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क्या है 'बायोहैकिंग'; क्यों देश में तेजी से बढ़ रहा इसका ट्रेंड?

पोषण विशेषज्ञ का मानना है कि बायोहैकिंग डाइट सही तरीके से लेते हैं, तो वाकई गजब की ताकत देती है. वह उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाओं के बदले व्यक्ति के शरीर की जरूरतों पर जोर देती है

फिटनेस के लिए बढ़ा 'बायोहैकिंग' का ट्रेंड (सांकेतिक फोटो)
फिटनेस के लिए बढ़ा बायोहैकिंग का ट्रेंड (सांकेतिक फोटो)
अपडेटेड 1 जुलाई , 2025

आधुनिक दौर में लोग सेहतमंद खान-पान और वजन घटाने के जुनून की तलाश में आहार संबंधी रुझानों और सलाहकारों की ओर भागते फिरते हैं. मेडिटरेनियन डाइट या वीगन डाइट (दूध उत्पाद रहित शाकाहारी भोजन) का फैशन चारों ओर जोर मार रहा है.

उसमें पोषक तत्वों का जोड़-घटाव भी चलता रहता है. मसलन, घी-तेल बिल्कुल नहीं या कुछ ज्यादा, शक्कर बिल्कुल नहीं, कोई कार्ब नहीं या थोड़ा ज्यादा कार्ब, कोई मांस नहीं तो कोई उपवास वगैरह को पसंद करता है.

हाल के वर्षों में यह रवैया इस कदर बढ़ा कि अब 'बायोहैकिंग' कहलाने लगा है. यानी बेहतर सेहत की खातिर जीवनशैली में फेरबदल के लिए वैज्ञानिक साक्ष्य के साथ खुद करने-देखने का तरीका अपनाना.

अब बायोहैकिंग ने फैंसी डाइट से आगे निकलकर खुद को बायोलॉजी/चिकित्सा विज्ञान की जानकारी से जोड़ा है. जीन के जरिए शरीर में होने वाले ऊंच-नीच की पहचान में अप्रत्याशित प्रगति से न्यूट्रीजेनोमिक्स नाम का एक बिल्कुल नया विषय खुल गया है. इसका सार यह है कि भोजन का लोगों के जीन के साथ क्या रिश्ता बनता है? जीन भोजन के प्रति शरीर की प्रतिक्रिया और सेहत को भला किस तरह से प्रभावित करते हैं. इ

सके तहत बीमारी की रोकथाम और उसके इलाज के नए उपायों की भी खोजबीन की जाती है. न्यूट्रीजेनोमिक्स एक-एक व्यक्ति के स्तर पर बायोहैकिंग में मददगार है, जो किसी की आनुवंशिक प्रोफाइल के आधार पर खान-पान का निर्धारण करता है. मसलन, किसी को डेयरी उत्पाद यानी दूध-घी, अंडे वगैरह का सेवन न करने की सलाह दी जा सकती है क्योंकि उसके जीन लैक्टोज के साथ सहज नहीं रहते. किसी को चावल ज्यादा खाने की सलाह दी जा सकती है क्योंकि उसके शरीर को अन्न ज्यादा भाता है.

न्यूट्रीजेनोमिक्स का संसार

जीन और सेहत के बीच का रिश्ता सिद्धांत के स्तर पर करीब दशक भर से चर्चा में है. पत्रिका नेचर रिव्यू जेनेटिक्स में छपे 2013 के एक अध्ययन के मुताबिक, भोजन आपके जीन के रुख में फेरबदल कर सकता है. यह वह क्रिया होती है, जिसके तहत जीन के भीतर एन्कोडेड निर्देशों से कोशिका के संचालन के लिए जरूरी प्रोटीन डीएनए मिथाइलेशन (मिथाइल समूह यानी मौलिक बिल्डिंग ब्लॉक का अणु डीएनए में जुड़कर जीन का स्वभाव बदल देता है) के जरिए बनता है.

