीख सकता था.

हिंदी भाषी राज्यों ने फॉर्मूले के तहत हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत को अपनाया, जबकि कर्नाटक और केरल जैसे कुछ दक्षिणी राज्य स्वेच्छा से हिंदी पढ़ा रहे थे. अपूर्वानंद कहते हैं, ''हिंदीभाषी राज्य गैर-हिंदी भाषी राज्यों और उनकी संस्कृति को अपनाने से इनकार करते रहे हैं लेकिन अब गैर-हिंदी राज्यों को अपने साथ जुड़ने को बाध्य कर रहे हैं.’’

मनसे नेता अनिल शिदोरे हिंदी के सांस्कृतिक प्रभुत्व को आगे बढ़ाने के अन्य प्रयासों को रेखांकित करते हैं. मसलन, भारतीय रिजर्व बैंक ने यह अनिवार्य किया है कि बैंक अपना कारोबार स्थानीय भाषा में करें.

मनसे ने भारतीय बैंक संघ से ऐसी सेवाएं प्रदान करने और मराठी में बोर्ड लगाने को कहा था और इसे लागू कराने के लिए छोटा-मोटा विरोध प्रदर्शन भी किया. शिदोरे का कहना है, ''यह 'सॉफ्ट पावर इस्तेमाल’ करने के संघ के प्रयोग का हिस्सा है, जो पाठ्यक्रम, पुस्तकों, शिक्षा प्रणाली आदि के जरिए सांस्कृतिक आधिपत्य स्थापित करने की कोशिश कर रहा है.’’

भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रेम शुक्ला इन आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए कहते हैं कि त्रिभाषा नीति 1960 के दशक में लागू की गई और तब पार्टी के तौर पर भाजपा का जन्म भी नहीं हुआ था. वे कहते हैं, ''एनईपी ने तो इस फॉर्मूले को अंग्रेजी, मातृभाषा और एक भारतीय भाषा में बदलकर शिक्षण को उदार ही बनाया है.’’ उन्होंने इस दावे को निराधार करार दिया कि भाजपा किसी पर भी हिंदी थोपने की कोशिश कर रही है.

अंतत:, सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि समूह और समुदाय एक-दूसरे का सम्मान करें और एक-दूसरे को कमतर बताने की कोशिश न करें. देवी अपनी किताब, इंडिया: ए लिंग्विस्टिक सिविलाइजेशन में तर्क देते हैं कि 'भारत का विचार’ कभी एकरूपता में सीमित नहीं हो सकता. वे कहते हैं, ''बहुलता और विविधता ही इसके अभिन्न गुण हैं.’’ और इसमें कोई दो-राय हो भी नहीं सकती.

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