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टैक्स सुधार के लिए बना GST, कारोबारियों पर बोझ क्यों बन गया?

माल और सेवा कर यानी GST लाया गया था कारोबारी सहूलियत के वास्ते, लेकिन धड़ाधड़ संशोधन और प्रावधानों के अनुपालन की बढ़ती लागत से यह उद्यमियों के लिए बोझ बन गया

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर
अपडेटेड 1 जुलाई , 2025

जिंक सल्फेट बनाने वाली फर्म चक्रधर केमिकल्स के प्रबंध निदेशक और मुजफ्फरनगर के उद्यमी नीरज केडिया को 2023 में माल और सेवा कर (जीएसटी) विभाग से एक अप्रत्याशित नोटिस मिला. इसमें जुलाई 2017 से मार्च 2018 तक की अवधि के लिए लगभग 95 लाख रुपए के कर और 1.15 करोड़ रुपए के ब्याज की मांग की गई थी.

इसमें कहा गया था कि इनपुट टैक्स क्रेडिट (आइटीसी) इस व्यवस्था में कारोबारियों को अपनी खरीद पर चुकाए गए कर को वापस लेने या क्रेडिट पाने की सुविधा है. यह दावा केडिया को नहीं करना चाहिए था क्योंकि उनके सप्लायर ने मासिक रिटर्न फॉर्म जीएसटीआर-3बी दाखिल नहीं किया था. इस फॉर्म का इस्तेमाल जीएसटी देनदारियों की घोषणा के लिए किया जाता है.

नोटिस में आरोप लगाया गया कि केडिया ने 2017 में फॉर्म दाखिल नहीं किया था. वे अवाक रह गए. कई छोटे और मझोले कारोबारियों की तरह इस किस्म के नोटिसों ने न केवल कानूनी घंटी बजा दी बल्कि परिचालन में बाधा भी पहुंचाई. केडिया ने तुरंत जवाब देते हुए एक अहम बात उठाई: उस समय जीएसटी पोर्टल पर फॉर्म जीएसटीआर-3बी उपलब्ध भी नहीं था.

लेकिन सालों बाद इस तरह के कारण बताओ नोटिस का जवाब देना आसान काम नहीं है. इसमें पुराने रिकॉर्ड खंगालना, वित्तीय आंकड़ों की दुबारा जांच करना और खातों का मिलान करना पड़ता है. केडिया बताते हैं, ''आपको याददाश्त पर जोर देना होगा, सालों पहले के डेटा को ट्रैक करना होगा और अपना केस तैयार करना होगा.’’

कागजी कार्रवाई इस परेशानी का एक हिस्सा है. दूसरी परेशानियों में शामिल हैं, जीएसटी दफ्तर के कई चक्कर लगाना, अफसरों के सामने मामला उठाना और आखिर में एक उपाय के लिए मजबूर हो जाना जिससे जादुई तरीके से फाइलें पास हो जाती हैं रिश्वत देना.

जीएसटी अनुपालन और नोटिस की बढ़ती जटिलताओं के बीच परेशानियों की यह आम हकीकत है जिसका उद्यमी अक्सर सामना करते हैं. लेकिन इंडिया टुडे ने जिन 10 से ज्यादा उद्यमियों से बात की, उनमें से कोई भी बदले की कार्रवाई के डर से अपना नाम नहीं बताना चाहता.

जीएसटी निस्संदेह भारत की कराधान प्रणाली में एक ऐतिहासिक सुधार था. 'एक राष्ट्र, एक कर’ के सिद्धांत पर आधारित, इस प्रणाली को व्यापार सुगमता बढ़ाने के लिए तैयार किया गया था. इस व्यवस्था ने केंद्र और राज्यों की ओर से लगाए जाने वाले कई परोक्ष करों को व्यवस्थित किया है.

इनमें बिक्री कर, उत्पाद शुल्क, वैट और केंद्रीय बिक्री कर जैसे परोक्ष कर शामिल हैं. इससे अनुपालनों का बोझ घटा. जीएसटी ने एक राज्य से दूसरे में माल भेजने की बाधाओं को खत्म किया, आइटी-आधारित अनुपालन शुरू हुआ और कर की दरों से जुड़े विवादों को कम किया, जिससे ज्यादा कारोबार कर के दायरे में आए और अर्थव्यवस्था के औपचारिक होने में तेजी आई.

