कभी-कभी महज विचार ही मायने रखता है. नोएडा की 28 वर्षीया मिताली बनर्जी यही कहती हैं, जब कोई उनसे पूछता है कि अपने इलाज के लिए वे जो ऑक्सीजन थेरेपी करवाती हैं, उससे उन्हें वाकई फायदा हो रहा है?
मिताली इंडिया टुडे को बताती हैं, ''मेरे चारों तरफ हवा बहुत खराब है. मैं बस कुछ ऐसा करना चाहती हूं जिससे मुझे लगे कि मैं सांस में केवल जहरीले पदार्थ ही नहीं ले रही हूं.’’
दिल्ली में ऑक्सीजन बार की सबसे बड़ी चेन ऑक्सीप्योर में मिताली हफ्ते में एक बार बड़ी-सी लॉउंज चेयर पर बैठकर 15 मिनट तकरीबन शुद्ध ऑक्सीजन लेती हैं. वे कहती हैं, ''इससे मुझे अच्छा लगता है.’’
लान्सेट प्लेनेटरी हेल्थ पत्रिका में छपे 2023 के अध्ययन से पता चला कि प्रदूषित हवा में सांस लेने से भारत में 2009 और 2019 के बीच हर साल 15 लाख तक मौतें बढ़ गईं जबकि अगर देश सुरक्षित हवा के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों को पूरा करता तो ये नहीं बढ़तीं. कार्डियोवैस्कुलर मौतों से लेकर क्रोनिक ब्रोंकोइटिस, फेफड़ों के कैंसर, अस्थमा और आंख की परेशानियों तक प्रदूषण जनस्वास्थ्य पर कहर बरपा रहा है. भारतीय निराश और परेशान हैं और इस समस्या के त्वरित और आसान समाधान के लिए लालायित हैं.
मगर ऑक्सीजन बार ही अकेला ताजातरीन फैशन नहीं है. वायु प्रदूषण सरीखी भारी-भरकम और चिंताजनक समस्या के लिए समाधानों का पूरा बाजार मौजूद है, और सच तो यह है कि फल-फूल रहा है. ग्लोबल मार्केट रिसर्च प्लेटफॉर्म रिसर्च ऐंड मार्केट्स के मुताबिक, भारत में प्रदूषण-रोधी नियंत्रण प्रणालियों का बाजार 2024 में 10.5 अरब डॉलर (90,000 करोड़ रुपए) का था, जिसके 2030 तक बढ़कर 18.16 अरब डॉलर (1.6 लाख करोड़ रुपए) का हो जाने की उम्मीद है.
यह 9.4 फीसद की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) है. मगर कई समाधानों को लेकर डॉक्टरों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मन में शंकाएं हैं और वे इसके बजाए सर्वांगीण और लंबे वक्त का नजरिया अपनाने की सलाह देते हैं. इंदौर के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में पल्मोनरी मेडिसिन के कंसल्टेंट डॉ. रवि दोसी कहते हैं, ''वायु प्रदूषण ज्यों-ज्यों बढ़ रहा है, लोग इसके नुक्सानदेह प्रभावों से बचने के तरीके खोज रहे हैं. दावा किया जाता है कि नई तकनीक हवा को फिर तरोताजा कर सकती है और सेहत पर प्रदूषण के असर को कम से कम कर सकती हैं. मगर क्या वे प्रदूषण में लंबे वक्त तक सांस लेने से जो भी नष्ट हो जाता है, उसको वापस ला सकती हैं?’’
ताजातरीन चलन
प्रदूषण-रोधी उत्पादों और इलाजों की निरी विविधता ही चौंकाने वाली है. स्विस एल्प्स, इटली की लेक कोमो या देश के नजदीक ही हिमालय की ऊपरी चोटियों से लाई गई डिब्बाबंद हवा से लेकर प्रदूषण-रोधी पेंट और पहनने योग्य एयर प्यूरिफायर तक कई समाधान मौजूद हैं. एयर प्यूरिफायर अब घड़ियों, कीचेन और गले के हार सहित अनेक रूपों में आते हैं. ये प्यूरिफायर वजन में हल्के और पोर्टेबल हैं और कई किस्म की टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हैं.
