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क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए समयसीमा तय कर सकता है सुप्रीम कोर्ट?

देश की सर्वोच्च अदालत ने कानूनी काम को लंबे समय तक रोके रखने से बचाने की खातिर हस्तक्षेप किया. संवैधानिक प्रमुखों को विधेयक की प्रक्रिया पूरी करने के लिए सुप्रीम अदालत ने समय सीमा तय की है.

सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति और राज्यपाल के विधायी कामों के लिए समयसीमा तय की
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति और राज्यपाल के विधायी कामों के लिए समयसीमा तय की
अपडेटेड 29 मई , 2025

सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया. उससे एक बार फिर देश के संघीय ढांचे के बुनियादी सवालों की उलझन सुलझी. मसलन, राज्यपाल के विवेकाधीन अधिकार की सीमाएं क्या हैं और संवैधानिक पद अगर सीमाएं लांघता है तो उसका फैसला कौन करे.

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल किया, जो उसे ''पूर्ण न्याय’’ करने के लिए आदेश या डिक्री पारित करने का अधिकार देता है. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने फौरन अनुच्छेद 142 को ''लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ परमाणु मिसाइल’’ जैसा बता दिया. पश्चिम बंगाल में बतौर राज्यपाल धनखड़ का कार्यकाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लगातार टकराव में ही बीता था. 

तमिलनाडु का मामला उन 10 विधेयकों से जुड़ा था, जो 2022 से राज्यपाल आर.एन. रवि के पास लंबित थे. अदालत ने 415 पन्नों के विस्तृत फैसले में घोषणा की कि उन्हें ''स्वीकृत माना जाता है.’’ तमिलनाडु विधानसभा से पारित इन विधेयकों को राज्यपाल ने रोक लिया था, न तो मंजूरी दी, न ही पुनर्विचार के लिए लौटाया, न ही राष्ट्रपति के पास भेजा, तो यह एक मायने में ''पॉकेट वीटो’’ जैसा है.

इससे पहले मामले में सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद रवि ने विधेयकों को पुनर्विचार के लिए लौटा दिया था. विधानसभा ने उन्हें फिर पारित करके मंजूरी के लिए भेजा तो राज्यपाल ने उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया. सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा फैसले के समय राष्ट्रपति ने 10 विधेयकों में से एक को स्वीकृति दे दी थी, सात की स्वीकृति रोक दी थी, और शेष दो पर अभी फैसला करना था.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने यह साफ कर दिया कि राज्यपाल को विधानसभा से पारित विधेयकों पर वीटो या पॉकेट वीटो हासिल नहीं है. न ही वे किसी विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानसभा को लौटाने के बाद दोबारा पेश होने पर उसे राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं. इनमें से किसी एक का ही विकल्प होना चाहिए, और राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजने का विकल्प भी स्पष्ट रूप से परिभाषित परिस्थितियों में ही अपनाया जा सकता है.

राष्ट्रपति भी मनमाने ढंग से राज्य के विधेयकों पर सहमति को रोक नहीं सकते, उन्हें संवैधानिक रूप से वैध कारण बताना होगा, यानी मौजूदा केंद्रीय कानूनों के साथ टकराव को उद्धृत करना होगा. सबसे अहम यह है कि अदालत ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए राज्य के विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए खास समय सीमा तय की, जो इस बात पर निर्भर करती है कि वे स्वीकृति दे रहे हैं, वापस भेज रहे हैं या रेफर कर रहे हैं, जबकि संविधान में ऐसी किसी समय सीमा का जिक्र नहीं है.

