
चेन्नै में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मद्रास के विशाल हरे-भरे परिसर में गर्मियों की धूप में तपती 422 मीटर लंबी धातुई ट्यूब बिछी है. इसके भीतर वह विचार बसा है जिसे छात्रों की एक टीम विकसित कर रही है. ऐसा विचार जो तेज रफ्तार यातायात के भविष्य की नई इबारतें लिख सकता है और भारत को यातायात के अत्याधुनिक साधनों के क्षेत्र में नवाचार करने वाले देशों की कतार में पहुंचा सकता है.
यह आविष्कार है हाइपरलूप, यानी वैक्यूम ट्यूब पर आधारित बेहद तेज रफ्तार यातायात को हकीकत में बदलने की दौड़ लगा रहे देशों के कुलीन समूह में शामिल होने की भारत की सबसे महत्वाकांक्षी कोशिश. कॉर्पोरेट कंपनियों के हाथों संचालित मॉडल के लिए प्रयासरत अमेरिका, चीन और यूरोप सरीखी महाशक्तियों के उलट भारत अलग राह पर चल रहा है.
यह सरकार के समर्थन से शिक्षा जगत की अगुआई में चल रही कोशिश है, जिसने युवा इंजीनियरों को जनपरिवहन के प्रयोग के बीचोबीच ला खड़ा किया है. मोदी सरकार ने 2022 से इस परियोजना में 30 करोड़ रुपए लगाए हैं, जिसकी ताजा किस्त फरवरी में मिली है.
इसकी कमान रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के हाथ में है और मंसूबा है 40-50 किमी का अल्ट्रा-लाँग-हाइपरलूप टेस्ट ट्रैक बनाने का. किसी और देश ने इतना लंबा हाइपरलूप टेस्ट ट्रैक बनाने की कोशिश नहीं की. यह प्रोपल्शन, लेविटेशन, सुरक्षा और किफायत के वैश्विक मानक स्थापित करने की दिशा में हिम्मत वाली छलांग है.
ट्यूब के पीछे की टेक्नोलॉजी
हाइपरलूप दरअसल है क्या? मोटे तौर पर हैचबैक कार के आकार के एक पॉड में कदम रखने की कल्पना कीजिए, जो एक सीलबंद वैक्यूम ट्यूब के भीतर 1,200 किमी प्रति घंटे की रफ्तार पकड़ लेती है. यह यात्री हवाई जहाज से भी तेज रफ्तार है. इतने की उम्मीद है. मगर वह ऐसा करती कैसे है? हवा निकाल देने पर वैक्यूम या निर्वात ट्यूब घर्षण से मुक्त हो जाती है.

इलेक्ट्रोमैग्नेटिक लेविटेशन या विद्युतचुंबकीय बल पॉड को सतह से ऊपर उठा देता है, और एक रैखिक इलेक्ट्रिक मोटर उसे आगे धकेलती है. नतीजा: सांस रोक देने वाली रफ्तार पर तकरीबन घर्षणविहीन बहाव. तीसरे साल की पढ़ाई कर रहे सिविल इंजीनियरिंग के छात्र प्रेम मुक्कन्नवर कहते हैं, ''इस साल हम छोटे आकार के पैसेंजर केबिन का निर्माण कर रहे हैं. इसके लिए स्टील की नहीं, कंक्रीट की ट्यूब है, जिससे बुनियादी ढांचे की लागत बहुत कम हो जाएगी. हम बिल्कुल शुरू से आखिर तक नया रास्ता दिखाने वाली बूस्टर-क्रूजर टेक्नोलॉजी पर भी काम कर रहे हैं.’’
