महज पांच साल पहले तक दिल्ली के कारोबारी अरविंदर खुराना की गिनती राजधानी के सफल मोबाइल फोन रिटेलर्स में होती थी. उनके पास 12 दुकानों का नेटवर्क और 100 से ज्यादा कर्मचारियों का लवाजमा था. 1996 में उन्होंने कारोबार शुरू किया जो 2014 तक सालाना लगभग 28 करोड़ रुपए तक पहुंच गया. लेकिन कुछ ही वर्षों में हालात बिल्कुल पलट गए.
पहले कोविड ने झटका दिया, फिर ऑनलाइन और क्विक कॉमर्स प्लेटफॉर्मों के हमले ने उनकी कमर तोड़ दी. लगातार कम होते मुनाफे और फिर घाटे की वजह से उन्हें 2023 तक अपनी सारी मोबाइल फोन दुकानें बंद करनी पड़ीं. आज वे ईवी टू-व्हीलर के व्यवसाय में हैं, पर पहले जैसा रुतबा और मुनाफा नहीं बचा.
यह कहानी सिर्फ खुराना की नहीं, बल्कि देश भर के लाखों खुदरा कारोबारियों की है, जो ऑनलाइन और खासकर क्विक कॉमर्स कंपनियों की आक्रामक रणनीतियों की वजह से या तो दुकानें समेट चुके हैं या संघर्ष कर रहे हैं. किराना, मोबाइल, कपड़े, किचन आइटम्स...क्विक कॉमर्स का हर क्षेत्र पर हमला जारी है.
10 मिनट में डिलिवरी की कीमत
कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) के जनरल सेक्रेटरी और दिल्ली के चांदनी चौक से भाजपा सांसद प्रवीण खंडेलवाल कहते हैं, ''10 मिनट में डिलिवरी कोई चमत्कार नहीं, मानवाधिकारों का उल्लंघन है.'' वे कहते हैं, ''क्विक कॉमर्स कंपनियां एफडीआई (फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट) के नियमों और प्रतिस्पर्धा कानूनों का खुलेआम उल्लंघन कर रही हैं. जब तक बैकएंड में श्रमिकों पर बेहद दबाव न हो तब तक 10 मिनट में डिलिवरी संभव नहीं. ई-कॉमर्स और क्विक कॉमर्स कंपनियां बड़े भाई और छोटे भाई हैं.''
एफडीआई गाइडलाइंस के अनुसार, ई-कॉमर्स कंपनियों को केवल एक मार्केटप्लेस की भूमिका निभानी चाहिए—विक्रेता और ग्राहक को जोड़ना, न कि इन्वेंट्री रखना. लेकिन क्विक कॉमर्स और ई-कॉमर्स दोनों ही प्लेटफॉर्म्स डार्क स्टोर के जरिए सीधे माल स्टॉक करते हैं, पैक करते हैं और डिलिवरी कराते हैं. यह एक तरह से रिटेल का प्रत्यक्ष संचालन है, जिसे कानूनन मना किया गया है.
इतना ही नहीं, इन प्लेटफॉर्मों का प्राइसिंग, सप्लाई और डिस्ट्रिब्यूशन पर भी पूरा नियंत्रण होता है. ऑल इंडिया कंज्यूमर प्रोडक्ट्स डिस्ट्रिब्यूटर्स फेडरेशन के अध्यक्ष धैर्यशील एच. पाटील कहते हैं, ''वे 'प्रेफर्ड सेलर' नाम से चुनिंदा विक्रेताओं को तरजीह देते हैं और बाकियों को सर्च रिजल्ट से बाहर कर देते हैं. अमेजन या फ्लिपकार्ट पर लाखों विक्रेता हैं, लेकिन खोजने पर गिने-चुने विकल्प ही सामने आते हैं. यह प्रतिस्पर्धा की हत्या है.''
जाहिर है, इस संघर्ष में क्विक कॉमर्स कंपनियों का सबसे बड़ा हथियार हैं—डेटा और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, जो खुदरा व्यापारियों की पहुंच से दूर हैं. वे उपभोक्ताओं के मोबाइल नंबर से लेकर उनके खरीदारी पैटर्न, लोकेशन, समय और डिवाइस (आइफोन या एंड्रॉयड) तक का विश्लेषण करते हैं और उसी आधार पर कीमतें तय करते हैं. पाटील के शब्दों में, ''ग्राहक अब राजा नहीं रहा, एल्गोरिद्म का गुलाम बन गया है.''
पाटील के मुताबिक, ''ये कंपनियां लोकेशन और अर्जेंसी के हिसाब से कीमतें तय करती हैं. पॉश कॉलोनी से ऑर्डर करेंगे तो कीमत ज्यादा, सामान्य कॉलोनी से करेंगे तो कम. यही नहीं, अगर आप आईफोन से ऑर्डर करते हैं तो भी आपको ज्यादा भुगतान करना पड़ सकता है. ये 'डायनामिक प्राइसिंग' सिर्फ एक तकनीकी सुविधा नहीं, बल्कि एक सामाजिक भेदभाव की तरह उभर रही है.''
