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भारत को क्यों डटकर करना होगा अमेरिकी टैरिफ का सामना?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ लगाने के फैसले ने दुनिया में बड़े पैमाने पर व्यापार युद्ध की संभावनाओं को बढ़ा दिया है

योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया (फाइल फोटो)
योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया (फाइल फोटो)
अपडेटेड 16 मई , 2025

पिछले हफ्ते की सुर्खियां राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नाम रहीं, क्योंकि उन्होंने सभी देशों पर 10 फीसद का टैरिफ लगाया. उनमें 57 मुल्कों पर बहुत ज्यादा और अलग-अलग दरें लगाई.

विभिन्न देशों पर अलग-अलग टैरिफ लगाने से विश्व व्यापार व्यवस्था के 'सबसे पसंदीदा राष्ट्र’ क्लॉज का उल्लंघन होता है. यह क्लॉज मुक्त व्यापार व्यवस्था के हिस्से को छोड़कर विभिन्न देशों के बीच भेदभाव को प्रतिबंधित करता है.

इसने बड़े पैमाने पर व्यापार युद्ध की संभावनाओं को बढ़ा दिया, नतीजतन दुनियाभर के शेयर बाजारों में हड़कंप मच गया. राष्ट्रपति ट्रंप ने फिर अंतिम समय में उन देशों के लिए 90-दिवसीय राहत के साथ कदम पीछे खींच लिए जिन्होंने उनकी घोषणा पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की थी.

साथ ही उन्होंने पलटवार करने वाले देशों को अतिरिक्त धमकियां दी. नतीजतन, जवाबी टैरिफ बढ़ाने वाला चीन 125 फीसद के टैरिफ के बोझ तले दब गया है! यूरोपियन यूनियन ने अपने घोषित पलटवार को रोक दिया, लिहाजा वह फौरन अतिरिक्त नुक्सान से बच गया.

हालांकि इसराहत का स्वागत है, लेकिन सभी देशों पर 10 फीसद टैरिफ बना हुआ है और अभी यह भी तय नहीं है कि 90 दिनों के बाद क्या होगा. राष्ट्रपति ट्रंप का मानना है कि अमेरिका दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्था है, लेकिन उसके व्यापारिक साझेदार उसके साथ गलत व्यवहार करते हैं.

अमेरिका में दूसरों की तुलना में बहुत कम टैरिफ हैं, लेकिन बहुपक्षीय व्यापार समझौतों में अमेरिका ने खुद इस अंतर पर सहमति जताई थी. अमेरिका को कई अन्य क्षेत्रों में चिंता है और वे बातचीत का बेशक हिस्सा होंगे. सारी वार्ताएं द्विपक्षीय होंगी क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति को बहुपक्षीय वार्ता के नियमों पर कोई भरोसा नहीं है.

ऐसे में भारत को क्या करना चाहिए? फिलहाल हम द्विपक्षीय भारत-अमेरिका वार्ता कर रहे हैं. इसकी शुरुआत फरवरी में वॉशिंगटन डीसी में ट्रंप-मोदी बैठक के बाद हुई थी. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हमारे वार्ताकार अमेरिका को अपने रवैये पर पुनर्विचार करने के लिए राजी कर लेंगे. इसमें अहम मुद्दा यह होगा कि क्या हम अपने टैरिफ कम करने के लिए तैयार हैं.

एक सामान्य नियम के तहत हमें दबाव में किसी तरह का कदम उठाने का विरोध करना चाहिए. हालांकि, इस मामले में टैरिफ कम करना अच्छा रहेगा क्योंकि इतना ज्यादा टैरिफ खुद हमारे लिए ही अच्छा नहीं. हमारी उच्च टैरिफ दरों को कम करने से घरेलू उत्पादन लागत कम होगी और हमारी प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार होगा. छोटे और मध्यम स्तर के उद्योगों को सबसे ज्यादा फायदा होगा. इसकी वजह यह है कि वे भारत में बड़े उद्योगों की बनाई मध्यवर्ती वस्तुओं या कलपुर्जों को खरीदते हैं, और बड़े उद्योग संरक्षण की वजह से उनसे ज्यादा कीमत वसूलते हैं.

जो लोग इस बात को लेकर चिंतित हैं कि कम आयात शुल्क की वजह से भारतीय उद्योग की आयात के साथ प्रतिस्पर्धा की क्षमता कम हो जाएगी, उन्हें समझाना चाहिए कि उचित विनिमय दर नीति के माध्यम से इसका मुकाबला किया जा सकता है. आयात से प्रतिस्पर्धा का सामना करने वाले घरेलू उत्पादक को नुक्सान न हो, इसके लिए आयात शुल्क में पांच फीसद अंकों की कमी को पांच फीसद अंकों की विनिमय दर अवमूल्यन के जरिए ऑफसेट किया जा सकता है. इसके अलावा, अवमूल्यन से सभी निर्यातकों को आय के रूप में ज्यादा रुपए मिल सकेंगे.