पहले की वैट और उत्पाद शुल्क व्यवस्थाओं में कारोबारी कर अक्सर 18 से 20 प्रतिशत बचाने के लिए ज्यादा या कम बिलिंग का सहारा लेते थे. ईमानदार व्यवसायों के लिए प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल होता था क्योंकि अन्य कारोबार अपने उत्पादों को नकद में काफी कम कीमत पर बेच सकते थे.

अहमदाबाद स्थित डाईज और केमिकल्स निर्माता आर.के. सिंथेटिक्स के निदेशक और भारतीय सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम महासंघ के पूर्व अध्यक्ष प्रशांत पटेल कहते हैं कि जीएसटी ने इस तरह की कर चोरी को कम किया और सबको बराबरी का अवसर दिया.

समय के साथ कारोबारियों ने जीएसटी अपनाना शुरू कर दिया और उन्हें इसके लाभ नजर आए. इसमें ताज्जुब नहीं जो जीएसटी संग्रह साल दर साल बढ़ता गया है. वित्त वर्ष 25 में शुद्ध राजस्व 19.56 लाख करोड़ रुपए को छू गया है जो वित्त वर्ष 24 के 18 लाख करोड़ रुपए से 8.6 प्रतिशत ज्यादा है.

अब जबकि सिस्टम काफी हद तक स्थिर हो चुका है तो ऐसा लगता है कि सरकार नए नियम जोड़ रही है, जिससे नई चुनौतियां पैदा हो रही हैं और कारोबारी सुगमता की दिशा में हुई कुछ प्रगति पर पानी फिर रहा है. बार-बार संशोधनों और अनुपालन की बढ़ती जरूरतों ने लागत का बोझ खासा बढ़ा दिया है.

खासतौर पर सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) के लिए जो शुरू से ही संसाधनों की तंगी से जूझ रहे हैं. पटेल कहते हैं, ''एमएसएमई निराश हैं. विचार यह था कि जीएसटी सरल और ऑनलाइन होगा और बिना सलाहकार के इसका प्रबंधन हो सकेगा. लेकिन अनुपालनों और विभाग के नोटिसों की बढ़ती संख्या ने इसे असंभव बना दिया है.’’

जीएसटी का लक्ष्य कराधान सरल बनाना था. मौजूदा स्वरूप में यह जटिल हो गया है क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों ही वस्तुओं और सेवाओं की एक से दूसरे राज्य को आपूर्ति करते समय हर लेनदेन पर जीएसटी लगाते हैं. वस्तुओं और सेवाओं की राज्यों के बीच आपूर्ति पर केंद्रीय जीएसटी या सीजीएसटी लगता है जबकि राज्यों की ओर से राज्य जीएसटी या एसजीएसटी लगाया जाता है.

इसके अलावा, हरेक कंपनी को उस प्रत्येक राज्य के लिए अलग जीएसटी नंबर लेना होता है जिसमें वह कारोबार करती है. इसके बाद हर पंजीकरण के लिए कंपनी को दो फॉर्म (जीएसटीआर-1 और जीएसटीआर-3बी) दाखिल करने और हर महीने एक और (जीएसटीआर-2बी) का मिलान करने की जरूरत होती है.

एमएसएमई के लिए जीएसटी विशेषज्ञ मुंबई के चार्टर्ड अकाउंटेंट कुश वोरा के अनुसार, कोई कंपनी 10 राज्यों में काम करती है तो उसे हर महीने 20 फॉर्म जमा करने होंगे जो सालाना 240 होते हैं. साथ ही 2 करोड़ रु. और 5 करोड़ रु. से ज्यादा टर्नओवर वाले व्यवसायों को क्रमश: दो वार्षिक रिटर्न (जीएसटीआर-9 और जीएसटीआर-9सी) और दाखिल करने होते हैं. 

हर कुछ महीने में नए नियम जोड़े जाते हैं, उद्यमियों के लिए उनसे तालमेल बैठाना मुश्किल होता है. सबसे पहले ई-इनवॉइसिंग आया जिसे अगस्त 2023 में 5 करोड़ रुपए से ज्यादा टर्नओवर वाले कारोबारों के लिए अनिवार्य किया गया था. दिल्ली की कर सलाहकार फर्म एएमआरजी ऐंड एसोसिएट्स में सीनियर पार्टनर रजत मोहन कहते हैं, फिर अक्तूबर 2024 में सरकार ने जीएसटी पोर्टल पर इनवॉइस मैनेजमेंट सिस्टम पेश किया.