इस समय सीमा के मुताबिक, राज्यपालों को अमूमन विधेयकों पर ''फौरन’’ और मंत्रिपरिषद की सलाह पर एक महीने के भीतर कार्रवाई करनी चाहिए. राज्यपाल अगर मंजूरी रोकते हैं, तो तीन महीने के भीतर अपनी सिफारिशों के साथ विधेयक को लौटाएं. विधानसभा से दोबारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल एक महीने के भीतर मंजूरी दें. अदलत ने यह भी स्पष्ट किया कि राज्यपाल विधानसभा से पुनर्विचार के बाद दोबारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए रोक नहीं सकते. न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला ने पीठ के लिए फैसले में लिखा कि अनुच्छेद 200 में वर्णित ''उसके बाद स्वीकृति नहीं रोकी जाएगी’’ का मतलब यही है कि विधानसभा से विधेयक की दोबारा पुष्टि के बाद राज्यपाल की रुकावट पर ''स्पष्ट प्रतिबंध’’ है.

राज्यपाल की भूमिका

संविधान सभा की बहस के दौरान 1949 में बी.आर. आंबेडकर ने कहा था, ''संविधान के तहत राज्यपाल के पास कोई ऐसा कार्य नहीं है जिसे वह खुद से कर सके; कोई भी कार्य नहीं.’’ लेकिन इस पर स्वतंत्र भारत के 1952 में पहले चुनाव के फौरन बाद ही सवाल खड़े हो गए थे. मद्रास में राज्यपाल श्रीप्रकाश ने कांग्रेस के सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया, जबकि यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने ज्यादा सीटें जीती थीं, जो साफ-साफ केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी का पक्ष लेने की मिसाल थी. राज्यपालों के हाथों में राष्ट्रपति शासन एक और औजार बन गया.

केंद्र ने 1994 से पहले 100 से ज्यादा बार राष्ट्रपति शासन लगाया. आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने 1994 में ऐतिहासिक एस.आर. बोम्मई बनाम केंद्र के फैसले के जरिए इस दुरुपयोग पर लगाम लगा दी. अदालत ने फैसला सुनाया कि सरकार के बहुमत का परीक्षण राज्यपालों के यहां नहीं बल्कि विधानसभा में होना चाहिए, और अनुच्छेद 356 की न्यायिक समीक्षा संभव है. इसका असर व्यापक हुआ—फैसले के बाद राष्ट्रपति शासन लागू करने की औसत वार्षिक दर छह से घटकर 1.5 रह गई.

केंद्र में 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद राज्यपाल-राज्य संबंधों में निर्णायक मोड़ आया, खासकर विपक्ष शासित राज्यों में. केरल से लेकर पंजाब और तमिलनाडु से लेकर पश्चिम बंगाल तक, भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के नियुक्त राज्यपाल निर्वाचित राज्य सरकारों के साथ खुलकर टकराव में उलझने लगे. वरिष्ठ वकील तथा चार बार सांसद रह चुके अभिषेक मनु सिंघवी कहते हैं, ''राज्यपाल के पद को केंद्र की सुपारी एजेंसी में बदल दिया गया है. उसे मार्गदर्शन के बदले उत्पीडऩ और रुकावट का पद बना दिया गया है.’’

हालांकि, संविधान के तहत राज्यपालों को महज संवैधानिक प्रमुख माना जाता है जो संविधान में उल्लिखित अभूतपूर्व परिस्थितियों के अलावा मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करेंगे. लेकिन कुछ राज्यपालों ने खुलकर ज्यादा ही मुखर रुख अपना लिया है. मसलन, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस का कहना है, ''राज्यपाल को सक्रिय होना चाहिए. निष्क्रिय राज्यपाल के विचार का अंत हो चुका है.’’ संवैधानिक प्रावधानों की कोरी शाब्दिक व्याख्या को मानकर कई राज्यों में राज्यपाल ऐसी शक्तियों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसकी कोई मिसाल नहीं रही है.

