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इंडिया टुडे कॉन्क्लेव 2025: कैसे महुआ प्रोडक्ट के जरिए नक्सल क्षेत्र की महिलाओं की आमदनी बढ़ा रही हैं शेख रजिया?

छत्तीसगढ़ की शेख रजिया की कहानी बेहद खास है क्योंकि उन्होंने सुदूर बस्तर में 'दारू’ बनाने के काम आने वाले महुआ से अपनी एक फूड प्रोसेसिंग यूनिट बनाई है

Banega Toh Badhega India
उजली कहानियां  इंडिया टुडे हिंदी के संपादक सौरभ द्विवेदी अशोक कुमार सिन्हा, शेख रजिया और राजीव मरदा (बाएं से दाएं)
अपडेटेड 10 अप्रैल , 2025

भारत लगातार आगे बढ़ रहा है लेकिन यह यात्रा देश के दूरदराज इलाकों बन रहे बुनियादे ढांचे के बिना मुमकिन नहीं हो सकती. हालांकि बुनियादी ढांचे का मतलब सिर्फ सड़क या पुल नहीं है. इसमें कोई निर्माण इकाई शामिल हो सकती है, एक स्कूल या फिर कोई म्यूजियम भी! इंडिया टुडे कॉन्क्लेव 2025 के सत्र 'बनेगा तो बढ़ेगा इंडिया’ में इन्हीं बुनियादी ढांचों से जुड़ी तीन शख्सियतों ने शिरकत की.

इस सत्र में शामिल हुईं शेख रजिया की कहानी इस मायने में बेहद खास है कि उन्होंने सुदूर बस्तर इलाके में लघु वनोपज, इसमें भी महुआ, जो 'दारू’ बनाने के काम में आने वाले फल के रूप में बदनाम है, की अपनी एक फूड प्रोसेसिंग यूनिट बनाई. अब वे इस फल को लंदन तक निर्यात करती हैं जहां उनके एक अन्य साझेदार इससे बने उत्पादों को यूरोप और अमेरिका तक पहुंचाते हैं.

आज शेख रजिया की कंपनी 'बस्तर फूड्स’ ऊंची उड़ान भरती दिखती है. ऐसा होने की वजहें भी हैं क्योंकि इसकी स्थापना में जमीनी प्रेरणा और समझ का भरपूर खाद-पानी है. नक्सल प्रभावित इलाके से आने वाली शेख रजिया ने सत्र में बताया, ''छत्तीसगढ़ का बीजापुर नक्सलियों का गढ़ माना जाता है. मैं इस इलाके में काम करती थी. एक बार यहीं एक लड़के ने कहा कि हम स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद अगर नक्सलवादियों से जुड़ जाएं तो महीने के 20 हजार रुपए कमा सकते हैं.’’

रजिया को इस बात ने गहरे तक प्रभावित किया और उन्होंने सोचा कि क्यों न ऐसा कुछ किया जाए ताकि ऐसे सभी लड़के-लड़कियों को रोजगार मिल सके और उन्हें यह भी सिखाया-बताया जा सके कि पढ़-लिखकर सिर्फ सरकारी नौकरियों पर निर्भर रहने के बजाए अपना भी कुछ काम-धंधा शुरू किया जा सकता है. इसी सोच पर आगे चलकर उन्होंने 2017 में बस्तर फूड्स की स्थापना की.

रजिया की यह कंपनी आज छत्तीसगढ़ के साथ-साथ मध्य प्रदेश से भी महुआ और दूसरी लघु वनोपज हासिल करती है. उन्होंने इन जगहों की सैकड़ों महिलाओं को लघु वनोपज इकट्ठा करने और इससे नए-नए खाद्य उत्पाद बनाने की ट्रेनिंग दी है. रजिया बताती हैं कि पहले के मुकाबले आज इन महिलाओं को ट्रेनिंग देना और उनसे वनोपज हासिल करना काफी आसान हो गया है क्योंकि अब दूर-दराज के इलाकों तक सड़कों तक विस्तार हो रहा है. जाहिर है कि इससे इन महिलाओं की आमदनी भी बढ़ी है.

बुनियादी ढांचे से बदलाव की एक ऐसी ही कहानी पटना के बिहार म्यूजियम से भी निकलती है. यह संस्थान अब राज्य का गौरव बन चुका है. इसी सत्र में शामिल हुए बिहार म्यूजियम के एडिशनल डायरेक्टर अशोक कुमार सिन्हा बताते हैं कि पटना में पहले पटना म्यूजियम था लेकिन इसमें कलाकृतियों की संख्या बहुत अधिक थी, तो सरकार ने तय किया कि राजधानी में विश्वस्तरीय मानकों वाले एक अन्य म्यूजियम का निर्माण किया जाए ताकि ये कलाकृतियां वहां जगह पा सकें. फिर इस दिशा में कोशिशें शुरू हुईं और 2015 से बिहार म्यूजियम शुरू हो गया.

अशोक सिन्हा ने बिहार म्यूजियम की खासियतों को साझा करते हुए एक दिलचस्प किस्सा भी बताया. दरअसल, जापान की राजधानी तोक्यो से तकरीबन 200 किमी दूर तोकामाची सिटी के पहाड़ी इलाके में एक मिथिला म्यूजियम है. 1982 में स्थापित हुए इस म्यूजियम में बिहार की प्रसिद्ध मिथिला पेंटिग के कई दुर्लभ चित्र प्रदर्शित हैं.