''हर 6-8 महीने में होने वाले बदलावों से अधिकांश कारोबारी खुद जीएसटी रिटर्न दाखिल करने में आश्वस्त महसूस नहीं करते हैं. अनुपालन के लिए वे पेशेवरों पर निर्भर रहने को मजबूर हैं.’’ मसलन, 2023 में सरकार ने गुजरात में कई एमएसएमई को नोटिस जारी किए, जिनमें लीजहोल्ड औद्योगिक जमीन की बिक्री पर पिछली तारीख से 18 प्रतिशत जीएसटी की मांग की गई. इसका मतलब यह है कि जुलाई 2017, जब जीएसटी लागू हुआ था. इसके बाद बेची गई ऐसी किसी भी जमीन पर अब कर लगना था. पिछली वैट और सेवा कर व्यवस्थाओं में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था.

केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर और सीमा शुल्क बोर्ड (सीबीआइसी) की ओर से जीएसटी सदस्य शशांक प्रिय वित्त मंत्रालय के प्रवक्ता का हवाला देते हुए कहते हैं कि जीएसटी परिषद और इसके अधीनस्थ निकाय उद्योग और व्यापार संघों के साथ सक्रिय रूप से संवाद करते हैं ताकि पक्का हो कि हाल के संशोधन और स्पष्टीकरण एमएसएमई से जुड़े लोगों तक प्रभावी ढंग से पहुंच सकें.

लेकिन गुजरात के मामले में जीएसटी प्रावधान तकनीकी रूप से मौजूद था पर इसके बारे में हितधारकों को स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया था. गुजरात चैंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री ने हाइकोर्ट का रुख किया और फैसला उनके पक्ष में आया.

हालांकि शशांक प्रिय कई बदलावों का बचाव करते हैं. उनका कहना है कि जीएसटी एक नई कर प्रणाली है और किसी भी बड़े सुधार की तरह इसमें भी सुधार की सतत प्रक्रिया चल रही है. वे कहते हैं, ''जैसे-जैसे सरकार, व्यवसाय और कर पेशेवर इस प्रणाली से जुड़ते हैं, कई नए मसले, कमियां या अनचाहे नतीजे सामने आते हैं. तब इन कमियों को दूर करने के लिए नियमों में संशोधन किया जाता है/स्पष्टीकरण जारी किए जाते हैं.’’

मौजूदा जीएसटी व्यवस्था के तहत व्यवसायों को तीन सामान्य रिटर्न दाखिल करने की जरूरत होती है. पहला है जीएसटीआर-1 जिसमें कुल बिक्री और इससे संबंधित कर देनदारी शामिल होती है. दूसरा जीएसटीआर-2बी है जो मासिक ऑटो-जेनरेटेड स्टेटमेंट होता है और इसमें किसी महीने में की गई सभी खरीदों का विवरण अपने आप भरा होता है.

कारोबारियों को अनिवार्य रूप से कच्चे माल की खरीद पर टैक्स क्रेडिट मिलता है. इसलिए, जब कोई विक्रेता संबंधित जीएसटीआर-1 में बिक्री रिटर्न दाखिल करता है तो आंकड़े अपने आप खरीदार के जीएसटीआर-2बी में दिख जाते हैं जिससे उन्हें कच्चे माल की खरीद पर आइटीसी कलेम करने में आसानी हो जाती है.

यह सुनने में भले ही आसान लगे लेकिन प्रक्रिया इतनी सरल भी नहीं है. कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (सीएआइटी) के अध्यक्ष बी.सी. भरतिया कहते हैं कि सिस्टम की सख्ती तकनीक के कम जानकार उद्यमियों के लिए स्वतंत्र रूप से रिटर्न दाखिल करना मुश्किल बना देती है. इस कारण उनको पेशेवरों की सेवाएं लेने को मजबूर होना पड़ता है जिससे उनकी लागत बढ़ जाती है.

जीएसटी के साथ एक और बड़ी समस्या यह है कि इसमें व्याख्या की बहुत अधिक गुंजाइश है. एचएसएन (नामकरण की सामंजस्यपूर्ण प्रणाली) कोड से यह तय होता है कि उत्पादों को कैसे वर्गीकृत किया जाए; अक्सर एक उत्पाद कई श्रेणियों में हो सकता है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पॉपकॉर्न गणित को कौन भूल सकता है.

