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प्रधान संपादक की कलम से

हम जो देख रहे हैं, वह बदलाव का दौर है. तमाम पारंपरिक एमऐंडई प्लेटफॉर्म हांफ रहे हैं और नए रुझानों से पीछे छूट रहे हैं

इंडिया टुडे कवर : सर्जक नई अर्थव्यवस्था के
इंडिया टुडे कवर : सर्जक नई अर्थव्यवस्था के
अपडेटेड 11 जून , 2025

- अरुण पुरी

जन्मजात कलाकार या मनोरंजनकर्ता कतई नहीं हैं वे. वे फिल्म स्कूल नहीं गए. या किसी संभ्रांत संस्थान से महंगी वीडियो एडिटिंग या स्क्रिप्ट राइटिंग नहीं सीखी. वे अपनी ही रोजमर्रा की फीकी जिंदगी के कूड़ाकर्कट की तरफ गए, और कीमियागीरी से उसे खालिस सोने में बदल लिया.

51 वर्षीया उषा बिषयी को ही लीजिए, जो पारंपरिक बंगाली व्यंजन साझा करती हैं. एक रील से उन्होंने 4,30,000 दिल और 47 लाख व्यू जीते. वैसे तो यह भोलापन ही था, लेकिन इसमें उनकी नस्ल की शोहरत में हुई गगनचुंबी बढ़ोतरी समाई थी. वे पश्चिम बंगाल से बाहर की अपनी पहली यात्रा बयान कर रही थीं; पहली उड़ान जो उन्हें मुंबई ले गई, जहां वे अंतत: इंस्टाग्राम के प्रमुख एडम मोसेरी से मिलीं और उनके साथ डांस किया.

फिर पॉडकास्टर राज शमानी सरीखे लोग हैं, जिनके 1 करोड़ यूट्यूब सब्सक्राइबर ने बिल गेट्स को उनके साथ बातचीत के लिए बैठने को मना लिया. और नागपुर की तड़कभड़क से भरी डॉली चायवाला (50 लाख इंस्टा फॉलोअर) की बनाई चाय पीने के लिए भी. ऐसे भी हैं जो खास मिशन पर काम कर रहे हैं. संतोष जाधव और सहसंस्थापक आकाश जाधव ने टिकाऊ खेती पर यूट्यूब वीडियो बनाने के लिए 2018 में indianfarmer का सृजन किया.

यह शगल कहीं ज्यादा 'टिकाऊ' निकला. अब उनके पास 49.4 लाख सब्सक्राइबर, विज्ञापन राजस्व और ब्रांड डील के जरिए 1.5 करोड़ रुपए का टर्नओवर, और प्रोडक्शन टीम है. यही वजह है कि यूट्यूब साउथ ईस्ट एशिया के एमडी अजय विद्यासागर इस सबको 'असाधारण रूप से प्रेरणादायी’ कहते हैं.

2022-24 से अकेले यूट्यूब ने ही 21,000 करोड़ रुपए उस क्षेत्र को दिए जिसमें ऐसे सर्जकों और कलाकारों को मीडिया कंपनियों की बगल में गौरवशाली जगह बनाते देखा गया है. इस वृद्धि को और रफ्तार देने के लिए यह अगले दो साल में 850 करोड़ रुपए के निवेश का मंसूबा बना रहा है.

हम इसे नई सर्जक अर्थव्यवस्था कह रहे हैं. इसका मर्म डिजिटल कंटेंट है. यह इस कदर मूसलाधार बरस रहा है कि आम भारतीयों की सोने की दौड़ बन गया है. दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश इस नई अर्थव्यवस्था से जुड़े हर आंकड़े को हैरतअंगेज बना देता है. भारत में 46 लाख डिजिटल कंटेंट क्रिएटर हैं और लगातार बढ़ रहे हैं.

वे दुनिया में सबसे ज्यादा तादाद में इंस्टाग्राम रील बनाते हैं. करीब 60 लाख रोज! सबसे ज्यादा यूट्यूब चैनल भी यहीं हैं—10 करोड़ से ज्यादा. इनमें से 15,000 से ज्यादा के पास दस लाख से ज्यादा का सब्सक्राइबर आधार है. मदद इस बात से भी मिलती है कि ऑनलाइन वक्त बिताने में हम भारत के लोग ब्राजील और इंडोनेशिया वालों के बाद सबसे आगे हैं.

भारतीय रोजाना औसतन पांच घंटे लॉग करते हैं, जिसमें 70 फीसद सोशल मीडिया, वीडियो प्लेटफॉर्म और गेमिंग पर बिताते हैं. ईवाई के मुताबिक, 2024 में यह कुल 11 खरब घंटे था. फिर आश्चर्य क्या कि टेलीविजन को पछाड़कर डिजिटल चैनल 2.5 लाख करोड़ रुपए के मीडिया और मनोरंजन (एमऐंडई) उद्योग का सबसे बड़ा हिस्सा बनकर उभरे.

