
20 जनवरी, 2025 को पटना में 85वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने देश की विधानसभाओं को अपने कामकाज में सुधार करने की नसीहत देते हुए कहा था, "विधानसभाएं बहस और चर्चाओं की मंच हैं और विधायकों से लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने की अपेक्षा की जाती है.
विधानमंडल अपनी बैठकों की संख्या में कमी के कारण अपने संवैधानिक जनादेश को पूरा करने में विफल हो रहे हैं. विधायकों को राष्ट्रीय मुद्दों का समाधान करने और लोगों की आवाज को पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व देने के लिए विधायी संसदीय समय के कुशल शेड्यूलिंग और प्रभावी उपयोग को प्राथमिकता देनी चाहिए. पीठासीन अधिकारियों को संविधान की भावना और उसके मूल्यों के अनुसार सदन चलाना चाहिए."
भारत के संविधान का अनुच्छेद-168 राज्य विधानसभाओं के गठन से संबंधित है. इसके बाद के अनुच्छेदों में विधानसभा की शक्तियों और कार्यों के बारे में प्रावधान किया गया है. इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्य विधानमंडल के पास राज्य सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्ति है. प्रावधानों के अनुसार विधानसभा के पास चुनावी और संवैधानिक कार्य भी होंगे. लेकिन ये सब कार्य तब प्रभावी ढंग से होंगे जब विधानसभाओं के सत्र नियमित तौर पर चलेंगे. स्थिति ये है कि राज्य विधानसभा पूरे साल में बहुत कम दिनों के लिए काम कर रहे हैं.
इस बारे में पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की हालिया रिपोर्ट बेहद चिंताजनक तस्वीर सामने रखती है. रिपोर्ट के अनुसार 2024 में राज्य विधानसभाएं औसतन केवल 20 दिनों के लिए बुलाई गईं और औसतन सिर्फ 100 घंटे काम हुआ. इतनी कम बैठकों के बावजूद 500 से अधिक विधेयक पारित किए गए और 58 लाख करोड़ रुपये से अधिक के बजट को मंजूरी दी गई. आनन-फानन में किए गए इन कार्यों से विधायी प्रक्रिया की गुणवत्ता पर सवाल उठ रहे हैं.

पंजाब विधानसभा में सिर्फ 10 दिन काम हुआ. उत्तर प्रदेश विधानसभा में सत्र सिर्फ 16 दिन चले. अनुच्छेद 174 के अनुसार सत्रों के बीच का अंतराल छह महीने से अधिक नहीं होना चाहिए. लेकिन संविधान में विधानसभा की सत्रों के कुल कार्य दिवसों को लेकर कोई न्यूनतम सीमा निर्धारित नहीं की गई है. इस वजह से राज्य सरकारें अपनी मर्जी के हिसाब से विधानसभाओं का संचालन कर रही हैं. हालांकि, कुछ राज्यों ने न्यूनतम कार्य दिवसों का लक्ष्य निर्धारित करते हुए अपने स्वयं के नियम बनाए हैं लेकिन वे 2017 से 2024 के दौरान अपने स्वयं के लक्ष्य को भी पूरा नहीं कर पाए.
एक हैरान करने वाला तथ्य यह भी है कि 2024 में 51 प्रतिशत से अधिक विधेयक उसी दिन या अगले दिन पारित किए गए. जाहिर है कि इन विधेयकों पर पर्याप्त समय लगाकर सदन में बहस नहीं हुई. संसद के उलट अधिकांश राज्यों में सदन की स्थायी समितियों का कामकाज भी चिंताजनक है. अधिकांश विधेयक सदन की समितियों के पास भेजे बगैर विधानसभाओं से पारित कराए जा रहे हैं.
भारत के संविधान का अनुच्छेद- 178 स्पष्ट तौर पर विधानसभा में उपाध्यक्ष का प्रावधान करता है. लेकिन आठ विधानसभाएं बगैर उपाध्यक्ष के काम कर रही हैं. जाहिर है कि इससे प्रभावी कामकाज में बाधा आ रही है. ये सभी तथ्य बता रहे हैं कि राज्य विधानसभाओं के स्तर पर समग्र कामकाज और विधायी प्रक्रिया की बुनियादी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी को लेकर किस तरह की चिंताजनक परिस्थिति बनी हुई है.
2024 में पारित किए गए 51 प्रतिशत विधेयक राज्य विधानसभाओं में पेश होने के दिन या अगले ही दिन पारित कर दिए गए. जबकि 2023 में यह आंकड़ा 44 प्रतिशत था. प्रावधानों के अनुसार अगर कोई विधेयक पेश होने के दिन या उसके अगले दिन पारित हो जाता है तो उसे एक दिन के भीतर पारित माना जाता है.
