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सुप्रीम कोर्ट के जजों की संपत्ति का खुलासा करना क्यों है ऐतिहासिक कदम?

सुप्रीम कोर्ट ने जजों की संपत्तियों को लेकर यह खुलासा ऐसे वक्त में किया है, जब न्यायपालिका पर भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, जातिगत पूर्वाग्रह और जजों की नियुक्ति के तौर-तरीकों को लेकर सवाल उठ रहे हैं

सुप्रीम कोर्ट (फाइल फोटो)
सुप्रीम कोर्ट (फाइल फोटो)
अपडेटेड 2 जून , 2025

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने पारदर्शिता की अभूतपूर्व पहल शुरू की है. उसने 5 मई को देर रात मौजूदा 33 जजों में से 23 की निजी संपत्तियों की घोषणाएं अपनी आधिकारिक वेवसाइट पर चुपचाप अपलोड करके सार्वजनिक कर दीं.

यह भी कहा कि बाकी जजों की संपत्तियों की घोषणाएं भी 'जैसे ही' मिलेंगी, अपलोड कर दी जाएंगी. अदालत ने आम तौर पर गुप्त नियुक्ति प्रक्रिया के विस्तृत रिकॉर्ड भी जारी कर दिए.

ये खुलासे 1 अप्रैल को पूर्ण अदालत की बैठक में आम राय से पारित उस प्रस्ताव के बाद किए गए जिसमें सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों ने एकमत से कहा कि जजों की संपत्ति की घोषणाएं सार्वजनिक फलक पर रखी जानी चाहिए. 

यह कदम ऐसे समय उठाया गया जब न्यायपालिका भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, जातिगत पूर्वाग्रह और जजों की नियुक्ति के तौर-तरीकों में जवाबदेही समेत विभिन्न आरोपों को लेकर लगातार ज्यादा से ज्यादा छानबीन के दायरे में है. हाल की दो बड़ी घटनाएं इन हलचलों को तेज करने वाली साबित हुईं.

एक, दिल्ली हाइकोर्ट के जज यशवंत वर्मा से जुड़ा 'न्याय के लिए नकदी' कांड और दूसरी, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का न्यायिक अपारदर्शिता और अतिक्रमण को लेकर असामान्य रूप से तीखी सार्वजनिक आलोचना करना. इन दबावों से दरपेश शीर्ष अदालत के वरिष्ठ जजों ने नए चीफ जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई की अगुआई में और ईमानदारी की विरासत छोड़ने को उत्सुक निवर्तमान चीफ जस्टिस संजीव खन्ना के साथ संस्थान की अंदरूनी कार्यप्रणाली को रोशनी में लाने का संकल्प लिया.

यह अभियान आंतरिक सुधार की कोशिश मालूम देता है. सिविल सोसाइटी और कानून विशेषज्ञ भ्रष्टाचार और कदाचरण की धारणा को रोकने के लिए लंबे वक्त से इस पारदर्शिता की मांग करते आ रहे हैं. यह उस वक्त और बेहद जरूरी हो गया जब राज्यसभा की स्थायी समिति की 2023 की रिपोर्ट ने जजों की संपत्ति की घोषणा अनिवार्य रूप से सार्वजनिक करने की सिफारिश की.

इस कदम का वैसे तो चौतरफा स्वागत हुआ लेकिन इसमें भी कुछ कमियां हैं. एक तो ये घोषणाएं खुद उन्होंने की हैं और उनका बाहरी ऑडिट या सत्यापन भी नहीं होता. आलोचकों का कहना है कि ये घोषणाएं तब तक महज प्रतीकात्मक ही रहेंगी जब तक इन्हें समय-समय पर अपडेट नहीं किया जाता और इनकी स्वतंत्र समीक्षा नहीं की जाती.

'ब्लैक बॉक्स' का खुलना
सुप्रीम कोर्ट का न्यायिक नियुक्तियों की लंबे वक्त से कई परतों में छिपी प्रक्रिया को रोशनी में लाने का फैसला भी उतना ही नया-नवेला है. अदालत ने पहली बार 9 नवंबर, 2022 और 5 मई, 2025 के बीच हाइकोर्ट के और कुछेक सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्तियों के लिए की गई सभी सिफारिशों के लंबे-चौड़े रिकॉर्ड भी सार्वजनिक कर दिए.

हाइकोर्ट में की गई 170 नियुक्तियों में से सात अनुसूचित जातियों (4 फीसद), पांच अनुसूचित जनजातियों (3 फीसद), 21 अन्य पिछड़े वर्गों (12 फीसद), 23 अल्पसंख्यक समुदायों (14 फीसद) से थीं और 28 महिलाएं (16 फीसद) थीं.

