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अपने काडर को मजबूत करने के लिए क्या किसी बड़े बदलाव की तैयारी कर रही कांग्रेस?

अहमदाबाद अधिवेशन में पास होने वाले कांग्रेस के प्रस्ताव पहले की तरह ही हैं, मगर इस बार पार्टी ने इन पर अमल की दिशा में तत्काल कदम उठाए हैं

कोई रास्ता निकालें अहमदाबाद में पार्टी अधिवेशन के दौरान 9 अप्रैल को सोनिया,राहुल गांधी से बातचीत करते मल्लिकार्जुन खड़गे
अपडेटेड 21 मई , 2025

वह साबरमती का तट ही था, जहां महात्मा गांधी ने कभी भारत के स्वतंत्रता संग्राम को परवान चढ़ाया था. कांग्रेस शायद अपने ही कुछ कर्मों से मुक्ति की तमन्ना में अपने 86वें अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (एआइसीसी) के सत्र के लिए यहां लौटी और 64 वर्षों में गुजरात में अपना पहला अधिवेशन आयोजित किया.

2024 के लोकसभा चुनाव के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य में यह उसकी पहली बड़ी बैठक थी. गुजरात की सत्ता से पार्टी पिछले तीन दशक से बाहर है और यह अपनी विरासत पर फिर से दावा करने की उसकी प्रतीकात्मक कवायद थी. उस उद्देश्य पर गंभीरता से ध्यान दिया गया और भाजपा ने विरासत रूपी जिन महापुरुषों को उससे छीन लिया है उन्हें फिर से हासिल करने के लिए रणनीतिक समायोजन किए गए.

सरदार पटेल की 150वीं जयंती इसके लिए मुफीद साबित हुई और साबरमती आश्रम की तरह पटेल स्मारक को भी कार्यक्रम में प्रमुखता मिली. इसके हर कदम में गुजरात की समग्र विरासत की झलक मिली तथा न्याय, संवैधानिक मूल्यों और इन सबसे बढ़कर राष्ट्रीय प्रासंगिकता के लिए नए सिरे से जंग छेड़ने के साथ पार्टी अपना ऐतिहासिक गौरव फिर हासिल करने के लिए संघर्ष करती नजर आई. पार्टी के हर सियासी प्रस्ताव में इसी की गूंज नजर आई.

सांकेतिक प्रयासों से इतर संगठनात्मक खाके से जुड़े प्रस्ताव को अहमदाबाद अधिवेशन का सबसे अहम पहलू माना जा सकता है. यह मानते हुए कि कई राज्यों में काडर संरचना कमजोर हो गई है, कांग्रेस ने जिला कांग्रेस समितियों (डीसीसी) को सशक्त बनाने के उद्देश्य से बदलाव का ऐलान किया. उम्मीदवार चयन में अब जिला अध्यक्षों के इनपुट को तरजीह दी जाएगी. इस सुधार का उद्देश्य पार्टी को स्थानीय परिस्थितियों के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाना है.

वंशवादी राजनीति की परंपरा और आलाकमान संस्कृति के लिए अक्सर आलोचनाएं झेलने वाली पार्टी में इस सुधार को संचालन संबंधी डीएनए को बदलने का एक महत्वाकांक्षी प्रयास कहा जा सकता है. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने निष्क्रिय नेताओं को साफ बता दिया, ''जो लोग काम नहीं करना चाहते हैं उन्हें सेवानिवृत्त हो जाना चाहिए या आराम से बैठना चाहिए.'' यह इस बात का संकेत है कि संगठनात्मक सुस्ती ने चुनावी हार में अहम भूमिका निभाई है.

अहमदाबाद अधिवेशन में पार्टी ने सबसे गहन ढंग से मुख्यत: दो मोर्चों राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता/धर्मनिरपेक्षता की बहस पर अपनी रणनीति को धार देने पर जोर दिया, जिसमें उसे भाजपा के हाथों मात खानी पड़ी है. 'न्याय पथ' प्रस्ताव में कांग्रेस के 'एक सूत्र में पिरोने वाले राष्ट्रवाद' और भाजपा-आरएसएस के 'छद्म राष्ट्रवाद' के बीच अंतर स्पष्ट किया गया, जिसमें देश को धार्मिक, क्षेत्रीय और भाषाई आधार पर विभाजित किया जाता है.

धर्मनिरपेक्षता पर केंद्रित प्रस्ताव ने ''भारत की सदियों पुरानी परंपराओं से प्रेरित'' सिद्धांतों के प्रति कांग्रेस की प्रतिबद्धता पुष्ट की. लेकिन बंद दरवाजों के पीछे एक जटिल बहस भी चली. राहुल गांधी ने कथित तौर पर पार्टी नेताओं को सलाह दी कि मुसलमानों, ईसाइयों या सिखों का स्पष्ट तौर पर उल्लेख करने से न कतराएं. इसके पीछे उनका तर्क था कि इन 'अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाया जा रहा है.' मगर कुछ वरिष्ठ सदस्यों ने इससे हिंदू मतदाताओं के अलग-थलग हो जाने का अंदेशा जताया.