मसलन, केरल के पूर्व राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने मंत्री को बर्खास्त करने का अधिकार होने का दावा किया. तमिलनाडु में राज्यपाल रवि ने भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार एक मंत्री को एकतरफा बर्खास्त कर दिया. हालांकि बाद में उन्होंने निर्णय को पलट दिया और एक अन्य मंत्री को बहाल करने से इनकार कर दिया, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार के मामले में उनकी सजा पर रोक लगा दी थी. अलबत्ता, संविधान विशेषज्ञ पी.डी.टी. आचारी कहते हैं, ''अनुच्छेद 164 कहता है कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करता है और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति मुख्यमंत्री की सलाह पर की जाती है. इसलिए, राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह के बिना किसी मंत्री को नहीं हटा सकते.’’

राज्यपाल-राज्य सरकार के बीच टकराव का कारण सिर्फ मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति, सरकार की बर्खास्तगी, विधानसभा को भंग करना और राष्ट्रपति शासन लागू करना ही नहीं है. मौजूदा टकराव विधानसभा के सत्र का समय तय करने, प्रशासन के रोजमर्रा के कामकाज में हस्तक्षेप करने, विधेयकों को मंजूरी देने में देरी और यहां तक कि सार्वजनिक रूप से प्रतिकूल टिप्पणी करने जैसे मामले हैं.

पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच टकराव इतना कड़वा हो गया था कि राज्य सरकार ने कई बार केंद्र को पत्र लिखकर धनखड़ को वापस बुलाने को कहा. धनखड़ के उप-राष्ट्रपति बनने के बाद उनके उत्तराधिकारी आनंद बोस के कार्यकाल में भी तनाव कायम है. पश्चिम बंगाल विधानसभा के अध्यक्ष बिमान बनर्जी के मुताबिक, राजभवन ने 2015 से अब तक 23 विधेयकों को मंजूरी नहीं दी है. तेलंगाना में भी यही हाल है.

राज्यपाल तमिलसाई सौंदरराजन ने विधानसभा से पारित कई विधेयकों को मंजूरी देने में देरी की. राज्य सरकार ने राज्यपाल पर 'संवैधानिक गतिरोध’ पैदा करने का आरोप लगाया और मार्च 2023 में सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. सिंघी कहते हैं, ‘‘जब राज्यपाल जान-बूझकर निर्वाचित विधानसभा से पारित विधेयकों पर रोक लगाता है, तो यह संवैधानिक असहमति नहीं रह जाती, यह लोकतांत्रिक विध्वंस और जनादेश के साथ विश्वासघात है.’’

दरअसल, जिसे संघ और राज्यों के बीच अराजनैतिक पुल के रूप में बनाया गया था, वह विधायी के लिए ही अड़चन बन गया है. पटना स्थित चाणक्य नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के कुलपति फैजान मुस्तफा कहते हैं, ''राज्यपाल कैबिनेट से अनुमोदित भाषणों को पढ़ने से इनकार कर रहे हैं, विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में हस्तक्षेप कर रहे हैं या बिना किसी कारण के विधायी कार्य को रोक रहे हैं. यह संवैधानिक निगरानी नहीं, बल्कि राजनैतिक ड्रामा है, जो सरकारी कामकाज और संविधान दोनों के खिलाफ है.’’

मंजूरी को बना लिया हथियार
धन विधेयक को छोड़कर विधायिका से पारित सभी विधेयकों के लिए राज्यपाल या राष्ट्रपति की मंजूरी जरूरी है, तभी वह कानून बन पाता है. संविधान का अनुच्छेद 163 राज्यपाल की शक्तियों के बारे में है, तो अनुच्छेद 200 विशिष्ट तौर पर विधेयकों को मंजूरी देने के विषय के बारे में है. मगर राज्यपाल के लिए विधेयक पर फैसला लेने की समय सीमा नहीं बताई गई है. मौजूदा टकराव इसी अस्पष्टता को लेकर है.