उधर, अमेजन के प्रतिनिधि का कहना है, ''एफडीआई पर केस सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है, इसलिए उस पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती. रही बात प्रेफर्ड सेलर की तो ऐसा कुछ भी नहीं है. अमेजन एक मार्केटप्लेस है और यहां हर विक्रेता अपने सामान की कीमत अपनी रणनीति के हिसाब से तय करता है. एल्गोरिद्म का इस्तेमाल इसमें संभव नहीं.'' इंडिया टुडे ने ब्लिंकिट जोमैटो के प्रतिनिधि से संपर्क किया लेकिन कंपनी का पक्ष हासिल नहीं हो सका.
डार्क स्टोर: खुदरा दुकानों पर पड़ी सबसे बड़ी चोट
क्विक कॉमर्स का आधार हैं डार्क स्टोर्स—गुप्त गोदाम जो उपभोक्ताओं के पास स्थित होते हैं और जहां से माल सीधे उनके घर पहुंचाया जाता है. इन स्टोर्स का नेटवर्क तेजी से बढ़ रहा है. एचएसबीसी की रिपोर्ट कहती है कि 2026 तक भारत में 5,500 तक डार्क स्टोर खुल सकते हैं. हाल ही कुछ क्विक कॉमर्स कंपनियों ने 2,100 करोड़ रुपए निवेश की घोषणा की है ताकि 3,600 नए डार्क स्टोर खोल सकें.
इनका असर? छोटे किराना दुकानदारों की दुकानों पर सीधा हमला. उनके पास न तो इतनी पूंजी है, न ही तकनीक. वे न तो इतनी बड़ी जगह किराए पर ले सकते हैं, न ही उतनी तेज डिलिवरी दे सकते हैं.
कैट के मुताबिक, क्विक कॉमर्स कंपनियां परंपरागत किराना दुकानों के 25-30 फीसद कारोबार पर कब्जा कर चुकी हैं. देश में लगभग 9 करोड़ छोटे-बड़े रिटेल स्टोर्स हैं, लेकिन अब जगह-जगह डार्क स्टोर खुल रहे हैं, जिससे छोटी दुकानों का अस्तित्व संकट में है.
इन प्लेटफॉर्मों का एक और हथियार है भारी डिस्काउंट. कोई प्रोडक्ट न बिके तो 80 फीसद तक का डिस्काउंट दे दिया जाता है, भले ही उसकी वैधता बस 15-20 दिन ही क्यों न हो. मोबाइल फोन विक्रेताओं के मामले में यह ज्यादा गंभीर है. खुराना बताते हैं, ''कई मोबाइल ब्रांड् जैसे वनप्लस, सैमसंग की एम सीरीज या एफ सीरीज केवल ऑनलाइन बेची जाती हैं. दुकानों को या तो माल नहीं मिलता या इतना महंगा मिलता है कि वे प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं सकते.'' ऑल इंडिया मोबाइल रिटेलर्स एसोसिएशन के चेयरमैन कैलाश लख्यानी सवाल करते हैं: ''यह 25 फीसद डिस्काउंट आखिर कहां से आ रहा है? जब रिटेल में इतना मार्जिन ही नहीं है तो यह खेल कैसे चल रहा है?''
रिटेलर्स इसमें बैंकिंग सिस्टम की मिलीभगत का आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं कि इन कंपनियों को बैंकों का भी साथ मिला हुआ है. क्रेडिट और डेबिट कार्ड पर मिलने वाला कैशबैक और छूट ऑफलाइन दुकानों को नहीं मिलती. लख्यानी कहते हैं, ''हमने बैंकों के इस दोहरे रवैये की शिकायत आरबीआई से भी की है लेकिन अब तक कोई खास कार्रवाई नहीं हुई है.'' इस पर बैंकिंग विशेषज्ञ अश्विनी राणा का कहना है, ''कंपनियां बैंकों से टाइअप करती हैं. इसमें दोनों को फायदा होता है. कंपनी कस्टमर को फायदा देती है ताकि टर्नओवर बढ़े. ऐसे में ब्याजरहित पैसा बैंक के पास भी आता है. कंपनी बड़ी होती है इसलिए छोटे दुकानदार का कारोबार प्रभावित होता है.''
वैसे, सरकार को इस खतरे की भनक है. नवंबर 2023 में केंद्र सरकार ने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के 13 'डार्क पैटर्न' यानी उपभोक्ता को भ्रमित करने वाले हथकंडों की पहचान की और उसके खिलाफ गाइडलाइन जारी की. इनमें 'फाल्स अर्जेंसी', 'ड्रिप प्राइसिंग', 'ट्रिक वार्डिंग' जैसी तकनीकें शामिल हैं जो ग्राहक को गलत निर्णय लेने पर मजबूर करती हैं. लेकिन व्यापारी संगठनों का कहना है कि जब तक दंडात्मक प्रावधान न हों तब तक सिर्फ गाइडलाइन से कुछ नहीं होगा.