इनमें विद्युत आवेश के जरिए प्रदूषकों को पकड़ने वाली आयनीकरण डिवाइस से लेकर ऐंटी-स्मोग गन की नकल पर बनी चीजें हैं जो पानी की बूंदों को महीन बौछारों में बदलकर इस तरह छोड़ती हैं कि वे हवा में मौजूद धूल और कणों को खींचकर जमीन पर ला पटकती हैं.
दिल्ली के द्वारका स्थित मणिपाल अस्पताल में पल्मोनोलॉजी विभाग के प्रमुख और कंसल्टेंट डॉ. पुनीत खन्ना आगाह करते हैं, ''एयर प्यूरिफायर कुछ स्थितियों में कारगर हो सकते हैं, खासकर जहां बंद वातावरण हो और निवासी बुजुर्ग हों या बिस्तर से उठ न सकते हों. मगर खिड़कियां और दरवाजे खुले हों तो वे बेअसर हो जाते हैं.’’
डॉक्टरों का कहना है कि केवल उन्हीं प्यूरिफायर पर भरोसा किया जा सकता है जिनमें हाइ-एफीशिएंसी पार्टिकुलेट एयर (एचईपीए) फिल्टर लगे हों, जो दक्षता से प्रदूषकों को हटा देते हैं. आलीशान प्रतिष्ठानों ने भी स्वच्छ हवा का भरपूर फायदा उठाया और इसे विलासिता की वस्तु में बदल दिया. मसलन, नई दिल्ली का ताज पैलेस होटल मेहमानों को वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआइ) का 50 से नीचे का स्तर प्रदान करता है जबकि बाहर शहर का एक्यूआइ सर्दियों में अक्सर 400 के पार चला जाता है.
शॉपिंग मॉल और यहां तक कि रेस्तरां भी अपनी ब्रांडिंग की खातिर एचईपीए से लैस परिष्कृत एयर प्यूरिफायर सिस्टम और आयोनाइजर लगाने लगे हैं. मगर डॉक्टर इस रुझान के पूरी तरह कायल नहीं हैं. डॉ. दोसी कहते हैं, ''एयर प्यूरिफायर हालांकि अंदर की हवा की गुणवत्ता बढ़ा सकते हैं, लेकिन प्रदूषण के बहुत ज्यादा स्तर वाले इलाकों में उनकी अहमियत संदिग्ध है. बाहर की हवा जहरीली बनी हुई है और इन प्रतिष्ठानों से बाहर निकलने पर लोग अब भी खतरनाक प्रदूषकों के संपर्क में आते ही हैं.’’
एयर प्यूरिफायर के अलावा घरों को प्रदूषणमुक्त रखने के लिए लोगों ने हवा को शुद्ध करने वाले पेंट और यहां तक कि पौधों की शक्ल में बेचे जा रहे उत्पादों का रुख किया है. इमारतों के अंदर सबसे जिद्दी प्रदूषकों में से एक फॉर्मेल्डिहाइड है. यह वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (वीओसी), कुछ निश्चित ठोस और तरल पदार्थों से गैस के रूप में निकला कार्बन-आधारित रसायन है. यह फर्नीचर, कीटाणुनाशक, गोंद और तापरोधक पदार्थों में पाया जाता है. ये चीजें लगातार रंगहीन गैस के रूप में फॉर्मेल्डिहाइड छोड़ती हैं, जो अंदर की हवा को सालों के लिए दूषित कर देता है.
इसका मुकाबला करने के लिए लोग कम वीओसी वाले पेंट, हवा को शुद्ध करने वाले पेंट, ऐंटी-फॉर्मेल्डिहाइड कोटिंग, ऐंटीबैक्टीरियल फिनिश और सूरज की रोशनी और कार्बनिक यौगिकों का इस्तेमाल करके प्रदूषकों को तोड़ने वाले फोटोकैटेलिटिक या प्रकाश-उत्प्रेरक पेंट का लगातार ज्यादा से ज्यादा रुख कर रहे हैं. डॉ. दोसी बताते हैं, ''ऐंटी-पॉल्यूशन पेंट नई टेक्नोलॉजी है. इसमें टाइटेनियम डाइऑक्साइड होता है, जो सूरज की रोशनी के संपर्क में आने पर नाइट्रोजन ऑक्साइड सरीखे प्रदूषकों को कम नुक्सानदायक यौगिकों में तोड़ देता है... घरों के भीतर यह वहीं सबसे ज्यादा कारगर है जहां रोशनी ज्यादा आती है.’’ वे यह भी कहते हैं कि हालांकि इस टेक्नोलॉजी में संभावनाएं हैं, लेकिन इनके कुल असर के बारे में अभी अनुसंधान चल रहे हैं.