उन वस्तुओं की पहचान करना मुश्किल नहीं होना चाहिए जिन पर टैरिफ कम किया जा सकता है क्योंकि फिलहाल हम यूरोपियन यूनियन और यूके के साथ मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) पर बातचीत कर रहे हैं, जिसमें कम टैरिफ शामिल होंगे. इनमें से कुछ को अमेरिका को ट्रंप टैरिफ वापस लेने के लिए एक सौदे के हिस्से के रूप में भी पेश किया जा सकता है.

भू-राजनैतिक बिखराव से खतरे में पड़ी दुनिया में, हवा के अनुरूप व्यापार नीति विकसित करना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. हमने परंपरागत रूप से विश्व व्यापार संगठन के तत्वावधान में बहुपक्षीय व्यापार वार्ता (एमटीएन) के जरिए व्यापार उदारीकरण का समर्थन किया है, लेकिन अमेरिका और अन्य सभी विकसित देशों ने एमटीएन को तज कर चुनिंदा देशों के साथ प्लूरिलेटरल समझौतों की ओर रुख कर लिया है.

ऐसे समझौते में बड़ी संख्या में देशों को सहमत करने की जरूरत नहीं होती और वे बौद्धिक संपदा अधिकार और निवेशक संरक्षण जैसे गैर-टैरिफ मुद्दों पर प्रगति की भी अनुमति देते हैं, जिनका एमटीएन में विरोध किया जाता रहा है. इस स्थिति में एफटीए के जरिए ही बड़े बाजारों तक पहुंचा जा सकता है. इस संदर्भ में यूरोपियन यूनियन/यूके एफटीए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं.

लेकिन एफटीए वार्ता में सफलता के लिए एमटीएन में अपनाए गए दृष्टिकोण से बहुत अलग किस्म के नजरिए की जरूरत होती है क्योंकि हम दुनिया के विकासशील देशों से समर्थन पर भरोसा नहीं कर सकते. हमारे वार्ताकारों को 'देने और लेने’ के रवैये को बनाए रखने के लिए ज्यादा अधिकार देना होगा; आम लोगों को इसके बारे में जागरूक करना चाहिए. यूरोपियन यूनियन/यूके में बिखराव का अंदेशा है और भारत के साथ समझौते में भलाई है.

एक ओर जहां यूरोपियन यूनियन/यूके महत्वपूर्ण हैं, वहीं अगले 20 साल में सबसे तेजी से बढ़ने वाले बाजार एशिया में होंगे, लिहाजा हमें इस क्षेत्र में और ज्यादा कुछ करने की जरूरत है. हमने रीजिनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) पर हस्ताक्षर करने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि हमारा उद्योग चीन को शुल्क मुक्त पहुंच देने से घबरा रहा था.

अगर हमारे इनकार की सचमुच यही वजह थी तो हमें वैकल्पिक कॉम्प्रीमसिव ऐंड प्रोग्रेसिव ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी) में शामिल होने के लिए आवेदन करना चाहिए. इसमें जापान के अलावा 11 दूसरे देश हैं, लेकिन चीन को बाहर रखा गया है. इसमें शामिल होने में वक्त लगेगा, लेकिन खासकर अगर हम एशिया में वैल्यू चेन वाले रिश्ते विकसित करना चाहते हैं तो फौरन अर्जी देने से अच्छा संकेत जाएगा.

उपरोक्त उपायों पर वे लोग सवाल उठा सकते हैं जो मानते हैं कि सरकार को अन्य बाजारों के साथ एकीकरण की चिंता करने की बजाए घरेलू उद्योग के संरक्षण के साथ एक सक्रिय औद्योगिक नीति विकसित करने पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए. इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि हमारी प्रतिस्पर्धात्मकता को मजबूत करने में सरकार की प्रमुख भूमिका है.

सरकार को आला दर्जे के बुनियादी ढांचे का विकास करना चाहिए; जमीन की उपलब्धता में सुधार करना चाहिए, जो छोटे और मध्यम उद्यमों के लिए एक बड़ी बाधा है; मानव पूंजी की गुणवत्ता में सुधार करना चाहिए; और केंद्र और राज्य, दोनों स्तरों पर ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में काफी सुधार करना चाहिए. हमें इन क्षेत्रों में काम करने की जरूरत है न कि अधिक संरक्षण की. हम संरक्षणवादी दौर देख चुके हैं और जानते हैं कि इसका अंजाम अच्छा नहीं होता. 

भारत के विकल्प
●कम टैरिफ: इससे घरेलू उत्पादन की लागत घटेगी और प्रतिस्पर्धा की क्षमता बढ़ेगी
●विनिमय दर में अवमूल्यन की अनुमति: इससे घरेलू उत्पादकों को अमेरिकी आयात से होने वाले नुक्सान की भरपाई हो सकेगी
●ब्रिटेन, ईयू और दूसरे बड़े देशों से मुक्त व्यापार समझौते करें: इससे बड़े मार्केट तक पहुंच बनेगी
● क्षेत्रीय व्यापार संगठनों में शामिल हों: चीन को ड्यूटी फ्री पहुंच मिल जाने का डर अगर भारत को आरसीईपी में शामिल होने से रोक रहा है तो वह सीपीटीपीपी में शामिल होने की अर्जी दे सकता है जिसमें 12 देश हैं पर चीन नहीं.

- मोंटेक सिंह अहलूवालिया
(लेखक योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष और सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस के डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं.)

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