इसका फायदा उठाकर राजभवन अनिश्चितकाल तक विधेयकों पर चौकड़ी मारकर बैठे रहे. कई राज्य सरकारों का कहना है कि वे इस प्रक्रिया का इस्तेमाल विधेयकों को 'ठंडे बस्ते’ में डाले रखने के लिए कर रहे हैं. पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी कहते हैं, ''राज्यपाल और भारत के राष्ट्रपति इसलिए अत्यंत महत्वपूर्ण नहीं हैं कि वे राजकाज में अड़ंगे डालें या देरी करें (न उन्हें करना चाहिए और न संवैधानिक तौर पर वे कर सकते हैं), बल्कि इसलिए हैं कि वे नैतिक दिशानिर्देशक के रूप में काम करने के लिए बनाए गए हैं.

उनकी भूमिका चुनी हुई सरकारों की वैधता और लोकतांत्रिक अखंडता को सुदृढ़ करने वाले नैतिक मानदंडों को बनाए रखने और प्रतिबिंबित करने की है.’’

दिलचस्प यह कि राजभवनों में लंबित ज्यादातर विधेयक शिक्षा क्षेत्र और खासकर कुलपतियों की नियुक्तियों से जुड़े हैं. रवि को जिन आठ विधेयकों से परेशानी है, वे राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को कुलाधिपति बना पाने के लिए राज्य के कुछ निश्चित विश्वविद्यालयों के कानूनों में संशोधन के प्रस्तावों से जुड़े हैं. केरल में भी राज्य संचालित 13 विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्तियों को लेकर पिनाराई विजयन की सरकार और तब के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच ऐसी ही खींचतान देखी गई.

बंगाल की सरकार राज्य के 31 विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर राज्यपाल बोस के साथ कानूनी लड़ाई में उलझी है. इसी तरह कुलपति की नियुक्ति को लेकर 2020 में पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित का मुख्यमंत्री भगवंत मान के साथ टकराव हुआ था. 

ऐसे टकरावों की जड़ राजनैतिक तबके की उस मंशा में है जिससे वे उच्च शिक्षा के क्षेत्र पर विचारधारात्मक पकड़ बनाना चाहते हैं. शिक्षा हालांकि समवर्ती सूची में आती है, जहां केंद्र और राज्य दोनों इस विषय में कानून बना सकते हैं, लेकिन संघ सूची की प्रविष्टि 66 उच्च शिक्षा की संस्थाओं में मानकों का निर्धारण केंद्र सरकार को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काफी अधिकार देती है.

ये टकराव अक्सर उस वक्त और तीखे हो जाते हैं जब केंद्र और राज्यों में तकरीबन बिल्कुल विपरीत विचारधाराओं वाली सरकारें होती हैं. वरिष्ठ वकील और पूर्व राज्यसभा सांसद महेश जेठमलानी कहते हैं, ''राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव से विचारधाराओं के इस टकराव की ही झलक मिलती है.’’

मगर यह असंतुलन जम्मू-कश्मीर से ज्यादा तीखा कहीं और नहीं है, जहां उपराज्यपाल को 2019 के पुनर्गठन अधिनियम के तहत व्यापक अधिकार हासिल हैं. यहां हर विधेयक और यहां तक कि धन विधेयक के लिए भी उनकी मंजूरी जरूरी है. तबादले हों, या नियुक्तियां या छुट्टियां, मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की बात को बार-बार खारिज कर दिया जाता है. उनकी तरफ से प्रस्तावित कार्य संचालन के नियम अभी भी एलजी की मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं.

यहां तक कि आपातकालीन कार्यवाही पर भी बुरा असर पड़ा है. अफसरशाही की लेटलतीफी और बंटे हुए अधिकारों की वजह से जनवरी 2025 में राजौरी में 17 लोगों की जान चली गई.

विश्लेषकों का कहना है कि राज्यपाल इस तरह काम इसलिए करते हैं क्योंकि वे राजनैतिक नियुक्ति हैं, जिन्हें अक्सर विचारधारात्मक वफादारी की वजह से चुना जाता है. लोकनीति विशेषज्ञ केविन जेम्स कहते हैं, ''राज्यपाल के पद में बुनियादी नुक्स यह है कि यह पदधारी के पद पर बने रहने को केंद्र की राजनैतिक इच्छा से बांध देता है.