घर मालिक हवा शुद्ध करने वाले पौधों में भी निवेश कर रहे हैं. माना जाता है कि ये पौधे जहरीले कणों को सोखकर अंदर की हवा की गुणवत्ता में सुधार लाते हैं. एरेका पाम, स्पाइडर प्लांट, पीस लिली और एलोवेरा सरीखी किस्में खास तौर पर लोकप्रिय हैं क्योंकि इनमें फॉर्मेल्डिहाइड और कार्बन मोनोऑक्साइड को फिल्टर करने की क्षमता बताई जाती है. हालांकि, डॉक्टरों का कहना है कि इन पौधों का न के बराबर असर होता है, लेकिन वे प्रदूषण पर लगाम कसने की कोशिशों में प्राकृतिक और खूबसूरती के लिहाज से सुखद तड़का तो लगाते ही हैं.
फिर ऐसे लोग भी हैं जो हवा में मौजूद प्रदूषकों को पकड़कर उन्हें स्याही में बदल देने वाली स्मोग-हार्वेस्टिंग डिवाइस अपनाकर स्वच्छ हवा के प्रति अपनी जिम्मेदारी को और आगे ले गए हैं. दिल्ली के 48 वर्षीय वित्तीय सलाहकार माणिक शर्मा कहते हैं, ''मैंने हवा में मौजूद कार्बन को स्याही में बदलने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली विशाल औद्योगिक डिवाइस के बारे में पढ़ा और अपने घर के लिए अमेरिका से उसका छोटा संस्करण खरीदने का फैसला किया. मैंने उसे अपने जेनरेटर के नजदीक रख दिया ताकि वह उत्सर्जन सोख ले. अब गर्मियों के महीनों में हम इसे बेधड़क चला सकते हैं.’’
अलबत्ता अभी तक सबसे ज्यादा जाना-माना प्रदूषण-रोधी रुझान ऑक्सीजन बार ही हैं, वैसा ही जहां मिताली हर हक्रते जाती हैं. एक सिटिंग की कीमत करीब 1,000-2,000 रुपए आती है. मुंबई के ऑक्सीबैंक सरीखे कुछ प्रतिष्ठान तो सुगंधित ऑक्सीजन, लैवेंडर, ऑरेंज, दालचीनी, पुदीना वगैरह तक मुहैया करते हैं. वे सीधे-सादे सिद्धांत पर काम करते हैं: ''स्वस्थ रहने के लिए शुद्ध हवा में सांस लीजिए.’’ हाइपरबेरिक ऑक्सीजन थेरेपी (एचबीओटी) के पीछे भी यही सिद्धांत है. यह एक चिकित्सकीय उपचार है जिसमें दबावयुक्त कक्ष में 100 फीसद ऑक्सीजन में सांस दिलवाई जाती है.
जब उच्च दबाव पर शुद्ध ऑक्सीजन दी जाती है तो यह हीमोग्लोबिन या लाल रक्ताणुओं में नहीं बल्कि प्लाज्मा में घुल जाती है, जिससे खून में ऑक्सीजन का स्तर बढ़ जाता है. इससे स्वस्थ होने में मदद मिलती है और कीमोथेरेपी, रेडिएशन तथा अन्य चिकित्सकीय स्थितियों के दुष्प्रभाव कम हो जाते हैं जिसके लिए इसे मंजूरी दी गई है. अब कई स्पा और गैर-चिकित्सकीय उद्देश्यों के लिए प्रमाणित केंद्र भी शौकिया एचबीओटी सेवाएं देने लगे हैं, वह भी इस दावे के साथ कि इससे प्रदूषण का असर कम होता हैं, नींद अच्छी और गहरी आती है और ऊर्जा बढ़ती है.