इस प्रक्रिया और अंतर्निहित डीएनए संरचना में बदलाव किए बिना भोज्य पदार्थों तथा दवा के जरिए जीन के रुख में बदलाव का अध्ययन एपिजेनेटिक्स कहलाता है. जीन के रवैए में बदलाव कोशिकाओं में होने वाली जैविक प्रक्रियाओं को प्रभावित करता है. ये बदलाव न सिर्फ बीमारी की संभावना पर असर डालते हैं, बल्कि खानपान के नियमन को भी असरदार बनाते हैं.

पिछले दशक में डीएनए सीक्वेंसिंग टेक्नोलॉजी में काफी तरक्की हुई है और अगली पीढ़ी की सीक्वेंसिंग (एनजीएस) और एक्सोम सीक्वेंसिंग से न्यूट्रीजेनोमिक जांच की सटीकता में सुधार हुआ है, जिसके तहत जीनोम के प्रोटीन-कोडिंग क्षेत्रों (एक्सॉन) का विश्लेषण किया जाता है. इन परीक्षणों में जीन वेरिएंट का आकलन किया जाता है, जिनसे भोजन में पोषक तत्वों, पाचन-प्रक्रिया और बीमारियों को लेकर शरीर की प्रतिक्रिया प्रभावित होती है.

इससे एलर्जी और पोषक तत्वों की कमी का पता चलता है, और यह भी कि शरीर में पोषक तत्व कैसे अवशोषित होते हैं, और उनका उपयोग कैसे होता है. यह एलर्जी मार्करों के जरिए नहीं, बल्कि आनुवंशिक लक्षणों से ग्लूटेन संवेदनशीलता या धीमी कैफीन पाचन-क्रिया वगैरह के लिए पूर्वाग्रहों की पहचान करता है. मार्केट रिसर्च फर्म आइएमएआरसी के मुताबिक, 2024 में भारतीय आनुवंशिक परीक्षण बाजार का मूल्य 1.8 अरब डॉलर (15,400 करोड़ रुपए) से ज्यादा था.

लेकिन हेस्टैकएनालिटिक्स की मेडिकल जेनेटिक्स की निदेशक डॉ. अपर्णा भानुशाली बताती हैं, ''सटीक टेक्नोलॉजी यानी जेनेटिक वेरिएंट का पता लगाने की काबिलियत बड़े पैमाने पर बढ़ी है, लेकिन पोषण के मामले में इन वेरिएंट की चिकित्सीय व्याख्या का ज्ञान अभी विकसित हो रहा है.'' न्यूट्रीजेनोमिक जांच के जरिए भोज्य पदार्थों का शरीर में इस्तेमाल के तरीके को जानना एक बात है. इसका दूसरा हिस्सा यह है कि इस जानकारी का सेहत बेहतर बनाने के लिए कैसे सेवन किया जाए. यह सिर्फ उपयुक्त भोज्य पदार्थों के जरिए ही नहीं, बल्कि एपिजेनेटिक चिकित्सा से भी किया जाता है, जो जीन के रुख में बदलाव और विशिष्ट रोगों के इलाज के लिए एपिजेनेटिक तंत्र को लक्षित करता है.

डॉ. भानुशाली कहती हैं, ''न्यूट्रीजेनोमिक्स दरअसल मॉलिकुलर बायोलोजी, एपिजेनेटिक्स और क्लिनिकल न्यूट्रिशन के जरिए बताता है कि व्यक्ति विशेष को क्या खाना-पीना चाहिए. मसलन, एफटीओ जीन (वसा जमाव और मोटापे से जुड़ा जीन) में भिन्नता (जिसे पॉलीमॉर्फिज्म कहा जाता है) मोटापे के बढ़ते जोखिम से जुड़ी है, जबकि एमटीएचएफआर (मेथिलीन टेट्राहाइड्रोफोलेट रिडक्टेज) जीन में ऊंच-नीच फोलेट (शरीर के लिए जरूरी विटामिन बी कॉम्प्लेक्स में एक पोषक तत्व) पाचन-क्रिया में गड़बड़ी पैदा कर सकता है, जिससे हृदय रोग और न्यूरल ट्यूब में विकार का खतरा बढ़ जाता है.''