टेक अरबपति ईलॉन मस्क के श्वेतपत्र हाइपरलूप अल्फा के छपने के बाद हाइपरलूप शब्द 2013 से चर्चा में आ गया. उन्होंने एक ऐसे पॉड की रूपरेखा सामने रखी जो वैक्यूम ट्यूब के भीतर 1,200 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से फर्राटा भरती है. अलबत्ता इस अवधारणा का एक सदी से भी ज्यादा लंबा इतिहास है. यह 18वीं सदी में जॉर्ज मेडहर्स्ट की हवा की ताकत से चलने वाली ट्यूब की अवधारणा से शुरू होकर 19वीं सदी के लंदन में वायवीय रेल नेटवर्क तक जाता है. प्रयोग का वह शुरुआती दौर तो गया. मगर मस्क इस अवधारणा में नई जान फूंककर इसे टेक्नोलॉजी की उम्मीदों के दायरे में ले आए.
मानवयुक्त हाइपरलूप का पहला-पहल परीक्षण 2020 में वर्जिन हाइपरलूप ने किया जो कभी इस आंदोलन का चेहरा हुआ करती थी. मगर उसके बाद एक के बाद एक कई निजी कोशिशें व्यावसायिक अवरोधों, बदलती प्राथमिकताओं और अलग-अलग आकारों में ढालने की परेशानियों से टकराईं. उन सबका कहना है, 'सपना तो अब भी जिंदा है,’ लेकिन यह घर्षणविहीन नहीं है.
मस्क ने पेशकश की है कि इन रफ्तारों से लॉस एंजेलिस से सैन फ्रांसिस्को या न्यूयॉर्क से वाशिंगटन डीसी का सफर 30 मिनट से भी कम वक्त में तय किया जा सकता है. मगर वर्जिन के प्रदर्शन समेत व्यावहारिक स्थितियों में परीक्षणों में हासिल रफ्तार सुरक्षा और इंजीनियरिंग वगैरह की सीमाओं की वजह से इतनी महत्वाकांक्षी न होकर करीब 387 किमी प्रति घंटे थी. यह 1,000 किमी प्रति घंटे से भी ज्यादा की रफ्तार के सपने से काफी नीचे है.
भारत अब 2017 में लॉन्च हुए आविष्कार हाइपरलूप के साथ इस अफसाने से जुड़ने की कोशिश कर रहा है. इसका मौजूदा परीक्षण स्थल छात्रों की अगुआई में चल रही दुनिया की शायद सबसे बड़ी पहल है. यह दो मीटर व्यास की ट्यूब के भीतर गतिरोध को हटाकर पॉड को इलेक्ट्रोमैग्नेटिक धक्के के बल पर फर्राटे से चलाने के लिए जरूरी वैक्यूम या निर्वात स्थितियों की नकल तैयार कर सकता है.
इस टीम ने कम्प्यूटेशनल टोपोलॉजी ऑप्टिमाइजेशन (वह प्रक्रिया जिसके जरिए कंप्यूटर पूरे ढांचे में से गैर-जरूरी मटीरियल को हटाकर उम्दा ढांचे का शेप आपके सामने रख देता है) के जरिए सुरक्षा या परफॉर्मेंस से समझौता किए बिना चेसिस का वजन 46 फीसद तक कम कर लिया है.
नीदरलैंड के डेल्ट में यूरोपियन हाइपरलूप वीक 2023 में अपने पॉड 5.0 के साथ मुकाबला करते हुए आविष्कार की टीम को पता चला कि वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. आविष्कार को इलेक्ट्रिक, ट्रैक्शन और कंप्लीट पॉड की श्रेणियों में ग्लोबल टॉप-5 में आंका गया. वे अब जुलाई में होने जा रही इसी प्रतिस्पर्धा की तैयारी में जुटे हैं. फरवरी में आइआइटी मद्रास ने ग्लोबल हाइपरलूप कंपीटिशन आयोजित की, जिसमें विभिन्न देशों की 10 हाइपरलूप टीमों ने हिस्सा लिया, जिनमें करीब 200 नवाचारी शामिल थे.