बराबरी का मुकाबला
व्यापारियों का कहना है कि उनकी लड़ाई तकनीक या ऑनलाइन व्यापार से नहीं, बल्कि लेवल प्लेइंग फील्ड के लिए है. उन्हें भी वे ही अधिकार, छूट और अवसर चाहिए जो बड़ी कंपनियों को मिलते हैं. अगर ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले समय में केवल चार-पांच कंपनियों का एकाधिकार होगा और छोटे दुकानदारों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा.
खंडेलवाल कहते हैं, ''अगर इनका खुदरा व्यापार से मुकाबला खत्म हो गया तो ये ग्राहकों से पूरा पैसा वसूलेंगे, कोई डिस्काउंट नहीं मिलेगा.'' ऐसे में सरकार को चाहिए कि ऑनलाइन-ऑफलाइन रिटेल के लिए सेबी की तरह एक स्वतंत्र नियामक बनाया जाए जो ई-कॉमर्स और क्विक कॉमर्स दोनों पर निगरानी रखे. उपभोक्ता के डेटा का दुरुपयोग रोकने के लिए सख्त कानून होना चाहिए. डंपिंग और घाटे में बेचकर प्रतिस्पर्धा का गला घोंटने की रणनीतियों पर प्रतिबंध लगना चाहिए.
ऑनलाइन और क्विक कॉमर्स भारत में उपभोक्ताओं के लिए यकीनन नई सहूलतें लेकर आया है लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है. तकनीक की इस दोधारी तलवार ने लाखों छोटे व्यापारियों की रोजी-रोटी पर खतरा खड़ा कर दिया है. अगर आज कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया, तो कल शहरों की गलियों में 'दुकानें' इतिहास बन जाएंगी. ऐसे में सरकार, उपभोक्ता और नीति निर्माता—तीनों को यह सोचने की जरूरत है कि क्या हम सुविधा की दौड़ में अपने आत्मनिर्भर बाजार को खोते जा रहे हैं?
किराना दुकानें
10 लाख किराना दुकानें बंद हो चुकी हैं मार्च 2025 तक
1.30 करोड़ किराना दुकानें हैं देश में
4.5 लाख डिस्ट्रिब्यूटर्स हैं देश में
45 लाख किराना दुकानें (करीब 40 प्रतिशत) बंद हो सकती हैं अगले पांच साल में
मोबाइल फोन रिटेल दुकानें
1.5 लाख मोबाइल की रिटेल दुकानें हैं
40 हजार मोबाइल दुकानें बंद हो गई हैं (ज्यादातर कोविड के बाद)
रिटेल पर तकनीक और तिकड़म की मार
ई-कॉमर्स और क्विक कॉमर्स के हथकंडे
> प्रिडेटरी प्राइसिंग-प्रतिस्पर्धा खत्म करने के लिए दाम बहुत घटा देना
> एल्गोरिद्म और एआइ से लोगों की पसंद जानना और सीमित विकल्प पेश करना
> चुनिंदा प्रेफर्ड सेलर का सामान सर्च में सबसे ऊपर रखना
> कंपनियों से गठजोड़ कर सिर्फ चुनिंदा उत्पादों को वह भी केवल ऑनलाइन बेचना
> बैंकों से गठजोड़ कर ऑनलाइन ग्राहकों को डिस्काउंट दिलाना
> डिमांड और बड़ी इन्वेंट्री मेंटेंन कर सस्ता माल बेचना
> लोकेशन, अर्जेंसी और डिवाइस (एंड्रायड या आइओएस मोबाइल) के आधार पर कीमतें तय करना
> लोगों का डेटा, पसंद और परचेजिंग पैटर्न का इस्तेमाल सामान बेचने में करना
दुकानदारों का दर्द
> फिजिकल स्टोर में कंपनियां ऑनलाइन से कम मार्जिन देती हैं
> कंपीटिशन कमिशन सुनता नहीं, कहता है उपभोक्ता को सस्ता मिल रहा है तो तुम्हें क्या दिक्कत
> बैंक छोटे दुकानदारों के ग्राहकों को आफर नहीं देते, भेदभाव करते हैं
> रिटेल दुकानें लगातार बंद हो रही हैं, रोजी-रोटी का संकट
> अभी सस्ता बेच रहे क्विक कॉमर्स और ई-कॉमर्स रिटेल के चौपट होने पर डिस्काउंट बंद कर देंगे
सरकार से मांग
> रिटेल सेक्टर ऑनलाइन और फिजिकल स्टोर के लिए नियामक बने
> डेटा प्रोटेक्शन कानून में एआइ-एल्गोरिद्म आधारित सेल्स पर रोक लगे
> बैंकों के ऑनलाइन और छोटे दुकानदारों से भेदभाव को खत्म किया जाए
> छोटे दुकानदारों को संरक्षण दिया जाए, उनको बराबर का अवसर दिया जाए