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प्रधान संपादक की कलम से

अगस्त 2023 में पेशावर में पख्तून कबीलाइयों के विशाल जिरगा को संबोधित करते हुए आसिम मुनीर ने कहा, ''हम अल्लाह की राह में जिहाद लड़ रहे हैं और इंशाअल्लाह हम कामयाब होंगे"

इंडिया टुडे कवर : जिहादी जनरल
इंडिया टुडे कवर : जिहादी जनरल
अपडेटेड 25 जून , 2025

- अरुण पुरी

पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान टकराव के उस मुहाने पर पहुंच गए हैं जहां उपमहाद्वीप पर सामरिक ज्वाला फट पड़ने का खतरा मंडरा रहा है. इस हफ्ते हम अपना ध्यान भारत के बैरी नंबर 1 जनरल आसिम मुनीर पर केंद्रित कर रहे हैं. केवल इसलिए नहीं कि नई दिल्ली पाकिस्तान के सेना प्रमुख और असल खेवनहार को पहलगाम नरसंहार का फरमान देने वालों में से एक मानती है.

उनकी सोच और करनी बेहद अहम कारक हैं. लोकतंत्र होने का दावा करने के बावजूद वहां सेना प्रमुख का पद ही सर्वशक्तिमान है, बदकिस्मती से वही पाकिस्तान की दशा और दिशा तय करता रहा है. बंटवारे के बाद इस इस्लामी मुल्क ने अपनी अलग ही आड़ी-टेढ़ी नियति अख्तियार कर ली. अपने 77 साल के वजूद में पाकिस्तान तीन चरणों में 33 साल के लंबे वक्त तक सीधे फौजी हुकूमत के अधीन रहा.

मगर यह आंकड़ा भ्रामक है क्योंकि वहां हमेशा फौज का ही बोलबाला रहा. महज कुछ बिरले मौके अपवाद थे जब कुछ नेताओं ने रावलपिंडी जनरल हेडक्वार्टर्स के आकाओं से लोहा लेने का साहस दिखाया. अपने को फौज से ज्यादा ताकतवर मानने का भ्रम पाले बैठे हरेक तीसमारखां को पैदल मोहरे की तरह सत्ता से बेदखल कर दिया गया. इमरान खान आखिरी वजीर-ए-आजम थे जिन्हें फौज से मुचैटा लेने पर यही हश्र झेलना पड़ा. अप्रैल 2022 में 'संसदीय तख्तापलट' को अंजाम देते हुए उन्हें एक झटके में गद्दी से बेदखल कर दिया गया.

मौजूदा वजीर-ए-आजम शहबाज शरीफ को दब्बू माना जाता है. कट्टर प्रतिद्वंद्वियों का सत्तारूढ़ गठबंधन, जिसमें पाकिस्तान पीपल्स पार्टी शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग के साथ आई, वह युक्ति है जिसका तानाबाना मुनीर ने इमरान को सत्ता से बाहर रखने के लिए बुना है, खासकर जब इमरान सबसे लोकप्रिय सियासतदां बने हुए हैं. लिहाजा फैसले लेने की ताकत मोटे तौर पर मुनीर के हाथों में सिमटी है. ऐसा भी नहीं कि उनकी शिरकत न हो या वे अलग-थलग पड़े हों और बातों से अनजान हों.

नवंबर 2022 में कमान संभालने के बाद से ही वे पाकिस्तान के बहुतेरे संकटों को सुलझाने में लगे रहे. ये बहुतेरे संकट आग का चलता-फिरता गोला हैं जिसकी लपटों में राजनैतिक अव्यवस्था, आर्थिक पतन और कट्टरपंथी विद्रोह शामिल हैं. सुरक्षा सम्राट होने भर से संतुष्ट न होकर वे आर्थिक संकटमोचन और राजनैतिक बिचौलिये भी बन गए हैं.

मुनीर अलबत्ता खुद को अलमबरदार दिखाने वाले पाकिस्तानी सेना प्रमुखों की लंबी कतार में थोड़े अपवाद हैं. मुल्क के शुरुआती दशकों के पश्चिमी तौर-तरीकों में ढले और व्हिस्की गटकते जनरलों से बिल्कुल अलग मुनीर स्थापित कसौटियों पर तकरीबन 'अच्छे शख्स' रहे हैं. वे मुंह में चांदी का चम्मच लेकर जन्मी मंडली से नहीं हैं और किसी जाने-माने खानदान से हुए बगैर एक-एक सीढ़ी चढ़कर ऊपर पहुंचे हैं.