आविष्कार परियोजना की एक खासियत प्रोटोटाइप कंक्रीट ट्यूब है जिसे बनाना स्टील ट्यूब के मुकाबले सस्ता बताया जाता है और 'लागत में 80 फीसद से ज्यादा की बचत’ करता है. मगर प्रेम कहते हैं, ''मसला यह है कि कंक्रीट छिद्रमय है. इसलिए वैक्यूम बनाए रखना चुनौती होगी. एक या दो साल में हम कंक्रीट ट्यूब पूरी कर सकते हैं.’’ उनके 'बूस्टर-क्रूजर सिस्टम’ में दो तरह की मोटरों का इस्तेमाल है. पॉड को एक ही इंजन चलाता है.
दूसरी मोटर चलते हुए पॉड को और ताकत मुहैया करती है और काफी ऊर्जा भी बचाती है. केबिन में लगी लाइफ सपोर्ट, ह्यूमिडिटी कंट्रोल और ताप प्रबंधन जैसी प्रणालियों का अब परीक्षण चल रहा है. इसके लिए अंतरिक्ष उड़ान में प्रयुक्त तरीकों का ही इस्तेमाल किया जाता है.
पॉड दरअसल मिशन नियंत्रण शैली के जीयूआइ (ग्राफिकल यूजर इंटरफेस) नेटवर्क का इस्तेमाल करता है, जो रियल-टाइम डेटा जुटाता और प्रदर्शित करता है. इतने सबके बावजूद व्यवसायीकरण की राह अभी दुनिया भर में धुंधली ही है. कुछ रिसर्च फर्मों का कहना है कि इसके व्यावसायिक रूप से इस्तेमाल में आने की उम्मीद 2040 से पहले नहीं ही की जा सकती. पर इसे विकसित करने वाले दावा करते हैं कि अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बूते यह टेक्नोलॉजी बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है.
आगे की राह
हाइ-स्पीड परिवहन सरकार की बुनियादी ढांचा परियोजना का एक अहम हिस्सा बन चुका है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पर कुछ साल पहले आविष्कार टीम के साथ बात भी की थी. रेलवे हाइपरलूप को व्यापक माल ढुलाई और रसद आपूर्ति योजनाओं में शामिल कर रहा है. सबसे पहले इसे कार्गो (पार्सल) में इस्तेमाल किया जाएगा, ताकि यात्रियों को सुविधा मुहैया कराने से पहले सुरक्षा प्रणाली और ऊर्जा प्रवाह क्षमता को अच्छे से जांचा जा सके.
अगर यह कारगर साबित हुआ तो दिल्ली-जयपुर और चेन्ने-बेंगलूरू जैसे मार्गों पर यात्रियों के साथ परीक्षण किए जा सकते हैं. हाइपरलूप से रेल यात्रा घंटों के बजाए मिनटों में पूरी हो जाएगी. हालांकि, सभी हितधारकों का मानना है कि इसमें अभी कई साल लग सकते हैं. वैष्णव के मुताबिक, ''सबसे ज्यादा गर्व की बात यह है कि इसमें इस्तेमाल होने वाली तकनीक पूरी तरह स्वदेशी है. रेलवे सेटप में हम 40-50 किलोमीटर लंबे वाणिज्यिक परिवहन के लिए जगह तय करेंगे. इसके लिए इलेक्ट्रिकल्स चेन्नै स्थित इंटीग्रल कोच फैक्ट्री तैयार करेगी.’’
भारतीय रेलवे ने हाइपरलूप तकनीक उत्कृष्टता केंद्र स्थापित करने के लिए आइआइटी मद्रास के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. इसका उद्देश्य संस्थान में परीक्षण ट्रैक और वैक्यूम ट्यूब सुविधा के साथ-साथ पॉड का सब-स्केल मॉडल विकसित करना है, ताकि हाइपरलूप प्रणाली को पूरी तरह से अपनाने की दिशा में आगे बढ़ा जा सके. चेन्नै स्थित स्टार्ट-अप टुटर हाइपरलूप आइआइटी मद्रास के साथ मिलकर व्यावसायिक स्तर पर तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ाने में जुटा है. सीईओ अरविंद भारद्वाज कहते हैं, ''अगर हम 150-200 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से भी माल परिवहन कर पाएं तो यह ट्रकों की औसत गति से तीन गुना होगा.’’