निजी ईमानदारी जैसी भी हो, राज्यपाल का संस्थागत प्रोत्साहन लाभ केंद्र सरकार के हितों से जुड़ा होता है. जब तक हम नियुक्ति और हटाने की प्रक्रियाओं को लोकतांत्रिक नहीं बनाते, कोई भी समाधान, चाहे वह न्यायिक हस्तक्षेप के जरिए हो या राजनैतिक समझौते के जरिए, अस्थायी और कामचलाऊ ही होगा, ढांचागत सुधार नहीं.’’

बात सुधार की

केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा करके उनमें सुधार लाने और सहकारी संघवाद को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार ने कई आयोग बनाए. उनकी रिपोर्ट व्यापक आधार वाले स्वतंत्र तंत्र के जरिए गैर-राजनैतिक राज्यपालों की नियुक्ति करने, नियुक्ति के लिए संबंधित मुख्यमंत्रियों की सम्मति लेने और राज्यपालों को निश्चित तथा न बढ़ाया जाने वाला कार्यकाल देने की बात कहती हैं. मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति और बर्खास्तगी और राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने में विवेकाधिकार के प्रयोग के तरीकों के बारे में सिफारिशें की गईं. केंद्र की किसी भी सरकार ने इनमें से किसी भी रिपोर्ट और सिफारिश को लागू करने की जहमत नहीं उठाई.

दिलचस्प यह है कि 'अपने आदमी’ को चुनने के केंद्र के एकाधिकार को खत्म करने के लिए 1980 के दशक में भाजपा ने तब बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के साथ मिलकर सुझाव दिया था कि राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार नहीं बल्कि नियुक्ति प्राधिकरण के रूप में अंतरराज्य परिषद के साथ मिलकर राज्य विधानमंडल करे.

मुस्तफा कहते हैं, ''एकतरफा कार्रवाई को सही ठहराने के लिए 'विवेकाधिकार’ का हवाला देने वाले राज्यपाल संविधान के तहत दिए गए विवेकाधिकार के स्वरूप को ही गलत समझते हैं, जो राजनैतिक सुविधा या निजी विचारधारा की सनक से नहीं बल्कि औचित्य, तर्कसंगतता, सदभान वना और संवैधानिक नैतिकता से बंधा है. यहां तक कि अगर ऐसे विरले मामले सामने आते हैं जहां राज्यपाल राज्य के किसी फैसले पर जायज सवाल उठा सकता हो, तब भी उसकी भूमिका टकराव की नहीं बल्कि सलाह, परामर्श और सहयोग तक सीमित होनी चाहिए.’’ ऐसा हो तब तक भारतीय संघवाद के इस नए रणक्षेत्र में लगातार झड़पें देखने को मिलती रहेंगी.

राज्यपाल बनाम राज्य सरकार
देशभर में राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच ठनी हुई है, जिससे संवैधानिक और वैचारिक टकराव तथा राजनैतिक पैंतरेबाजी को बढ़ावा मिल रहा. राजभवन अब ऐसी जगह बन गए हैं जिनकी वजह से संघवाद, कार्यपालिका के अतिक्रमण और संस्थागत अखंडता के सवालों पर बहस हो रही.

तमिलनाडु
तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि और मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के बीच टकराव केंद्र और राज्य के बीच सबसे उग्र टकरावों में से एक रहा है. विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के तौर पर उनकी शक्तियों पर अंकुश लगाने वाले विधेयक समेत प्रमुख विधेयकों को मंजूरी न देने से लेकर विधानसभा से वॉकआउट करने तक रवि ने बार-बार संवैधानिक परंपराओं की अवहेलना की.