उनका कुल मूल्यनिर्धारण 2024 में 80,200 करोड़ रुपए था, जिसके इस साल 90,300 करोड़ रुपए तक पहुंच जाने की उम्मीद है. इसके भीतर दिन-दूने-रात-चौगुने बढ़ते भारतीय इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग उद्योग का ही मूल्य 3,600 करोड़ रुपए है और आने वाले साल में इसके 25 फीसद बढ़ने की उम्मीद है. इसे सनराइज या सूर्योदय क्षेत्र कहना असंगत होगा. यह तो एक अरब स्मार्टफोन स्क्रीन पर हर सेकंड एक अरब सूर्योदय होने की तरह है.

इस उछाल के पीछे न कोई मुगल है और न ही कोई थैलीशाह. प्रबंधन के किसी जादूगर का कोई मास्टर प्लान नहीं. इसके बजाए अप्रत्याशित तौर पर यह खुद से खड़े हुए मेगास्टारों की पचमेल टोली है जो मीडिया और मनोरंजन के पुराने और स्थापित दिग्गजों की पार्टी में एकाएक आ धमकी. वे दरअसल नई मुख्यधारा हैं.

आप 'केएल ब्रो' बीजू सरीखे ठेठ और मुच्छड़ मलयाली मिस्टर को भला और क्या कहेंगे, जो सीधे-सादे पारिवारिक वीडियो डालते हैं और 7.27 करोड़ का अविश्सनीय सब्सक्राइबर आधार जुटा लेते हैं! और यह सब जीता-जागता है. उनमें से कुछ तो एक के बाद एक 'टाइमपास’ वीडियो निकालते हैं जो इरादतन 'इतने बुरे होते हैं कि वे अच्छे हो जाते हैं’. जैसे असम के 70 वर्षीय सेवानिवृत्त बैंकर राजकुमार ठकुरिया, उर्फ राकू दा, जिनके 'क्रिंज पॉप’ ने उन्हें इंस्टाग्राम पर 2,36,000 फॉलोअर दिलवाए.

फिर हैरानी क्या कि हाल ही मुंबई में हुए वर्ल्ड ऑडियो विजुअल एंटरटेनमेंट समिट (वेव्ज) में क्रिएटर और डिजिटल प्लेटफॉर्म उतने ही आकर्षण का केंद्र थे जितने बॉलीवुड सितारे. यह सब उस खालिस और अछूते आनंद से आता है जिससे ये नए जमाने के उत्पाद बनाए, बांटे और देखे-सुने जाते हैं. लाइक, दिल के निशान, थम्स-अप और शेयर ही उनकी करेंसी हैं, चमकदार इश्तहार नहीं. गफलत में न रहें.

हम जो देख रहे हैं, वह बदलाव का दौर है. तमाम पारंपरिक एमऐंडई प्लेटफॉर्म हांफ रहे हैं और नए रुझानों से पीछे छूट रहे हैं. फिल्में जद्दोजहद कर रही हैं. प्रिंट और टीवी अपना माल बेचने के लिए 'डिजिटल प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था’ का सहारा ले रहे हैं. दूसरी तरफ बिल्कुल नया-नवेला आगंतुक वायरल होने का सौभाग्य हासिल कर सकता है, क्योंकि उत्पादन के साधन लोकतांत्रिक हो गए हैं.

आज के स्मार्टफोन भरोसेमंद उन्नत खूबियों के साथ आते हैं और ऐसी कीमतों पर जो ज्यादातर की पहुंच में हैं. 2016 में जियो के आने के बाद आई वाइफाइ क्रांति ने बड़ी तादाद में समूचे डिजिटल समुदायों को जन्म दिया जो यूट्यूब और इंस्टाग्राम की खुराक पर पले-बढ़े. कोविड-19 महामारी ने हरेक की तल्लीनता को गहरा ही किया. तो 21वीं सदी कुछ इसी तरह सामने आ रही है. 70एमएम के रुपहले पर्दे पर नहीं, बल्कि छोटे-छोटे कैनवसों पर जिन्हें हर कोई अपने साथ लेकर चलता है.

डिप्टी एडिटर सुहानी सिंह सिनेमा और मनोरंजन उद्योग की अपनी नियमित बीट से थोड़ी मोहलत लेकर इस बात की पड़ताल कर रही हैं कि भारतीय किस तरह कंटेंट बनाने और देखने-सुनने के इस नए माध्यम की तरफ कूच कर रहे हैं. अपने चश्मे से वे इसके फर्कों को पहचान और सराह रही हैं.

वे कहती हैं, ''यहां अपना रास्ता बनाने के लिए न प्रवेश की बाधाएं हैं, न गुट और न ही वंशवादी साजिशें, जैसी कि बॉलीवुड में हैं, न ही किसी डिग्री या खास ज्ञान की दरकार. आपको बस सच्चा और प्रामाणिक होने की जरूरत है." इस हफ्ते हमारी आवरण कथा सपनों और आकांक्षाओं के इस नए डिजिटल आदान-प्रदान के अभिवादन और सम्मान में सलाम बजा रही है.

— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह).​​​​​​

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