दिल्ली के अपोलो अस्पताल में इंटरनल मेडिसिन के सीनियर कंसल्टेंट और भारत में आधुनिक हाइपरबेरिक चिकित्सा की राह दिखाने वाले डॉ. तरुण साहनी इस रुझान के आलोचक हैं. वे कहते हैं, ''चंगे रहने और प्रदूषण से राहत पाने के लिए हाइ-प्रेशर ऑक्सीजन का प्रचार किया जा रहा है, लेकिन इन दावों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. कोई भी असर तभी पड़ेगा जब मेडिकल-ग्रेड एचबीओटी हो, जो दुनिया भर में स्वीकृत केवल 14 इलाजों में ही इस्तेमाल की जानी चाहिए. हमारे यहां अप्रमाणित उपकरणों वाले स्वीकृत एचबीओटी के अस्वीकृत इस्तेमाल का पूरा (बाजार) है, (जो) भलाई से ज्यादा नुक्सान (कर सकता) है... सांस लेने में तकलीफ पैदा कर सकता है और इस सहूलत में विस्फोट की तरफ ले जा सकता है.’’
तो समाधान क्या है?
मणिपाल अस्पताल के डॉ. खन्ना के मुताबिक, प्रदूषण किसी शक्चस की सेहत पर दो प्रमुख तरीकों से असर डाल सकता है: थोड़े वक्त के लिए बहुत ज्यादा संपर्क या लंबे वक्त तक कम संपर्क. वे कहते हैं, ''यह तय करना असंभव है कि दिन के पांच फीसद समय अच्छी गुणवत्ता की हवा में सांस लेना बाकी समय हुए नुक्सान की भरपाई के लिए काफी है. सबसे अच्छा तरीका यह है कि अच्छे मास्क और एयर प्यूरिफायर पर खर्च करें ताकि यथासंभव ज्यादा समय आप स्वच्छ हवा में सांस ले सकें.’’
स्वच्छ हवा में सांस लेने का अधिकार आखिरकार जनस्वास्थ्य का संकट है जिसके लिए व्यक्तिगत समाधानों से कहीं ज्यादा की दरकार है. दिल्ली में साकेत स्थित मैक्स स्मार्ट सुपर स्पेशिएलिटी अस्पताल में रेस्पिरेटरी मेडिसिन, पल्मोनोलॉजी के डायरेक्टर और प्रमुख डॉ. आशीष जैन कहते हैं, ''प्रदूषण महज ठंड की परेशानी नहीं बल्कि साल भर का खतरा है. तापमान में उतार-चढ़ाव और मौसमी उत्सर्जनों की वजह से सर्दियों में स्मॉग भले ज्यादा दिखाई देता हो, लेकिन नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड और बारीक कण सरीखे प्रदूषक साल भर बने रहते हैं.’’ उनका कहना है कि असल समाधान व्यवस्थागत बदलाव में निहित है. वे कहते हैं, ''प्रदूषण-रोधी उपचार निजी स्तर पर केवल कुछ हद तक फायदेमंद हैं. उन्हें प्राथमिक समाधान के बजाए पूरक मानना चाहिए.’’
ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रदूषण-रोधी इलाजों से कुछ राहत भले मिल जाए, लेकिन वे प्रदूषित हवा में लंबे समय तक रहने से होने वाले नुक्सानों की पूरी भरपाई नहीं कर सकते. डॉ. दोसी कहते हैं, ''प्रदूषण को उसके स्रोत पर ही खत्म करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा अपनाकर, उत्सर्जनों में कमी लाकर और हरित जगहों को बढ़ावा देकर सरकारों, समुदायों को मिलकर काम करना चाहिए.’’ प्रदूषण को जड़ से खत्म करके ही हम भावी पीढ़ियों के लिए ज्यादा सेहतमंद वातावरण का निर्माण कर सकते हैं.ठ्ठ
15 लाख अनुमानित सालाना बढ़ोतरी हुई है प्रदूषण से भारत में हुई मौतों में 2009 से 2019 के बीच 50.6 माइक्रोग्राम औसत रहा भारत में पीएम 2.5* का घनत्व 2024 के दौरान जो कि डब्ल्यूएचओ की तरफ से तय सीमा से 10 गुना अधिक है. 2024 में 10.5 अरब डॉलर रहा भारत में प्रदूषण नियंत्रण प्रणालियों का बाजार, जिसके 2030 तक 18.2 अरब डॉलर तक पहुंच जाने का अनुमान है.