मिथिला पेंटिंग की इस कला के संरक्षण में लगे एक जापानी तोकियो हासेगावा ने इसकी स्थापना की थी. उनका जिक्र करते हुए अशोक सिन्हा ने बताया, ''हासेगावा जब भी भारत आते तो उलाहना देते कि बिहार के लोगों को जब अपने राज्य की कलाकृतियां देखनी होंगी तो उन्हें जापान आना पड़ेगा लेकिन अब यह उलाहना देने की बात खत्म हो गई है. अब भारत में अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से बिहार म्यूजियम सबसे अच्छा संस्थान है.’’

इस संस्थान ने म्यूजियम की परिभाषा बदल दी है. अशोक सिन्हा बताते हैं कि बिहार म्यूजियम में सिर्फ कलाकृतियां नहीं हैं, बल्कि यहां समय-समय पर कई तरह की कला प्रदर्शिनियां, वर्कशॉप और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते रहते हैं. इनमें स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय कलाकारों को जगह दी जाती है. यह पूरे देश और बिहार के कोने-कोने से आने वाले कलाकारों के लिए अपनी कला के प्रदर्शन और उनसे आमदनी का जरिया बन चुका है.

बिहार म्यूजियम में जैसे प्राचीनता और नवीनता के मेल की गूंज सुनाई देती है, कुछ वैसी ही प्रतिध्वनि पटना से पश्चिम में करीब 1200 किमी दूर राजस्थान के चुरू से भी निकलती है. यहां बना है गुरुकुल विद्यालय जो समाज के सबसे वंचित तबकों से आने वाले बच्चों को गुरुकुल पद्धति के जरिए प्राचीन वैदिक शिक्षा के साथ आधुनिक शिक्षा में पारंगत कर रहा है.

यह गुरुकुल विद्यालय, धर्म संघ विश्वविद्यालय न्यास संचालित कर रहा है. इसके बोर्ड मेंबर राजीव मरदा ने 'बनेगा तो बढ़ेगा इंडिया’ सत्र में गुरुकुल विद्यालय की शुरुआत के बारे में बताया, ''1972 में चुरू शहर में सामाजिक और धार्मिक आंदोलन शुरू हुआ. तब समाज में विभाजन भी देखने को मिला तो तीन-तीन शंकराचार्य यहां पहुंचे. उनके साथ करपात्री जी महाराज और शिवानंद सरस्वती जैसे धार्मिक नेता भी यहां आए थे.’’

आंदोलन खत्म होने के बाद शिवानंद सरस्वती जी महाराज ने कहा कि वे चाहते हैं कि चुरू में वंचित तबके के बच्चों के लिए एक गुरुकुल शुरू हो. तब भगीरथ मरदा जो राजीव के दादा थे, ने अपनी कुछ जमीन पर यह गुरुकुल शुरू कराया और इस तरह पांच दशक पहले इस शिक्षा संस्थान की नींव पड़ी. इस गुरुकुल में छात्रों के रहने, खाने-पीने, और पढ़ने की तमाम सुविधाएं मुफ्त हैं और यह ट्रस्ट के पैसे से चलता है.

वेदों और धार्मिक कर्मकांडों में पारंगत इस गुरुकुल के छात्र आज अमेरिका और यूरोप तक हिंदू समुदाय के बीच पुरोहिताई का काम कर रहे हैं और कुछ तो उन देशों के नागरिक बन चुके हैं. लेकिन इन बच्चों को बदलते वक्त के साथ अब गुरुकुल में इंग्लिश, गणित के साथ कंप्यूटर जैसे दुनियावी विषयों की शिक्षा भी दी जा रही है.

बिहार म्यूजियम के एडिशनल डायरेक्टर अशोक कुमार सिन्हा ने कहा, “बिहार म्यूजियम सिर्फ कलाकृतियों के संरक्षण में नहीं लगा बल्कि कलाकारों को अपनी कला के  प्रदर्शन का मंच भी उपलब्ध करा रहा है. गुरुकुल विद्यालय प्राचीन वैदिक शिक्षा के साथ आधुनिक विषयों में भी छात्रों को पारंगत कर रहा है. करीब 2000 लोग हर दिन बिहार म्यूजियम घूमने आते हैं और इनमें बड़ी संख्या बच्चों की होती है. हम सिर्फ कलाकृतियों का संग्रह नहीं कर रहे बल्कि इस संग्रहालय में संगीत और कला के दूसरे कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं.” 


बस्तर फूड्स की फाउंडर शेख रजिया ने कहा, “हमारी कंपनी के लिए वनोपज बीजापुर, सुकमा, दंतेवाड़ा और बस्तर से आती है. ये सब नक्सल प्रभावित क्षेत्र हैं. लेकिन इन जगहों पर अब अच्छी सड़कें हैं, जिससे हमें काफी मदद मिलती है. अब हम अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया तक अपने उत्पादों का निर्यात कर रहे हैं.” वहीं, डीएसवीएसएन चुरू के बोर्ड सदस्य राजीव मरदा ने कहा, “हमने प्राचीन गुरुकुल पद्धति के साथ आधुनिक विषयों को भी पढ़ा रहे हैं. हम अपने सभी छात्रों का खर्च खुद वहन करते हैं. उनमें कुछ 'शास्त्री’ बनने के बाद अमेरिका, यूके और सिंगापुर में रह रहे हैं और वहां के नागरिक भी बन गए हैं.” 

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