
छोले!’’ जी, यकीन नहीं आता न, ऐसा ही कहा गया था. तीन घंटे और 20 मिनट की 3 करोड़ रुपए की लागत से बनी खुदी का जश्न मनाती उस मारधाड़ और मसाले से भरपूर ड्रामा के प्रति हिंदी सिने जगत की पहली प्रतिक्रिया कई शक-शुबहे के साथ खिल्ली उड़ाने जैसी थी, जो अपने चटक मसाले की वजह से थोड़ी-बहुत छोले जैसी लगती होगी!
15 अगस्त, 1975 को शोले रिलीज हुई तो पहले पखवाड़े का कुछ टोटा देख सिनेमाई कारोबार वाली पत्र-पत्रिकाओं में टिकट खिड़की पर सन्नाटे का अंदेशा जताया. इंडिया टुडे समेत सभी समीक्षकों ने सर्जियो लियोन और सैम पेकिनपा शैली की बदले की हिंसा को नकार दिया. लेकिन जल्द ही, गली-कूचों-सड़कों पर कुछ पकने लगा.
बेशक, देश में पहली बार 70 मिमी कैनवस और स्टीरियोफोनिक साउंड के साथ देखना दर्शकों के लिए आकर्षक रहा हो सकता है, मगर पर्दे पर बेहद दिलचस्प घटनाओं वाला ड्रामा नमूदार था.
पात्र आकर्षक और मनमोहक थे, और थोड़े खुरदरे भी. ठांय-ठांय चलती बंदूकों के दृश्यों में भी ठहाकों के लिए पर्याप्त मसाला था. फिर, गब्बर सिंह भी था, जो अनजाना-सा लगता था. ऐसा खलनायक किसी ने नहीं देखा था. सो, मानो शोले ने दर्शकों से संवाद बनाना शुरू किया, तो जल्द ही दर्शक शोले-शोले के साथ सलीम-जावेद की लाइनें दोहराने लगे.
बाकी तो सबको पता है. खलनायक पूछता है, कितने आदमी थे? तो, जान लीजिए, देश और विदेश के सिनेमाघरों में पिछले कई साल में करोड़ों तो होंगे ही. 1985 में ही इंडिया टुडे के अनुमान के मुताबिक, कुल दर्शक 25 करोड़ थे. और कमाई? पूरे 35 करोड़ रुपए! यह कोई पहली बार नहीं था कि बॉलीवुड की कोई फिल्म कहानी, फिल्मांकन और कमाई में लगातार बड़ी होती गई.
बंबई में मिनर्वा थिएटर में शोले के पांच साल चलने से पहले भी कई फिल्में ब्लॉकबस्टर बन चुकी थीं और मदर इंडिया (1957) तथा मुगले आजम (1960) जैसी सदाबहार हिट तो बड़े बजट और नामी कलाकारों की लंबी कास्ट वाली सोच पर भी खरी उतरी हुई थीं. मगर शोले तो बिग बैंग थी. उसने सिनेमा की दुनिया को हिला डाला. बल्कि कहें कि उसने अपनी ही एक दुनिया रच डाली. वह जितनी अंतरंग थी, उतनी ही महाकाव्यात्मक. उसमें ज्वाला धधक रही थी, तो उधार ली गई यादों का कोलाज भी थी. वैसा जादू फिर जगाना असंभव था, भले ही उसकी छवियां दोहराई गईं, बार-बार और हमेशा.
अमिताभ बच्चन की 1975 में ही आई दीवार के बाद शोले ने यह पक्का कर दिया कि हमें एक ऐसा सुपरस्टार मिला है जैसा पहले कभी नहीं था. एक दशक तक उनका पूरा दबदबा रहा. उसके बाद भी वे दो-नायक और सामूहिक भूमिकाओं वाली अनगिनत फिल्मों में कामयाबी के स्थायी गारंटर बने रहे. बड़े बजट की मल्टी-स्टारर फिल्म के प्रारूप को भी कई बार आजमाया गया, कभी कामयाबी मिली, कभी नहीं.

अमिताभ की अपनी अमर अकबर एंथनी, शान और नसीब या बाद के दौर में द बर्निंग ट्रेन, ’80 के दशक में लोहा और जोशीले से लेकर उस सदी के अंत में चाइना गेट तक, हर फिल्म में गब्बर सिंह जैसे किरदार की अलग-अलग तरह से नकल की गई. लेकिन जब दर्शकों ने टीवी पर आरामदायक ड्रॉइंग-रूम ड्रामा को पसंद करना शुरू किया, तो ऐक्शन और बदला भंजाने की कहानियों की घुड़दौड़ का आकर्षण खोना शुरू हुआ.