यह धार्मिकता के मुद्दे पर सही संतुलन साधने को लेकर पार्टी की उधेड़बुन को दर्शाता है. कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) के एक सदस्य ने इंडिया टुडे से कहा भी, 'छद्म धर्मनिरपेक्षता' को लेकर संघ परिवार के कई वर्षों से जारी अभियान ने कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. एक तरफ कांग्रेस बहुसंख्यक समुदाय के बीच अपनी पैठ गंवा रही है, क्योंकि उन्हें लगता है कि पार्टी अल्पसंख्यक तुष्टीकरण में लिप्त है, और दूसरी ओर अल्पसंख्यक भी अपनी सामाजिक-आर्थिक आकांक्षाओं के प्रति इसकी प्रतिबद्धता पर संदेह करते हैं. उनके मुताबिक, ''हम अभी भी एक तर्कसंगत नैरेटिव स्थापित नहीं कर पाए हैं...अहमदाबाद अधिवेशन के बाद भी.''

सामाजिक न्याय का मुद्दा कांग्रेस की खुद को फिर पूरी मजबूती के साथ खड़ा करने की रणनीति का आधार स्तंभ बनकर उभरा. पार्टी ने अपने प्रस्ताव में आरक्षण को मजबूती देने, देशभर में जाति गणना कराने और आबादी के अनुपात में गारंटीशुदा बजटीय आवंटन के साथ एससी/एसटी के लिए उप-योजनाएं बनाने के लिए एक केंद्रीय कानून का संकल्प लिया. राहुल गांधी ने कार्यसमिति से जोर देकर कहा कि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के बीच पैठ मजबूत करें. उनका तर्क था कि इससे ही उत्तर प्रदेश में पार्टी की चुनावी संभावनाएं बेहतर होने की राह खुल सकती है, जहां वह लंबे समय से हाशिए पर है.

प्रस्ताव में व्यापक नीतिगत दृष्टिकोण सामने रखा गया और श्रम, महिला अधिकार, कृषि, अर्थव्यवस्था और विदेश नीति जैसे मुद्दों पर केंद्र की विफलताओं को रेखांकित किया गया. पार्टी ने भाजपा पर श्रम कानूनों को कमजोर करने, मनरेगा की अनदेखी करने और मजदूरी न देने के लिए आधार केंद्रित भुगतान व्यवस्था को हथियार बनाने का आरोप लगाया. प्रस्ताव में महिला आरक्षण विधेयक, 2023 का स्वागत किया गया मगर इस पर अमल में देरी को लेकर सरकार को घेरा गया. वहीं दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए कोटे की मांग उठाई गई.

आर्थिक मोर्चे पर रेखांकित किया गया कि कांग्रेस के अधिकार-आधारित दृष्टिकोण की तुलना में भाजपा ने 'त्रुटिपूर्ण नीतियों' को अपनाया है. यह भी कहा गया कि महंगाई और कुछ कंपनियों के एकाधिकार ने न सिर्फ नागरिक हितों को नुक्सान पहुंचाया है बल्कि एमएसएमई को भी पतन की ओर धकेल दिया. कृषि क्षेत्र में पार्टी ने लागत से 50 फीसद ज्यादा एमएसपी और किसानों के कर्ज-मुक्त भविष्य का वादा किया. विदेश नीति संबंधी प्रस्ताव में चीन, अमेरिका और फलस्तीन से जुड़े मामलों में सरकार के तौर-तरीके की आलोचना की गई. वहीं, बांग्लादेश में बढ़ते कट्टरपंथ को अल्पसंख्यकों के लिए खतरा करार दिया गया.

बहरहाल, सत्र में छाए रहे प्रमुख नैरेटिव में कहां कुछ कमी रही, इसे रेखांकित करने का जिम्मा तिरुवनंतपुरम से सांसद और पार्टी के मुखर नेता शशि थरूर पर छोड़ दिया गया. उन्होंने कांग्रेस से आग्रह किया कि वह खुद को आशा और सकारात्मकता से भरी पार्टी के तौर पर स्थापित करे, न कि आक्रोश और आलोचना वाली. उन्होंने कहा कि कांग्रेस को भविष्य की पार्टी बनना होगा, यह केवल अतीत में जीती नहीं रह सकती. उनकी बातों ने कांग्रेस की पुनरुद्धार रणनीति के भीतर कायम ऊहापोह को स्पष्ट तौर पर उजागर किया.

