
इन दिनों खिलाड़ियों के लिए अपनी भावनाएं खुलकर प्रदर्शित करना आम बात है—खुशी से उछलना, छाती पीटना, आंसू बहाना, या फिर एक दिखावटी आक्रामकता का प्रदर्शन करना. लेकिन 16 साल पहले एक युवा ऐसे मौके पर एकदम अलहदा नजर आया. चश्मा लगाए चेहरे पर ज़ेन संत जैसी आभा थी, जबकि दर्शक दीर्घा में बैठे भारतीय दर्शक व्यग्र हुए जा रहे थे.
आखिर होते क्यों नहीं! अभिनव बिंद्रा ने अभी-अभी भारत को पहला व्यक्तिगत ओलंपिक स्वर्ण दिलाया था. 2008 में आजाद देश के तौर पर 61वीं वर्षगांठ पर पहला एकल स्वर्ण. बिंद्रा 26 वर्ष के एक आम लड़के की तरह शिष्टाचार में लिपटे ऐसे लग रहे थे, मानों अभी-अभी किसी लाइब्रेरी से बाहर निकलकर आए हों.
लेकिन उनके सामने हर तरफ खुशी की भावनाओं का उफान आ चुका था. इसका असर बीजिंग के उपनगरीय इलाके में स्थित इस शूटिंग रेंज से कहीं बहुत आगे, भारतीय खेल प्रेमियों के दिलो-दिमाग पर पूरी तरह से छा चुका था. ऐसा लगा कि उन्होंने अपनी .177 कैलिबर वाली वाल्थर एलजी 300 राइफल से बस एक अचूक निशाना नहीं साधा बल्कि भारतीय एथलीटों की दबी महत्वाकांक्षाएं जगाने वाली एक मशाल जला दी.
उन्होंने जो अलख जगाया उसके बाद आने वालों की गिनती करें, और इसे केवल निशानेबाजों तक सीमित न रखें. कोई दोराय नहीं कि पूरी एक नई पौध सामने है और मनु भाकर उनमें सबसे ज्यादा ख्यात हैं. लेकिन आप उन सभी एथलीटों को गिनें जो ओलंपिक स्वर्ण के लिए जान लड़ा देते हैं. कौन नहीं जानता कि उन्होंने अपने लक्ष्य पर कैसे नजरें गड़ा रखी हैं: सिंधु, चानू, फोगाट, सतचिस... और नीरज चोपड़ा इन सभी ने जीत के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया.
निशानेबाजी का नशा तो इस कदर छाया है, मानों किसी आयुध कारखाने में लगी आग फैल रही हो. इसके अभ्यास स्थल बहुत तेजी से बढ़े हैं, कहीं स्कूलों तो कहीं गांवों तक में बेसिक शूटिंग रेंज बन गई हैं. यहां तक, बहुत कम दर्शकों की पहुंच वाले एयर राइफल ने भी हजारों प्रतिभागियों को आकर्षित किया.
हालांकि बिंद्रा के पास सभी आला दर्जे की सुविधाएं और विदेशी कोच थे. लेकिन इससे भी एक रूपरेखा बनी जिसने सरकार को प्रतिभावान खिलाड़ियों के लिए विदेश में कोचिंग और वैश्विक स्तर पर खेल को जानने-समझने की सुविधा प्रदान करने की प्रेरणा दी. इस तरह एक ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े चोपड़ा ने वह उपलब्धि दोहराई.
बिंद्रा की असली पूंजी तपस्वी जैसा संयम है जिसमें तेज छिपा है. जैसा कि वे कहते हैं, ''मेरे बाहरी शांत स्वभाव के पीछे एक कड़ा संघर्ष है. जीत के लिए आपके अंदर एक आग, एक ललक होनी चाहिए.'' बीजिंग में उस दिन जो कुछ भी दिखा, वह इसी संघर्ष से निखरी आभा थी.
क्या आप जानते हैं?
अभिनव बिंद्रा अपनी मां की तरफ से महान सिख सेनापति हरि सिंह नलवा की छठी पीढ़ी के वारिसों में से एक हैं.
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भाले की नोक
● जेवलिन थ्रो के दिग्गज नीरज चोपड़ा ने भी बिंद्रा के नक्शेकदम पर चलते हुए टोक्यो ओलंपिक 2020 (2021 में आयोजित) में भारत का पहला ट्रैक एंड फील्ड का व्यक्तिगत स्वर्ण पदक जीता. उनके मामले में एक बेहतर बात यह रही वे चार साल बाद पेरिस ओलंपिक का रजत पदक भी जीते.
नीरज कई अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक जीत चुके हैं. वैसे अभी 90 मीटर का निशान छूना उनके लिए बाकी है, हालांकि वे महज 26 साल के हैं यानी उनका सर्वश्रेष्ठ समय बाकी है.

एक साथ सधे कई निशाने
> बिंद्रा से पहले राज्यवर्धन राठौड़ और जसपाल राणा जैसे खिलाड़ी इस खेल में अपना दमखम दिखा चुके थे. लेकिन बिंद्रा के बाद शूटिंग ने सही मायने में मुख्यधारा के खेलों में जगह बनाई.
> पहले हमेशा इसे एक खास वर्ग का खेल माना जाता था, लेकिन 2008 के बीजिंग ओलंपिक में बिंद्रा के ऐतिहासिक स्वर्ण पदक ने बड़ी संख्या में नई पीढ़ी को यह खेल चुनने के लिए प्रेरित किया.
> सरकारी पैसा मिलना बढ़ा, निजी क्षेत्र की भी रुचि जगी. कई शूटिंग रेंज अस्तित्व में आईं.
> बिंद्रा ने मनु भाकर, सरबजोत सिंह और स्वप्निल कुसाले जैसे भविष्य के पदक विजेताओं को प्रेरित किया.
21 निशानेबाज पेरिस ओलंपिक 2024 में भारतीय दल में रिकॉर्ड आकार—चीन के साथ साझे तौर पर सबसे बड़ा—एकदम उसी तरह का था जैसे 2008 में बीजिंग पहुंचा था. लंदन 2012 में इनकी संख्या 11 थी; और रियो 2016 में 15 शूटर्स शामिल थे.