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जब प्रकाश पादुकोण बने बैडमिंडन के विश्व चैंपियन और फिर भारत में यह खेल हमेशा के लिए बदल गया!

प्रकाश पादुकोण ने जब 1980 में बैडमिंटन की ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप जीती, उसके पहले तक भारतीयों के बीच यह खेल महज टाइम-पास से ज्यादा कुछ नहीं था

इस बार, फिर उस पार प्रकाश पादुकोण ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप के एक मैच के दौरान
अपडेटेड 14 जनवरी , 2025

लंबे, फुर्तीले और अचूक-अटल, 6'1'' की कदकाठी पर महज 75 किग्रा के साथ वे कोर्ट को इस तरह कवर करते थे मानो एंडीज की ढलान पर सरपट दौड़ता लामा. प्रकाश पादुकोण ने दो समानांतर शैलियों पर अधिकार हासिल किया: हल्के से छू भर देने की कलात्मकता और पूरी ताकत से लगाए गए शॉट.

अगर उनके ड्रॉप शॉट युक्ति थे, तो वे चालबाज थे: पूरब में देखते, पश्चिम में जा गिरते. लेकिन उनके पास मारक हाफ-स्मैश भी था जो सीधे तीर की तरह जाता. सबसे बढ़कर कोर्ट की शानदार स्थानिक-सामयिक सूझबूझ थी. कौन-सा शॉट कब और कहां खेलना है.

खुद उन्हीं से सुनिए कि 1980 के ऑल इंग्लैंड फाइनल में उन्होंने बेहद तेज और फुर्तीले लिम स्वी किंग को किस तरह धीमा किया और अपने भारी हथियारों से इस इंडोनेशियाई खिलाड़ी को निहत्था कर दिया. उन्होंने कहा, ''मैं उन्हें सेकंड के बहुत छोटे अंश की देरी से हरकत में आने देता क्योंकि मैं अपने स्ट्रोक थोड़ा थामकर लगा रहा था. वे टॉस की उम्मीद कर रहे होते, तो मैं ड्रॉप खेलता. वे ड्रॉप की उम्मीद कर रहे होते, मैं स्ट्रोक खेलता. वे पहले से अनुमान लगाकर हमलावर स्थिति में खड़े नहीं हो पाए.''

दुनिया भी अनुमान नहीं लगा सकी कि बैडमिंटन नहीं खेलने वाले देश का यह बंदा, जो 44317 फुट के कोर्ट को अपनी मनमर्जी समेटता मालूम दे रहा था, अब उसे बढ़ाने जा रहा था. ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप टेनिस के ग्रैंड स्लैम के बराबर थी. पादुकोण की जीत तुक्का नहीं थी.

ठेठ 1972 में 17 साल की उम्र से ही लगातार राष्ट्रीय चैंपियन थे. मूलत: उडुपी के रहने वाले पादुकोण ने 1981 में स्वीडिश और डेनिश ओपन जीते. 1981 के विश्व कप सहित यह फेहरिस्त इतनी लंबी है कि इसने करीब एक दशक तक उन्हें टॉप 10 में बनाए रखा. भारत की पताका ऊंची फहराते वे अकेले शख्स थे. मगर इसके बाद ठीक यही उन्होंने बदला.

भारत में क्रिकेट था, शायद हॉकी भी. 'शटलकॉक' शाम का मनोरंजन थी, इससे ज्यादा कुछ नहीं. मगर जल्द ही बार्सिलोना 1992 में, जब ओलंपिक में बेडमिंटन का श्रीगणेश हुआ, हमारे खिलाड़ी यू. विमल कुमार ने मेडिकल की सीट छोड़ दी 'क्योंकि हम सब प्रकाश की तरह बनना चाहते थे.'

1994 में प्रकाश पादुकोण बैडमिंटन अकादमी आई. और सात साल बाद भारत का अगला ऑल इंग्लैंड चैंपियन पुलेला गोपीचंद. वंश परंपरा केवल इस तथ्य में नहीं थी कि उन्होंने अपने खेल को पादुकोण के मातहत सान पर चढ़ाया. गोपी कहते हैं, ''उन्होंने ऑल इंग्लैंड नहीं जीता होता, तो हम भारतीयों ने सोचा तक नहीं होता कि हमारे लिए यह मुमकिन है. इसने मेरे माता-पिता सरीखे अभिभावकों को अपने बच्चों को खेल में डालने के लिए प्रेरित किया.'' अब उस वसंत के बारे में सोचिए जो हमारे चारों ओर है, और उस बीज के बारे में भी जो 1980 में वेम्बली से निकला था.

इंडिया टुडे के पन्नों से 

अंक (अंग्रेजी): 30 जनवरी, 1989 
प्रकाश पादुकोण: चैंपियन की वापसी

भारतीय खिलाड़ियों की कमजोरी पर
● उन्हें अपना दमखम बढ़ाना होगा और अपने खेल की ताकत भी. जहां तक स्ट्रोक की बात है, हमें कोई हरा नहीं सकता. लेकिन स्ट्रोक होना ही काफी नहीं, हमें रफ्तार और दमखम चाहिए. रैली खत्म करने के लिए आपके पास अच्छा स्मैश होना होगा. लिम स्वी किंग सरीखा स्मैश भले न हों, पर अपनी बनाई ओपनिंग का फायदा उठाने लायक तो हो ही.

चैंपियन बनाने वाला मुख्य कारक
● आपके पास सब नहीं हो सकता: रफ्तार, स्ट्रोक, सटीक दूरी और ताकत. आपको इस या उस को अपने खेल का आधार बनाना होता है. परफेक्ट प्लेयर बनना बहुत मुश्किल है. शिखर पर जाने के लिए आपको चुनना पड़ता है. मैंने एक संयोजन चुना .—राज चेंगप्पा 

रैकेट की धमक

> प्रकाश पादुकोण ने 1980 में बैडमिंटन की सबसे बड़ी स्पर्धा ऑल इंग्लैंड जीती

> उस देश में जहां 'शटलकॉक' को कभी-कभार बस मनोरंज की तरह देखा जाता था, इसने ऐसी चिंगारी सुलगाई कि जो धीरे-धीरे जंगल की आग में बदल गई

> 1994 में प्रकाश पादुकोण बैडमिंटन अकादमी की स्थापना हुई

> प्रकाश ने पुलेला गोपीचंद के हुनर को सान पर चढ़ाया; उन्होंने 2001 में ऑल इंग्लैंड जीती

> अपने पूर्वज की तरह गोपी ने भी अकादमी बनाई

> साइना नेहवाल, पी.वी. सिंधु, किदांबी श्रीकांत, सात्विकसाइराज रैंकीरेड्डी, चिराग शेट्टी... अब तो भरमार है

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