लंबित विधेयकों पर उनकी निष्क्रियता को सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2025 में ''गलत और गैरकानूनी’’ करार दिया और जोर देकर कहा कि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक कानूनों को रोक नहीं सकते. टकराव ने दूसरे पहलू भी इख्तियार कर लिए. रवि ने सुझाव दिया कि राज्य का नाम बदलकर ''तमिलगम’’ रख देना चाहिए, जिसे तमिल पहचान का अपमान माना गया. आधिकारिक भाषणों में सामाजिक न्याय की थीम और प्रमुख नेताओं का जिक्र न होने से अविश्वास पनपा. प्रक्रियागत मुद्दों पर शुरू हुआ टकराव संघीय सत्ता और राज्य की दावेदारी के बीच प्रतीकात्मक संघर्ष में बदल गया.

पश्चिम बंगाल

पश्चिम बंगाल राजभवन और राज्य सरकार के बीच लगातार तनावों का गवाह रहा. राज्यपाल के पद पर जगदीप धनखड़ के कार्यकाल में प्रशासनिक फैसलों और विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों को लेकर बार-बार टकराव हुए. उनके उत्तराधिकारी सी.वी. आनंद बोस ने इस रुझान को कायम रखा, खासकर जब आर.जी. कर में हुई घटना को लेकर विरोध प्रदर्शनों के बीच उन्होंने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के ''सामाजिक बहिष्कार’’ की घोषणा की. इस अनबन ने विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों को भी चपेट में ले लिया. सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2025 में पारदर्शिता और निष्पक्षता पर जोर देते हुए नियुक्तियों को अंतिम रूप देने के लिए बोस को और वक्त दिया.

जम्मू-कश्मीर

सन 2019 में जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म होने के बाद अक्तूबर 2024 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में उमर अब्दुल्ला का नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन सत्ता में आया. मगर पुलिस और अफसरशाही की नियुक्तियों पर नियंत्रण समेत बेहद अहम अधिकार केंद्र की तरफ से नियुक्त उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के हाथ में ही रहे.

1 अप्रैल, 2025 को यह लड़ाई उस वक्त चरम पर पहुंच गई जब एलजी सिन्हा ने मुख्यमंत्री से सलाह-मशविरा किए बिना 48 अधिकारियों के तबादले का आदेश दे दिया. एलजी ने शेख अब्दुल्ला के सम्मान में छुट्टी बहाल करने की उमर अब्दुल्ला की पहल को भी खारिज कर दिया और विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का कार्यकाल बढ़ा दिया. सुरक्षा से जुड़े फैसले भी मुख्यमंत्री की सलाह के बिना लिए जाते हैं. यह अलगाव जनवरी 2025 में घातक साबित हुआ जब अधिकारों के बंटे होने और अफसरशाही के नाकारापन के बीच फंसकर आपातकालीन चिकित्सा सहायता नहीं मिलने से राजौरी में 17 लोग अचानक हुई बीमारी से मारे गए.

कर्नाटक

कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धरामैया और राज्यपाल थावरचंद गहलोत के बीच मधुर रिश्तों में अगस्त 2024 में खटास पैदा हो गई जब गहलोत ने सिद्धरामैया के खिलाफ उनकी पत्नी को आवंटित एक जमीन के मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच को मंजूरी दे दी. कर्नाटक हाइकोर्ट ने लोकायुक्त जांच का रास्ता साफ किया.

जवाब में राज्य सरकार ने राज्यपाल के अधिकारों पर अंकुश लगाने की कोशिश करते हुए विधेयक पारित किया जिसमें गहलोत की जगह मुख्यमंत्री को ग्रामीण विकास और पंचायत राज विश्वविद्यालय का कुलाधिपति बना दिया गया. टकराव और बढ़ गया जब गहलोत ने कर्नाटक सार्वजनिक खरीद पारदर्शिता अधिनियम में किए गए उस संशोधन को राष्ट्रपति के पास भेज दिया, जो लोक निर्माण कार्यों में मुसलमानों को 4 फीसद आरक्षण देता है.