इस स्तर की पारदर्शिता की बदौलत उस व्यवस्था में सामाजिक प्रतिनिधित्व की सार्वजनिक जांच-पड़ताल की जा सकती है जिसमें लंबे वक्त से ऊंची जातियों और महानगरीय पृष्ठभूमि के कुलीन पुरुषों के हावी होने की आलोचना की जाती रही है. इस मामले में मौजूदा आंकड़ों से कुछ सुधार का पता चलता है. 2018 और 2023 के बीच हाइकोर्ट की नियुक्तियों में मात्र 17 फीसद एससी, एसटी या ओबीसी से थीं. अब ये 19 फीसद हैं.

शीर्ष अदालत ने लगातार लगाए जा रहे ''न्यायिक भाई-भतीजावाद'' के आरोपों पर भी ध्यान देने का जतन किया. मसलन, मई के पहले हफ्ते में सामने आया कि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा 33 जजों में से दसेक पूर्व जजों के करीबी रिश्तेदार हैं, जबकि अन्य 10 वकीलों के बेटे हैं. नए जारी आंकड़ों से पता चलता है कि हाइकोर्ट में हाल ही नियुक्त 170 जजों में से 12 या लगभग 7 फीसद के करीबी रिश्तेदार ऊपरी अदालतों में जजों के रूप में काम कर रहे हैं.

कॉलेजियम प्रणाली में सीजेआइ और वरिष्ठ जजों का एक छोटा-सा समूह पदोन्नतियों के लिए उम्मीदवारों का चयन करता है. यह प्रणाली नब्बे के दशक में अपने गठन के बाद से ही वस्तुत: ''ब्लैक बॉक्स'' की तरह काम करती रही है. अब यह कम से कम कुछ बदला है. नवंबर, 2022 और मई, 2025 के बीच सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने हाइकोर्ट में नियुक्तियों के लिए 303 नामों की सिफारिश की, जिनमें से 170 की सरकार ने तस्दीक कर दी.

दर्जनों सिफारिशें अब भी अटकी हैं, जो नियुक्तियों पर नियंत्रण को लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच लगातार खींचतान की याद दिलाती हैं. अकेले सीजेआइ खन्ना के कार्यकाल (नवंबर 2024 से मई 2025) में ही 51 सिफारिशों को मंजूरी दी गई, जबकि 12 अन्य अब भी सरकार की मंजूरी का इंतजार कर रही हैं.

कॉलेजियम प्रणाली के आलोचकों का कहना है कि संपत्ति की घोषणाओं और नियुक्तियों के आंकड़ों का प्रकाशन स्वागतयोग्य होते हुए भी सतह को कुरेदना भर है. हाइकोर्ट परफॉर्मेंस एप्रेजल सरीखे कुछ साधन सार्वजनिक फलक पर आ गए, लेकिन कॉलेजियम के अंदरूनी पत्र सरीखे दूसरे अहम दस्तावेज अब भी ''गोपनीय'' रखे गए हैं. यही नहीं, हाइकोर्ट के लिए नियुक्तियों की नियमावली कहती है कि कॉलेजियम की तरफ से दोबारा की गईं सिफारिशें अब सरकार को स्वीकार करनी होंगी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियों के प्रक्रिया ज्ञापन में ऐसी कोई स्पष्टता नहीं है.

दूरदृष्टि?
कई पर्यवेक्षक इसे रणनीतिक समझौते के तौर पर देखते हैं. इस तरह कि कुछ हद तक खुलेपन की पेशकश करके न्यायपालिका अपनी ज्यादा व्यापक स्वायत्तता को बचाने की कोशिश कर रही है. जैसा कि एक बड़े वकील कहते हैं, यह साफ संदेश देता है कि न्यायपालिका अपना घर व्यवस्थित करने और विधायिका या कार्यपालिका के अतिक्रमण का औचित्य कम करने को तैयार है.

उम्मीद के मुताबिक राजनैतिक नेताओं की शुरुआती प्रतिक्रियाएं इशारा करती हैं कि इस कदम के नतीजे भी मिल रहे हैं. धनखड़ ने वर्मा और संपत्ति के खुलासे दोनों मामलों में दिखाई गई पारदर्शिता के लिए सीजेआइ खन्ना की तारीफ की. कानून मंत्रालय ने भी न्यायपालिका की 'जवाबदेही बढ़ाने की पहल' की सराहना की. यह तो आने वाले सालों में साफ होगा कि पारदर्शिता की प्रतिबद्धता सरसरी भाव-भंगिमा है या सांस्कृतिक बदलाव की शुरुआत.

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