अब अगला कदम: लंबा परीक्षण ट्रैक, कार्गो के साथ बेहतर पॉड की सुविधा, जो वर्ष के अंत तक 100 किलो सामान ले जाने में सक्षम हो. इस मामले में भारतीय कंपनियां मदद कर रही हैं. टुटर इसे एक सामूहिक भागीदारी वाला नजरिया करार देता है, जो एलऐंडटी कंस्ट्रक्शन, आर्सेलर मित्तल और ट्यूब इन्वेस्टमेंट्स ऑफ इंडिया जैसी कंपनियों के साथ मिलकर काम कर रहा है.
सरकारी सूत्रों का कहना है कि परीक्षण के तौर पर रेलवे, मेट्रो और बंदरगाहों तक पार्सल/कार्गो पहुंचाने को लेकर बातचीत जारी है. इसकी शुरुआत इसी साल, छोटे पैमाने पर ही सही पर किसी भी समय हो सकती है. प्रेम का दावा है, ''हम कार्गो ढोकर बंदरगाहों के बोझ को कम कर सकते हैं. अभी हमारा लक्ष्य यही है कि पहला आविष्कार हाइपरलूप चेन्नै और बेंगलूरू के बीच 350 किमी के ट्यूब में चले और यह यात्रा 30 मिनट में पूरी की जा सके.’’
हालांकि, ऐसे लोग भी हैं जो रेलवे की कार्यप्रणाली से अच्छी तरह वाकिफ हैं इसीलिए इस सबको लेकर बहुत ज्यादा उत्साह जाहिर नहीं करते. आइसीएफ चेन्नै के पूर्व महाप्रबंधक सुधांशु मणि कहते हैं, ''महत्वाकांक्षी होना अच्छा है. भारतीय रेलवे को पूरी शिद्दत से प्रयोग करने दें. पर यह भ्रम न पालें कि 400 मीटर के छोटे आकार के प्रोटोटाइप से तुरंत ही कोई क्रांति आ जाने वाली है.’’
फिलहाल कोई कहने की स्थिति में नहीं कि आने वाले समय में हाइपरलूप का सपना कितना लंबा सफर तय कर लेगा. पर युवा इनोवेटर्स का उत्साही समूह एक बेहतरीन स्टार्ट-अप के साथ मिलकर यह पक्का कर रहा है कि भारत कुछ कर दिखाने के जज्बे में पीछे नहीं रहने वाला.
हाइपरलूप का वादा
यह सोच दरअसल अल्ट्रा-हाइ-स्पीड वाले पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम की है. इसमें सवारियां लगभग पूरी तरह से वायुशून्य ट्यूब के बीच ऑटोनॉमस इलेक्ट्रिक पॉड में बैठकर सफर करेंगी. अक्सर इसे यातायात का पांचवां माध्यम कहा जाता है. यह हवा के प्रतिरोध को बहुत कम कर देता है जिससे पॉड/कैप्सूल को 1,000 किमी प्रति घंटे से भी ज्यादा की रफ्तार हासिल करने में मदद मिलती है.
सरकारी उपक्रमों का कहना है कि इसके पूरी तरह से संचालन की लागत मेट्रो प्रणाली से ज्यादा नहीं बैठेगी, यानी करीब 200 करोड़ रु. प्रति किमी. यात्रियों के इस्तेमाल से पहले इसके जरिए माल की ढुलाई तो बेहद सस्ती पड़ेगी.
अभिषेक जी. दस्तीदार