सी.वी. आनंद बोस और उनके पूर्ववर्ती जगदीप धनखड़, दोनों मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से उलझते रहे. बोस ने तो ममता बनर्जी के 'सामाजिक बहिष्कार की घोषणा कर दी.

राज्यपाल गहलोत ने सीएम सिद्धरामैया के खिलाफ उनकी पत्नी को आवंटित जमीन के मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की मंजूरी दे दी, जिससे राज्यपाल-राज्य केबीच झगड़ा छिड़ गया.

ये भी किसी से कम नहीं

पंजाब

पंजाब के पूर्व राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित और मुख्यमंत्री भगवंत मान के बीच रिश्ते टकरावपूर्ण रहे. विवाद पुरोहित की सरहदी जिलों की यात्राओं और विधायी प्रक्रिया में भूमिका को लेकर पैदा हुए. सितंबर 2022 में राज्यपाल ने आप सरकार की तरफ से बुलाए गए विधानसभा के विशेष सत्र की मंजूरी वापस ले ली, जिससे संवैधानिक अतिक्रमण के आरोप लगे. पुरोहित को सरकारी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के पद से हटाने के लिए लाए गए विधेयक को लेकर तनाव और बढ़ गया, जिसे राष्ट्रपति ने नामंजूर कर दिया.

तेलंगाना

तेलंगाना के राज्यपाल के पद पर तमिलिसाई सौंदरराजन का कार्यकाल (2019-2024) तब मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के साथ टकराव से भरा रहा. टकराव विधायी कामकाज में देरी से शुरू हुआ, जिसमें सबसे गौरतलब 2023 में टीएसआरटीसी के विलय से जुड़े विधेयक को उनकी तरफ से मंजूरी नहीं दिया जाना था, जिस पर ट्रांसपोर्ट कामगारों ने विरोध प्रदर्शन किए. राज्यपाल ने दावा किया कि उन्हें राज्य के बजट सत्र समेत सरकारी कार्यक्रमों में शामिल नहीं किया जाता. पहले भाजपा की नेता रहीं सौंदरराजन पर बीआरएस ने अक्सर अपनी संवैधानिक भूमिका का राजनीतिकरण करने के आरोप लगाए.

महाराष्ट्र

शिवसेना के भीतर जून 2022 में एकनाथ शिंदे की अगुआई में हुए विद्रोह ने महाराष्ट्र में राजनैतिक संकट पैदा कर दिया. सदन में संख्याबल के परीक्षण के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी के निर्देश से भन्ना कर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने इस्तीफा दे दिया. फिर एकनाथ शिंदे ने भाजपा के समर्थन से सरकार बनाई. मई 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के कदमों की आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने कानून के मुताबिक काम नहीं किया, लेकिन ठाकरे की सरकार बहाल भी नहीं की क्योंकि उन्होंने अपनी इच्छा से इस्तीफा दिया था.

झारखंड

झारखंड के मुख्मंत्री हेमंत सोरेन ने फरवरी 2023 में राज्यपाल सी.पी. राधाकृष्णन पर केंद्र के साथ मिलकर उनकी गिरफ्तारी की कारस्तानी करने का आरोप लगाया. उनके नामजद चंपाई सोरेन को सरकार बनाने के लिए बुलाए जाने को करीब 48 घंटे इंतजार करना पड़ा. झामुमो ने दावा किया कि यह देरी दलबदल करवाने के लिए भाजपा की चाल थी.

अगस्त 2022 में पूर्व राज्यपाल रमेश बैस ने लाभ के पद के मामले में सोरेन के बारे में चुनाव आयोग की रिपोर्ट का खुलासा करने से इनकार कर दिया, जिसने राजनैतिक हंगामा बरपा दिया. बैस और राधाकृष्णन ने राज्य के प्रमुख विधेयकों को मंजूरी देने में भी हीलाहवाली की.

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