वे ऑफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल के छात्र रहे हैं, न कि उस पाकिस्तान मिलिटरी एकडेमी के, जो उनके आठ पूर्ववर्तियों की प्रतिष्ठित मातृसंस्था रही है. सियाचिन में अपनी सेवाएं दे चुके और अपने मुल्क का सर्वोच्च फौजी सम्मान हासिल कर चुके मुनीर ऐसे पहले सेना प्रमुख भी हैं जिन्होंने मिलिटरी इंटेलिजेंस और आइएसआइ दोनों के डायरेक्टर-जनरल के ओहदों पर काम किया.

धन-दौलत पर इठलाने वाले शख्स न होने के नाते मुनीर ने मुल्क में चौतरफा फैले भ्रष्टाचार पर नकेल कसी. इमरान खान से उनका झगड़ा और उसके बाद आईएसआई के पद से बर्खास्तगी उस वक्त हुई जब उन्होंने तत्कालीन वजीर-ए-आजम को उनकी पत्नी बुशरा बीबी की गलत तरीकों से कमाई गई दौलत के आरोपों के बारे में बताया.

सीधे-सादे लेकिन सम्मानित हाफिज परिवार में जन्मे मुनीर कुरान को कंठस्थ करके पढ़ पाने की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं. उसकी आयतों को वे भौगोलिक राजनीति में भी ले आए. इस लिहाज से वे पाकिस्तान के पहले इस्लामी फौजी सरदार जिया-उल-हक के सांचे में ढले में हैं. उनके मातहत पाकिस्तान अलग रास्ता चुन सकता था.

मुनीर के शुरुआती कदम उनके पूर्ववर्ती कमर बाजवा की व्यावहारिक शैली से मेल खाते थे, जो नवंबर 2022 में अपने कार्यकाल का अंत आते-आते भारत के साथ सुलह और पाकिस्तान की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने पर ध्यान देने की ओर बढ़ रहे थे. पहलगाम हमले से पहले तक, मुनीर कट्टर इस्लामी आतंक का समर्थन करते नहीं दिखे थे; वे पाकिस्तानी तालिबान जिहादियों और उनके अफगान बिरादरों के प्रति नफरत से भरे थे.

मगर जल्द ही उनमें चिंताजनक दोहरापन दिखाई देने लगा, जिसमें वे फौज की भूमिका को मजहब के रखवाले के बराबर मानने लगे. अगस्त 2023 में पेशावर में पख्तून कबीलाइयों के विशाल जिरगा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ''हम अल्लाह की राह में जिहाद लड़ रहे हैं और इंशाअल्लाह हम कामयाब होंगे. पाकिस्तानी फौज का मकसद और उसूल शहीद या गाजी (जिहाद में शरीक होने वाला) होना है."

रौबदार बातों के बावजूद, सुरक्षा मोर्चे पर फौज और मुनीर की प्रतिष्ठा को खासकर बलूच ट्रेन हाइजैक के बाद धक्का लगा. राजनैतिक असंतोष और आर्थिथक मायूसी ने प्रतिष्ठा में लगे इस बट्टे को और तीखा कर दिया. कश्मीर के आर्थिक और राजनैतिक पुनरुद्धार से भी चोट पहुंची ही होगी. चौतरफा घिरा महसूस करके मुनीर अपनी दुश्वारियों से ध्यान बंटाने और अवाम का समर्थन जुटाने के लिए भारत के साथ तनाव बढ़ाने की पाकिस्तानी जनरलों की वर्षों पुरानी रणनीति की शरण में लौट आए.

पहलगाम हमले के हफ्ते भर पहले इस्लामाबाद में तकरीर करते हुए उन्होंने दो-राष्ट्र सिद्धांत का राग अलापा, हिंदू और मुसलमानों के बीच अमिट फर्क होने का दावा किया, और कश्मीर को पाकिस्तान के लिए 'जीने-मरने का सवाल' बताते हुए उसे आजाद करने की कसम खाई. इस जबान का इस्तेमाल तो जिया तक नहीं करते थे. यही वजह है कि हम उन्हें 'जिहादी जनरल' कह रहे हैं.

इस हफ्ते की आवरण कथा में ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा आगाह कर रहे हैं कि मुनीर दोनों मुल्कों को अस्थिरता की कगार पर धकेल देने वाली खतरनाक नीति के साथ मजहब, सियासत और आतंक को मिलाकर घातक कॉकटेल तैयार कर रहे हैं. पाकिस्तान और उसके अड़ियल जनरल के पहलगाम में किए गए विश्वासघात का मुंहतोड़ जवाब देते समय भारत को इस बात पर जरूर ध्यान देना चाहिए.

— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह).​​​​​​

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