यह महज संयोग नहीं कि जिस फिल्म ने आखिरकार शोले को पछाड़ा, वह थी 1994 की खुशनुमा हम आपके हैं कौन...! इसे रोमांस का बदला कहें. एक हीरोइन (माधुरी दीक्षित) अभिनीत फिल्म का पहला हिस्सा तो शादी की वीडियो जैसा था. उसमें घोड़े नहीं थे, लेकिन एक पॉमेरियन कुत्ता अहम किरदार था. यह संगीतमय मस्ती से इतना सराबोर था कि उसके 3 घंटे 26 मिनट में मारधाड़ की तो छोडि़ए, खलनायक की कोई जगह नहीं थी.
और हां, उसमें सलमान भी थे, जो खान त्रिमूर्ति में एक हैं, जिनके दौर ने बॉलीवुड में एक और युग की शुरुआत की. इस तिकड़ी ने ब्लॉकबस्टर के पैमाने को लगातार ऊंचा किया: 200 करोड़ रुपए (3 इडियट्स, सुल्तान, एक था टाइगर), 300 करोड़ रुपए (बजरंगी भाईजान, दंगल) लेकिन शोले सलमान की लाइन लेकर आज भी कह सकता है, ''जहां खड़े हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है.’’
‘‘भारतीय सिनेमा में इससे अधिक निर्णायक फिल्म कभी नहीं बनी. भारतीय फिल्म इतिहास को शोले से पूर्व और शोले के बाद के दौर में बांटा जा सकता है.ज्ज्
— शेखर कपूर, (शोले: द मेकिंग ऑफ ए क्लासिक में)
‘‘जैसा कि ब्रिटिश साम्राज्य के बारे में कहा जाता था, ठीक वैसे ही शोले का सूरज कभी नहीं डूबता.’’
— श्याम श्रॉफ, फिल्म वितरक
असली ब्लॉकबस्टर
● अमिताभ बच्चन तकरीबन दशक भर तक हिंदी सिनेमा में अजेय बने रहे. इंडिया टुडे की आवरण कथा के बाद उन्हें 'वन-मैन इंडस्ट्री’ का तमगा मिला
● बॉलीवुड ने कई बड़े बजट की मल्टी-स्टारर और बदले वाली फिल्मों में शोले को दोहराने की कोशिश की
● लेकिन आखिरकार जिस फिल्म ने उसका रिकॉर्ड तोड़ा, और जो सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म बनी, वह मजेदार म्यूजिकल रोमांस थी: हम आपके हैं कौन! (1995)
● आमिर, सलमान और शाहरुख खान की तिकड़ी धीरे-धीरे सुपरस्टार, बॉक्स-ऑफिस किंग के रूप में उभरी, जिनका नाम ही बड़ी ओपनिंग की गारंटी था. उनके दबदबे का सूरज अभी भी डूबना बाकी है
● 2015 में, एस.एस. राजमौलि की बाहुबली: द बिगिनिंनग ने एक नई तरह की ब्लॉकबस्टर घटना की शुरुआत की: अखिल भारतीय हिट. दक्षिण में बनी फिल्मों के डब संस्करणों ने हर जगह दर्शकों को आकर्षित किया
क्या आप जानते हैं?
शूटिंग के पहले शेड्यूल से दो हफ्ते पहले गब्बर का किरदार निभाने वाले डैनी डेन्जोंगप्पा ने तारीख की समस्या का हवाला देकर किनारा कर लिया. कुछ ही दिनों में अमजद खान को परखा गया और उन्हें हर हफ्ते 500 रुपए पर काम पर रखा गया. गब्बर इस कदर मशहूर हुआ कि उसके संवादों वाले ऑडियो कैसेट की भारी मांग थी और अमजद खान को पार्ले-जी बिस्कुट के एक यादगार विज्ञापन में वही किरदार फिर से निभाने के लिए काम पर रखा गया.
इंडिया टुडे के पन्नों से

अंक: 15 सितंबर, 1995
सिनेमा/शोले: गब्बर तेरा जवाब नहीं
तबसे बॉलीवुड, समीक्षक और यहां तक कि सांस्कृतिक शिक्षाविद भी शोले की अचूक कामयाबी का रहस्य जानने की कोशिश कर रहे हैं. क्या वह धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन की केमिस्ट्री है या गब्बर का यादगार किरदार?
या फिर पटकथा लेखक जोड़ी सलीम-जावेद की दमदार कहानी है? शानदार शैली? क्या अलग-अलग संवाद हैं या बदले की संवेदनशीलता?
किसी ने भी सवाल का अच्छा जवाब नहीं दिया है जिसे कि दोहराया जा सके. हम आपके हैं कौन...एक बेहतरीन ढंग से तैयार की गई बॉक्स-ऑफिस हिट है, मगर शोले के विशाल फलक के मुकाबले फीकी. यह देखना बाकी है कि यह फिल्म चलने के रिकॉर्ड की बराबरी कर पाती है या शोले के गहरे असर की. इस बीच, उद्योग एक और कालातीत कहानी की खोज में जुटा है.
—अनुपमा चोपड़ा
इंडिया टुडे (अंग्रेजी) के पन्नों से