खैर, कांग्रेस के कई दिग्गजों के लिए तो अहमदाबाद अधिवेशन में पारित प्रस्तावों की बातें कोई पहला अनुभव नहीं थीं. 2022 में उदयपुर चिंतन शिविर में भी जिला कांग्रेस समितियों को मजबूत करने और 'एक व्यक्ति, एक पद' नियम समेत कई संगठनात्मक सुधारों का वादा किया गया था. 2023 में रायपुर में आयोजित सत्र में फिर इन पर प्रतिबद्धता जताई गई. मगर ठोस बदलाव होते नहीं दिखे.

वैसे, अहमदाबाद अधिवेशन की सबसे खास बात यह रही कि पार्टी ने इसमें पारित प्रस्तावों पर तत्काल अमल की दिशा में कदम उठाए, खासकर गुजरात की जिला कांग्रेस कमेटियों के लिए पर्यवेक्षकों की नियुक्ति हुई. अमल के लिए स्पष्ट समयसीमा भी निर्धारित की गई. मगर आशावादी रुख के बावजूद कांग्रेस के सामने चुनौतियां कम नहीं हैं. पार्टी का संगठनात्मक ढांचा काफी कमजोर पड़ चुका है, खासकर हिंदी पट्टी में.

पार्टी को बिहार, असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में प्रस्तावित विधानसभा चुनावों में अपनी संभावनाओं को बेहतर करने पर ध्यान देना होगा. आम चुनाव में अपेक्षाकृत अच्छे प्रदर्शन के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में हार के साथ राज्य चुनावों में उसका प्रदर्शन निराशाजनक रहा.

सबसे बड़ी बात यह कि कांग्रेस अब भी नेतृत्व के मुद्दे पर संघर्ष कर रही है. 82 वर्षीय खड़गे के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद वंशवादी नेतृत्व का ठप्पा भले हट गया हो, मगर निर्णय लेने की प्रक्रिया प्रभावी तौर पर राहुल गांधी के इर्द-गिर्द ही केंद्रित है. कांग्रेस को प्रासंगिक बनाने की मंशा के साथ की गई घोषणाओं का अच्छा-खासा इतिहास है. मगर इन पर अमल न होने से सारी कवायद पर पानी फिर चुका है.

पार्टी को अगर 2029 में खुद को एक गंभीर दावेदार के तौर पर पेश करना है तो प्रतीकात्मकता की राजनीति छोड़ रणनीति, अनुशासन और जमीनी जुड़ाव स्थापित करने पर ध्यान देना होगा. अहमदाबाद अधिवेशन ने पुनरुद्धार का खाका खींच दिया है, लेकिन इसे अमल में लाना काफी चुनौतीपूर्ण है.

बंद दरवाजों के पीछे, सांप्रदायिकता को लेकर जोरदार बहस भी चली. राहुल गांधी ने सलाह दी कि प्रभावित अल्पसंख्यक समुदायों का उल्लेख करने से न कतराएं. कांग्रेस के प्रस्ताव पहले की तरह ही हैं, मगर इस बार पार्टी ने इन पर अमल की दिशा में तत्काल कदम उठाए और समयसीमा भी निर्धारित की गई है.

अहमदाबाद विजन

> जिलों से ही विकेंद्रीकरण की शुरुआत: हाइकमान संस्कृति को छोड़कर डीसीसी को मजबूत बनाने की कवायद एक बड़ा बदलाव

> राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता को फिर से पारिभाषित करना: भाजपा  के 'छद्म राष्ट्रवाद' के जवाब में कांग्रेस 'एक सूत्र में पिरोने वाले राष्ट्रवाद' पर जोर दे रही. हालांकि हिंदुओं को अलग-थलग महसूस कराए बिना अल्पसंख्यकों का समर्थन करे, इसको लेकर वह जूझ रही है

> रणनीति के तौर पर सामाजिक न्याय: जाति जनगणना, मजबूत आरक्षण और ओबीसी तक पहुंच की रणनीति के जरिए नए सामाजिक गठजोड़ से यूपी जैसे राज्यों में फिर से पैठ बनाने की कवायद

> वादों के अमल तक: इसके संगठनात्मक सशक्तीकरण के साल के तौर पर 2025 में अपने अतीत को पीछे छोड़ते हुए पार्टी की जवाबदेही की स्पष्ट परीक्षा होगी

> विजन बनाम आलोचना: उम्मीदों से भरी भविष्य की पार्टी बनने पर थरूर के जोर से एक प्रमुख दुविधा का भी पता चला कि क्या पार्टी युवा, भविष्य की ओर देखने वाले वोटरों को प्रेरित करने के लिए भाजपा-विरोधी बयानबाजी से आगे बढ़ सकती है?

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