
लेखक टफ्ट्स यूनिवर्सिटी के द फ्लेचर स्कूल ऑफ लॉ ऐंड डिप्लोमैसी में ग्लोबल बिजनेस के डीन और इंस्टीट्यूट फॉर बिजनेस इन द ग्लोबल कॉन्टेक्सट के संस्थापक निदेशक हैं. उनकी ताजातरीन किताब है (जे. ट्रैचमैन के साथ सह-संपादित) डिफीटिंग डिसइन्फॉर्मेशन
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ न केवल विश्व व्यवस्था को पटरी से उतार रहे हैं बल्कि शैतानी चालाकी से भरे भी हैं. ऐसा लग सकता है कि ह्वाइट हाउस के मेहनती कारिंदों ने ऑस्ट्रेलिया से 4,000 किमी दूर हर्ड और मैकडोनाल्ड द्वीपों पर रहने वाले पेंग्विन पर टैक्स थोपकर अनजाने में इन अभागे परिंदों के झुंड को सजा दी है. मगर अब हम जानते हैं कि यह सब टैरिफ आर्बिट्राज या शुल्कों पर मध्यस्थता के वास्ते पेंग्विनों का शोषण रोकने के लिए सोच-समझकर किया गया.
अमेरिकी कॉमर्स सेक्रेटरी हॉवर्ड लुटनिक ने सफाई दी कि पेंग्विन पर टैरिफ दरअसल देशों को इन द्वीपों के माध्यम से अमेरिका में चोरी-छिपे सामान लाने से रोकता है. जी हां, मूर्खतापूर्ण नीति के लिए कैबिनेट स्तर के अधिकारी की तरफ से यह वाकई गंभीर स्पष्टीकरण था.
पेंग्विनों को भले बख्श दिया गया हो लेकिन भारत में कुछ पंडित शुल्कों पर अलहदा किस्म की मध्यस्थता को गंभीरता से सुनहरा मौका समझ रहे हैं. ट्रंप के टैरिफ रेट कार्ड में भारत से आने वाले आयात पर 26 फीसद शुल्क लगाए गए हैं, लेकिन यह वियतनाम (46 फीसद), थाइलैंड (36 फीसद), बांग्लादेश (37 फीसद) या चीन (अब 125 फीसद!) पर लगाई गई दरों से कम है. भारत पर कम दर का प्रतिस्पर्धात्मक फायदा मिल सकता है क्योंकि दूसरे मैन्युफैक्चरिंग केंद्रों के निर्यातों के मुकाबले भारत से निर्यात सामान अमेरिकी खरीदारों के लिए ज्यादा आकर्षक होंगे.
अफसोस, शुल्कों पर मध्यस्थता काम नहीं आएगी.

सबसे पहले, दुनिया भर में टैरिफ पर मची उथलपुथल एक शख्स के अपनी सनक पर काम करने का नतीजा है. अर्थशास्त्र का नौसिखिया भी बता सकता है कि व्यापार घाटे का मतलब यह नहीं होता कि आपको 'लूटा-खसोटा’ जा रहा है, जैसा कि ट्रंप मानते हैं.
नोबेल पुरस्कार विजेता बॉब सोलो ने एक बार इसे इस तरह कहा था, ''अपने नाई के साथ मैं चिरकालिक घाटे में हूं, जो मुझसे एक टके की चीज नहीं खरीदता.’’ प्रो. सोलो नाई को जान-बूझकर तंग करने के लिए अपने बाल खुद नहीं काटने लगे. टैरिफ के पक्ष में ह्वाइट हाउस की दलीलें झूठ और वैज्ञानिक साहित्य की मनमानी गलत व्याख्याओं पर आधारित हैं. किसी भी देश की नीति इस पर आधारित नहीं होनी चाहिए.
दूसरे, यह उम्मीद करना दूर की कौड़ी है कि भारत टैरिफ मध्यस्थता की खिड़की का इस्तेमाल कर मैन्युफैक्चरिंग का शक्तिकेंद्र बन जाएगा. कई पेचीदा वजहें हैं जिन्होंने दशक भर लंबे 'मेक इन इंडिया’ अभियान के बावजूद मैन्युफैक्चरिंग को उड़ान भरने से रोका. वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग में चीन का हिस्सा बढ़कर 31.63 फीसद पर पहुंच गया, तो भारत का महज 2.87 फीसद है.
मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को बढ़ाने में कई ढांचागत चुनौतियां हैं, बावजूद इसके कि मैन्युफैक्चरिंग को बड़े पैमाने पर बढ़ाने की कई ऐतिहासिक बाधाएं हाल के वर्षों में कम हुई हैं. मैन्युफैक्चरिंग को तेज रफ्तार देने के लिए व्यवस्थागत बदलावों की जरूरत है.
इनमें गैर-कृषि उपयोग के लिए भूमि विकसित करने की प्रक्रिया आसान बनाना; श्रम कानूनों में सुधार; संरक्षणवादी मानसिकता और नीतियों को ध्वस्त करना; संयुक्त उद्यमों, ठेके पर मैन्युफैक्चरिंग और छोटे तथा मध्यम आकार के मैन्युफैक्चरिंग उद्यमों में गठजोड़ और निवेश के अन्य रूपों की संभावनाएं तलाश करते हुए मैन्युफैक्चरिंग केंद्रों के विकास पर सरकारी खर्च बढ़ाना; और मानव पूंजी को प्रशिक्षित करना शामिल है.
तीसरा, व्यवस्थागत बदलाव में समय लगता है. आज की टैरिफ व्यवस्था के जस का तस बने रहने की संभावना नहीं है. तस्वीर बदलती रहेगी, जिसमें बातचीत के जरिए शुल्क वापस लेने से लेकर व्यापार युद्धों के तीव्र होने तक कई मुकाम आएंगे. हम तत्काल वैश्विक मंदी से दोचार हो सकते हैं या हमें लंबे वक्त की ढांचागत हलचल के लिए कमर कसनी पड़ सकती है. जब इतनी अनिश्चितता हो तो लगता नहीं कि भारतीय नीति निर्माता इतने सारे जरूरी बदलाव कर पाएंगे.
फिलहाल, भारत के लिए सबसे अच्छा दांव यही है कि वह अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अच्छे रिश्तों और अमेरिका के साथ दूसरे देशों के मुकाबले भारत के बेहतर व्यापार संतुलन पर भरोसा करते हुए निकट भविष्य की सौदेबाजी पर ध्यान दे. यही नहीं, भारत ने ट्रंप के टैरिफ के जवाब में बदले की कार्रवाई नहीं की और इस संयम की बदौलत वह अच्छी स्थिति में है. वह अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर काम कर रहा है.
भारत कपड़ा, इंजीनियरिंग सामान और इलेक्ट्रॉनिक्स साजो-सामान समेत अच्छा प्रदर्शन करने वाली निर्यात श्रेणियों की चुनिंदा सूची पर अस्थायी राहत पाने के लिए बात कर सकता है. वह ऊर्जा उत्पादों या रक्षा उपकरणों सरीखे अमेरिकी उत्पादों का आयात बढ़ाने के उपाय भी प्रस्तावित कर सकता है. अमेरिका की विलासिता की वस्तुओं और ऑटोमोबाइल पर आयात शुल्कों में चरणबद्ध कटौतियां करने से सद्भावना का संकेत जाएगा.
सार यह है कि पेंग्विनों से सीखें—अच्छा व्यवहार करें, छोटे-छोटे कदम उठाएं, अभी जब आपके पंख उड़ने के लिए विकसित तक नहीं हुए हैं, उड़ान भरने का सपना न पालें.
सौदेबाजी की कला
●टैरिफ मध्यस्थता को भूलिए: मौजूदा उथलपुथल एक व्यक्ति की सनक का नतीजा है. किसी भी देश को इसके आधार पर नीति नहीं बनानी चाहिए.
●निकट अवधि की सौदेबाजी पर ध्यान दें: मोदी-ट्रंप के संबंधों और इस हकीकत पर भरोसा करें कि भारत का व्यापार संतुलन दूसरे मुल्कों से बेहतर है.
●उच्च निर्यात श्रेणियों में राहत के लिए समझौता करें: अमेरिकी आयात को बढ़ाने के उपायों की भी पहल करें.
भास्कर चक्रवर्ती
फ्लेचर इंस्टीट्यूट फॉर बिजनेस इन द ग्लोबल कॉन्टेक्स्ट के संस्थापक कार्यकारी निदेशक हैं.