मार्केट रिसर्च फर्म ग्रैंड व्यू रिसर्च के मुताबिक, भारतीय एपिजेनेटिक्स बाजार में 2023 में 47.98 करोड़ डॉलर (4,150 करोड़ रुपए) की कमाई हुई. इस साल फंडिंग में 1,36,000 डॉलर (1.16 करोड़ रुपए) जुटाने और 106 करोड़ रुपए के बाजार मूल्य वाले हेल्थ टेक स्टार्टअप वीरूट्स जीनो-मेटाबोलिक आकलन के आधार पर एपलिमो (एपिजेनेटिक लाइफस्टाइल मॉडिफिकेशन) प्रोग्राम की पेशकश करता है.

एपलिमो के जरिए मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, कैंसर, अवसाद जैसी 250 से ज्यादा बीमारियों की वजह बनने वाले कई आनुवंशिक वेरिएंट का कई साल या दशकों पहले पता लगाया जा सकता है, जिससे लोग अपनी जीवनशैली में बदलाव ला सकते हैं. वीरूट्स के संस्थापक और चेयरमैन सजीव नायर कहते हैं, ''10,000 से ज्यादा लोगों ने एपलिमो को आजमाया. इस प्रोग्राम को तीन महीने आजमाने के बाद उनके रक्त-परीक्षण में हमने गजब का सुधार देखा.'' नायर खुद भी 'सजीव डाइट' प्लान पर अमल करते हैं.

पोषण उद्योग का भविष्य

विशेषज्ञों के अनुसार, शरीर को जो सुहाता है, वही खाना खाने से संबंधित जानकारी पर ही पोषण उद्योग का भविष्य निर्भर है. बेंगलूरू में नारायण हेल्थ सिटी की मुख्य पोषण विशेषज्ञ डॉ. सुपर्णा मुखर्जी कहती हैं, ''मैं शरीर के लिए सटीक पोषण को अगले कदम के रूप में देखती हूं. हम किसी के शारीरिक गुणों, जैव रासायनिक मार्कर, चिकित्सीय लक्षण, भोजन संबंधी आदतें और उसकी आनुवंशिक रिपोर्ट देखते हैं. हम उसके कामकाज के स्तर और कैलोरी व्यय पर भी विचार करते हैं, जो हमें फूड प्लान को व्यक्तिगत बनाने में मदद करता है.''

सही जांच से वे ब्यौरे मिल सकते हैं, जो फर्क पैदा करते हैं. फिटनेस दीवाने 38 वर्षीय रोहित बेंगलूरू में हेस्टैकएनालिटिक्स में जीनोमिक स्वास्थ्य आकलन के लिए गए, तो उन्हें किसी बड़े खुलासे की उम्मीद नहीं थी. लेकिन जांच के नतीजों से सेहत के प्रति उनका नजरिया बदल गया. जांच से ग्रेव्स रोग के आनुवंशिक जोखिम का पता चला, जो थायरॉयड को प्रभावित करता है.

वजन घटाने के न्यूट्रीजेनोमिक प्रोग्राम भी आ गए हैं. बेंगलूरू के 41 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर साहिल मल्होत्रा अपना 10 किलो वजन घटाना चाहते थे, तो वे अपने लिए खास खान-पान की योजना की खातिर शहर के एक क्लिनिक में गए. वहां मैपमाइजीनोम के जरिए उनकी आनुवंशिक प्रोफाइल की जानकारी के बाद उन्हें बताया गया कि खान-पान में कई तरह के रद्दोबदल के बावजूद वे अपना वजन क्यों नहीं घटा पा रहे. वे कहते हैं, ''पता चला कि मैं प्रोटीन अच्छी तरह से पचा नहीं पाता, यही वजह है कि हाइ प्रोटीन वाले आहार काम नहीं आए क्योंकि उससे रोजाना की जरूरत के लिए कम कैलोरी बचती थी और मुझे लगातार भूख लगती थी.'' जांच नतीजों से बात समझ में आई, क्योंकि उनका परिवार मूल रूप से शाकाहारी है.