आठ राज्यों- बिहार, दिल्ली, झारखंड, मिजोरम, पुडुचेरी, पंजाब, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल- ने 2024 में हर विधेयक को एक दिन के भीतर पारित किया. 16 राज्यों ने अपने सभी विधेयकों को पेश किए जाने के पांच दिनों के भीतर ही पारित कर दिया. हिमाचल प्रदेश में एक साल में विधानसभा ने 32 विधेयकों को पारित किया. इनमें से 17 विधेयक 5 सितंबर, 2024 को पेश किए गए और अगले दिन पारित हो गए. जाहिर है कि इतने कम समय में विधेयक पारित करने के प्रति राज्यों की विधानसभाओं का झुकाव ये बताता है कि सदन में किसी विधेयक पर विचार-विमर्श की गुंजाइश कितनी सीमित होती जा रही है.
संसद में भी और विधानसभाओं में भी ये व्यवस्था बनाई गई है कि किसी विधेयक के ड्राफ्ट पर गहन चर्चा के लिए उसे सदन की समितियों के पास भेजा जाए. लेकिन विधानसभा में इस संवैधानिक व्यवस्था को दरकिनार किया जा रहा है. 2024 में पेश किए गए 500 से अधिक विधेयकों में से केवल 22 को सात राज्यों की विधानसभाओं की समितियों के पास जांचने-परखने के लिए भेजा गया. यह कुल विधेयकों का महज 4 प्रतिशत है.
किसी भी राज्य के लिए उसका बजट बेहद महत्वपूर्ण होता है. लेकिन देश भी की विधानसभाएं बजट पारित करने के मामले में भी जल्दबाजी में दिख रही हैं. 2024 में 28 राज्यों ने औसतन सात दिनों तक बजट पर चर्चा की. लेकिन मध्य प्रदेश, पंजाब और तेलंगाना सहित छह राज्यों ने केवल दो दिनों में अपने बजट पर चर्चा की और उसे पारित कर दिया.
अप्रैल 2025 तक की स्थिति यह थी कि आठ राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभा बगैर उपाध्यक्ष के काम कर रही थीं. विधानसभा उपाध्यक्ष का महत्वपूर्ण पद कई राज्यों में वर्षों से खाली पड़ी है. झारखंड में दो दशक से अधिक समय से उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं हुआ है. उत्तर प्रदेश में पिछली विधानसभा के अंतिम सत्र में उपाध्यक्ष की नियुक्ति हुई थी. 2022 के चुनाव के बाद गठित विधानसभा का कार्यकाल तीन साल से अधिक का हो गया लेकिन अब तक विधानसभा उपाध्यक्ष का पद नहीं भरा गया है. इस संदर्भ में एक हैरान करने वाला तथ्य यह भी है कि जून 2019 से लोकसभा उपाध्यक्ष का पद भी खाली है.
कुछ राज्यों में वहां की चुनी गई सरकार और राज्यपाल में विधेयकों को लेकर तकरार की स्थिति दिखती रही है. इस वजह से यह भी देखा जा रहा है कि विधानसभा से पारित विधेयकों को राज्यपाल से मंजूरी के लिए अपेक्षाकृत लंबा इंतजार करना पड़ रहा है. इस बारे में यह रिपोर्ट बताती है कि 2024 में राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित हर पांच में से एक विधेयक (18 प्रतिशत) को को राज्यपाल की स्वीकृति के लिए तीन महीने से अधिक की देरी का सामना करना पड़ा. हिमाचल प्रदेश में 72 प्रतिशत, सिक्किम में 56 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल में 38 प्रतिशत विधेयक राज्यपाल की मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं. राज्यपाल की स्वीकृति मिलने में हो रही लंबी देरी कई राज्यों की विधायी प्रक्रिया में प्रदेश सरकार और राज्यपाल के बीच बढ़ते तनाव को उजागर कर रही है.

यहां से आगे का रास्ता क्या है? विधानसभाओं का कामकाज कैसे सुधर सकता है? इस बारे में उत्तराखंड विधानसभा की अध्यक्ष ऋतु खंडूरी भूषण इंडिया टुडे को बताती हैं, ''विधानसभाओं के कार्यदिवसों, बहसों और विधायी कामकाज की गुणवत्ता में सुधार समय की मांग है. उत्तराखंड विधानसभा में हमने सत्रों की उत्पादकता बढ़ाने हेतु नवाचार किए हैं. विषय विशेषज्ञों के संवाद, शोध पत्रों का संग्रह और ई-विधान जैसे डिजिटल उपकरणों के माध्यम से विधायकों की भागीदारी को सशक्त किया गया है.''
विधानसभा की अध्यक्ष ऋतु खंडूरी आगे कहती हैं, ''मैं मानती हूं कि विधानसभाएं केवल विधायी प्रक्रिया की नहीं, बल्कि लोक संवाद और उत्तरदायित्व की मूल संस्था हैं. उनकी सक्रियता लोकतंत्र की जीवंतता की पहचान है. मेरा अनुभव कहता है कि यदि हम विधायकों को बेहतर संसाधन, समयबद्ध सत्र और शोधपरक सहयोग दें, तो वे अधिक सार्थक बहस और जनहितकारी विधेयक प्रस्तुत कर सकते हैं. अतः यह आवश्यक है कि सभी विधानसभाएं आपसी संवाद और अनुभव-साझाकरण के जरिये एक बेहतर कार्य-संस्कृति विकसित करें.''