जब 55वीं जीएसटी परिषद की बैठक के दौरान उन्होंने खुलासा किया था कि रेडी-टू-ईट सॉल्ट पॉपकॉर्न पर 12 प्रतिशत कर लगता है, जबकि केरेमल वैरायटी पर 18 प्रतिशत जीएसटी लगेगा. भरतिया कहते हैं, ''जीएसटी लागू होने के सात साल बाद भी बहुत सारे उत्पादों की अभी भी कई व्याख्या हो सकती है. केंद्र, राज्य और उद्यमी हरेक का कानून की व्याख्या का अपना तरीका होता है.’’ वे कहते हैं, बड़ा मुद्दा यह है कि इन अस्पष्टताओं को निर्णायक तरीके से हल करने के लिए कोई केंद्रीय प्राधिकरण नहीं है.

इस कारण भी जटिलता बढ़ जाती है कि राज्य और केंद्र के जीएसटी विभाग हैं. और हरेक के भीतर अलग-अलग शाखाएं हैं: जैसे क्षेत्राधिकार कार्यालय, कर चोरी निरोधक शाखा और ऑडिट टीम; वे स्वतंत्र रूप से जांच करती हैं और नोटिस भेजती हैं. सीए कुश वोरा कहते हैं, ''हरेक शाखा अपने ही मानदंडों पर चलती है, जिसका दूसरे के साथ तालमेल नहीं होता है.

नतीजतन, कारोबारों को अक्सर एक ही मामले के लिए केंद्र या राज्य या दोनों के कई जीएसटी विभागों के कराधान को झेलना पड़ता है.’’ वोरा कहते हैं, ''हम हर साल जिन 100 कंपनियों का काम देखते हैं, पिछले 3-4 साल में हम उनकी ओर से लगभग 350 जीएसटी नोटिसों से जूझे हैं.

पिछले तीन साल में हमारे वेतन खर्चे 50-70 प्रतिशत बढ़े हैं, जिसका मुख्य कारण जीएसटी नोटिसों से काम बढ़ा हुआ बोझ  है.’’ स्वाभाविक रूप से इसका बोझ एमएसएमई पर डाला गया है. वोरा की फर्म ने जीएसटी ग्राहकों के लिए अपनी रिटेनर फीस में 30 प्रतिशत का इजाफा किया है.

कई MSME इसकी पुष्टि करते हैं कि जहां सीजीएसटी विभाग की ऑडिट और छापे आम तौर पर उचित पड़ताल के बाद ही डाले जाते हैं, वहीं एसजीएसटी विभागों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता. वहां उत्पीड़न आम बात है. उत्तर प्रदेश की एक कंपनी वर्तमान में एक केस लड़ रही है, जिसमें एसजीएसटी विभाग के 7-8 अधिकारी उसके कारखाने पहुंचे और कोई स्पष्टीकरण दिए बगैर 2 करोड़ रुपए की जीएसटी देनदारी की मांग की और एफआइआर तथा गिरफ्तारी की धमकी दी.

नाम न छापने की शर्त पर मालिक कहते हैं, ''शुक्र है कि हमारे जीएसटी सलाहकार को कानून की जानकारी थी और उसने स्पष्ट किया कि 5 करोड़ रुपए से कम के जीएसटी नोटिस पर एफआइआर दर्ज नहीं हो सकती.’’ हालांकि परेशानी यहीं खत्म नहीं हुई; उन्होंने कारखाने को सील करने की धमकी दी. वे कहते हैं, ''यह शुद्ध रूप से जबरिया वसूली थी. हमारे पास अनुपालन के सिवा कोई चारा नहीं था.’’ 

वित्त वर्ष समाप्त होने के बाद 5-6 साल तक जीएसटी ऑडिट हो सकता है. यह बहुत लंबी अवधि है—अकाउंटेंट बदल जाते हैं, कर्मचारी बदल जाते हैं और यादें धुंधला जाती हैं. सीबीआइसी के अनुपालन प्रबंधन विभाग ने छापों और कारण बताओ नोटिसों पर इंडिया टुडे के सवालों का जवाब नहीं दिया. कारोबारी ऑडिट अवधि घटाने का सुझाव देते हैं.

वैसे भी, इस अनिश्चित समय में व्यवसाय चलाना और उसे लाभदायक बनाए रखना आसान काम नहीं है. बावजूद, कारोबार वालों को यह साबित करने के लिए लगातार सिस्टम से लड़ना पड़ता है कि 'उद्यमी चोर नहीं है’’.

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