न्यूट्रीजेनोमिक्स की ओर रुझान बढ़ रहा है, लेकिन ज्यादातर लोग अभी भी अपनी पोषण जरूरतों के लिए मशरूम कॉफी और रेड लाइट थेरेपी जैसे बायोहैक्स पर अमल करते हैं. मानसिक स्वास्थ्य के लिए उपकरण बनाने वाली दिल्ली स्थित इनरजाइज फर्म के पोषण विशेषज्ञ, सीईओ तथा सह-संस्थापक डॉ. सिद्धांत भार्गव कहते हैं, ''कुछ खास किस्म का मशरूम खाना सेहत के लिए फायदेमंद हो सकता है. अन्य बायोहैक्स में कैफीन का अधिक सेवन, या ऐसे खाद्य पदार्थ शामिल हैं जो शरीर के एनएडी (एक प्रकार का डायन्यूक्लियोटाइड) स्तर में सुधार करते हैं.

नूट्रोपिक्स (क्रिएटिन और कैफीन जैसी दवाएं) हृदय के साथ-साथ मस्तिष्क क्रिया में सुधार कर सकती हैं.'' मार्केट रिसर्च फर्म कस्टम मार्केट इनसाइट्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत का हेल्थ टेक बाजार 2033 तक 78.4 अरब डॉलर (6.7 लाख करोड़ रु.) तक पहुंच सकता है, जिसमें बड़ा हिस्सा पहनने योग्य (जैसे फिटनेस ट्रैकिंग बैंड और हेड-माउंटेड डिस्प्ले) और ब्रेन गेम्स जैसे बायोहैकिंग टूल शामिल हैं.

हालांकि, मुंबई में मार्केटिंग इंटर्न 22 वर्षीया रोहिणी बेदी ने पाया कि इसके नतीजे हमेशा अच्छे नहीं रहे हैं. एआइ से तय आहार लेने से रोहिणी एक महीने में ही काफी कमजोर हो गईं, जिसमें दिन में सिर्फ दो घंटे भोजन करना और 'शरीर से विषैले तत्वों' को साफ करने के लिए हफ्ते में एक बार बर्फ स्नान शामिल था. रोहिणी को उससे निजात पाने के लिए इलाज करवाना पड़ा. बेंगलूरू के नगरभावी स्थित फोर्टिस अस्पताल की आहार विशेषज्ञ भारती कुमार कहती हैं, ''अपनी पोषण संबंधी जरूरतों और सेहत के मामलों पर ध्यान देना चाहिए, न कि इंटरनेट सर्च के नतीजों में क्या फैशन में है.'' विशेषज्ञ भी बायोहैक्स के बारे में गंभीर संदेह जताने लगे हैं. 

खबरदार रहने की सलाह

न्यूट्रीजेनोमिक्स के चलन से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन विशेषज्ञ विशेष सावधानी बरतने की सलाह देते हैं. पोषण विशेषज्ञ खुशबू जैन टिबरेवाल कहती हैं, ''बायोहैकिंग डाइट सही तरीके से लेते हैं, तो वाकई गजब की ताकत देती है. वह उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाओं के बदले व्यक्ति के शरीर की जरूरतों पर जोर देती है.'' लेकिन उन्हें यह भी लगता है कि न्यूट्रीजेनोमिक्स बायोहैकिंग, चाहे कितनी भी व्यक्तिगत जरूरत के मुताबिक क्यों न हो, कभी-कभी बुरे असर दे सकती है. इसी मामले में निरंतर ग्लूकोज मॉनिटर (सीजीएम) जैसी चीजें काम आती हैं.

मसलन, उससे लोग समझ पाते हैं कि उनके ब्लड ग्लूकोज का स्तर विभिन्न खाद्य पदार्थों पर कैसे प्रतिक्रिया करता है. दूसरी ओर, कुछ एपिजेनेटिक दवाएं, विशिष्ट बीमारियों को लक्षित करके, कई जीनों को प्रभावित कर सकती हैं, जिसके भारी दुष्प्रभाव दूसरे अंगों पर पड़ सकते हैं.

न्यूट्रीजेनोमिक्स और एपिजेनेटिक दवाएं विकसित हो रही हैं, और टिबरेवाल जैसे विशेषज्ञ कहते हैं कि यह व्यक्ति की सेहत के मुताबिक ही उसके आनुवंशिक निर्देशित हाइपरपर्सनलाइज्ड आहार तय होना चाहिए. जब तक हमारे जीन अपने रहस्यों को उजागर नहीं कर देते, तब तक सबसे अच्छा डेटा यही है कि आज आप कैसा महसूस कर रहे हैं.

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