
अधिकांश मनुष्य किसी भी तरह के बदलाव को पसंद नहीं करते. कंपनियां अपने कारोबार के तौर-तरीके सालों-साल एक ही ढर्रे पर बनाए रखने में विश्वास करती हैं. लेकिन आर्थिक कानूनों को लेकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की कड़ी व्याख्या ने पूरी दुनिया को बदलाव के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया है.
भारत भी इसमें कोई अपवाद नहीं है और उद्योग जगत के नेताओं को आगे बढ़ने का सबसे अच्छा तरीका खोजने के लिए सरकार के साथ मिलकर काम करना होगा. सरकार ने द्विपक्षीय व्यापार वार्ता पर अमेरिका के साथ बातचीत को आगे बढ़ाकर अच्छा काम किया है.
हालांकि, परिणाम की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, लेकिन मेरा मानना है कि इससे ऐसा व्यापार वातावरण बनेगा जो अधिक पारस्परिकता और कम आयात शुल्क पर आधारित होगा.
वैश्विक बाजारों तक पहुंच बढ़ाकर मैन्युफैक्चरिंग में जबरदस्त तेजी लाने की मंशा रखने वाले देश के तौर पर हम सिर्फ सीमा शुल्क का सहारा लेने पर निर्भर नहीं रह सकते. भारतीय कंपनियों को सफलतापूर्वक बढ़ने और समृद्ध होने के लिए प्रतिस्पर्धात्मकता तेजी से बढ़ाने की जरूरत है.
उद्योगों की दक्षता और प्रतिस्पर्धी क्षमता में वृद्धि के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के साथ-साथ खुद उद्योग को भी प्रयास करने होंगे. उद्योग को बुनियादी ढांचागत सहायता मुहैया करने वाली राज्य सरकारों की दक्षता में काफी सुधार जरूरी है. कार्यप्रणाली और नियम-कायदों को विकास के अनुकूल बनाने की जरूरत है. निर्णय लेने में पारदर्शिता और गति लाने के लिए तकनीक का इस्तेमाल भी किया जाना चाहिए.
प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ाने के लिए उद्योग-सरकार के बीच हर तरह के संवाद में लगने वाले समय का कम होना बहुत जरूरी है. निर्णय करने वालों को ऐसे निर्णय लेने से गुरेज नहीं करना चाहिए जो उद्यमियों की लागत घटाने और मुनाफा बढ़ाने में मदद करें.

आजादी के बाद औद्योगिक विकास को आयात और घरेलू प्रतिस्पर्धा दोनों से सुरक्षा प्रदान करने वाले एक मजबूत परदे के पीछे बढ़ावा दिया गया. इससे जो मानसिकता और प्रबंधन के तौर-तरीके विकसित हुए उन्हें मौजूदा स्थिति से निबटने के लिए संशोधित करना होगा. अगर सुरक्षा की मांग करेंगे तो नतीजे पीछे ले जाने वाले होंगे. वैश्विक स्तर पर तेजी से प्रतिस्पर्धी बनने के लिए कुछ न कुछ कठिनाइयां सहनी पड़ सकती हैं.
संरक्षण की मांग को पिछली सरकारी नीतियों में उचित ठहराया जाना कुछ हद तक घरेलू उत्पादन की लागत बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है. 2014 के बाद बड़ी संख्या में सुधार लागू किए गए हैं, और प्रतिस्पर्धा में समान अवसर उपलब्ध हुए हैं.
फिर भी और ज्यादा कदम उठाने की जरूरत है, खासकर राज्य सरकारों की तरफ से. राजनेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों के बीच परस्पर विश्वास का स्तर बहुत ज्यादा होना चाहिए. राज्यों को निजी क्षेत्र की प्रतिस्पर्धात्मकता को सक्रिय रूप से बढ़ावा देना चाहिए. साथ ही सरकारी लेखापरीक्षा के कामकाज की समीक्षा भी की जानी चाहिए.
औद्योगिक उद्यमों के शीर्ष प्रबंधन को ईमानदारी से स्वीकार करना होगा कि उनका प्राथमिक उद्देश्य अपनी कंपनियों का विकास करना और उन्हें सतत आधार पर वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाना है. इसके लिए सबसे पहले तो यह जरूरी है कि उनकी अपनी 'आवश्यकताओं’ से ज्यादा प्राथमिकता प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ाने वाले निवेश और नीतियों को मिले. शीर्ष प्रबंधन और उनके परिवार पर कंपनी का खर्च न्यूनतम हो. प्रमोटरों को यह भी दिखाना होगा कि वे अपनी कंपनियों को अपने आप से ऊपर रखते हैं. उन्हें अपनी कार्यशैली से विश्वास जीतना होगा.
जापान और मारुति सुजुकी ने भागीदारी की ताकत को स्पष्ट तौर पर दर्शाया है. अगर किसी कंपनी में सभी कर्मचारी प्रतिस्पर्धात्मकता अधिकतम बढ़ाने के सामान्य लक्ष्य के साथ एक टीम के तौर पर काम करते हैं तो यह सबकी जीत वाली स्थिति होती है.
अगर प्रबंधन और श्रमिकों के बीच प्रतिद्वंद्विता जारी रहती है तो इससे प्रबंधन पर ही अच्छी-खासी लागत आती है. यही नहीं, श्रमिकों की समर्पित टीम का सकारात्मक योगदान भी बेमानी हो जाता है. सभी प्रबंधकों के लिए एकजुट टीम बनाना और श्रमिकों के बीच यह भरोसा बनाए रखने का तौर-तरीका विकसित करना जरूरी है कि जब कोई कंपनी बढ़ती है और लाभप्रदता बढ़ाती है तो अधिकतम लाभ उन्हें ही मिलेगा.
इसके अलावा, कंपनी के निवेश योग्य संसाधनों को अधिकतम करना जरूरी है. मितव्ययी प्रबंधन उस समय और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है जब कंपनी को उच्च प्रतिस्पर्धात्मकता के लिए निवेश की आवश्यकता होती है. यही नहीं, ओईएम (मूल उपकरण निर्माता) की तरफ से विक्रेताओं को भागीदार मानकर उन्हें वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी बनने में मदद करते हुए मजबूत आपूर्ति शृंखलाएं बनाई जानी चाहिए.
अगर भागीदारी वाला दृष्टिकोण अपनाएंगे तो शीर्ष प्रबंधन को बेहद अमीर बनने से कोई रोक नहीं सकता, क्योंकि उनकी कंपनियों के तेज विकास के साथ उनके शेयरों की कीमत भी बढ़ेगी. उनके साथ श्रमिक, अन्य सहयोगी और राष्ट्र समृद्ध होंगे और विकसित भारत एक वास्तविकता बन जाएगा.
आगे का रास्ता
●सीमा शुल्क की आड़ लेना छोड़ें: उद्योग को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक बनने के लिए कुछ कष्ट उठाना चाहिए.
●राज्य की भूमिका बढ़े: उन्हें उद्योग को बुनियादी ढांचों के जरिए मदद करनी चाहिए.
●कंपनी को अपनी जरूरत से ऊपर रखें: टॉप मैनेजमेंट को निवेश और नीति के मामले में इसी मंत्र का पालन करना चाहिए.
आर.सी. भार्गव
(लेखक मारुति सुजुकी के चेयरमैन हैं.)