—अरुण पुरी
महज पांच महीने पहले भारत के लिए बांग्लादेश अपनी विदेश नीति की सफलता की मिसाल था. अगस्त में हालात बदल गए. जन विद्रोह ने शेख हसीना के 15 साल के राज का खात्मा कर दिया. तबसे वह देश भारत के लिए बड़ा सिरदर्द बन गया है. छात्रों की अगुआई में हुए तख्तापलट में कट्टर तत्वों का बोलबाला नहीं था.
उसके नेता सबको साथ लेकर चलने वाले लोकतंत्र में यकीन जताते हैं. अभी भी वे अंतरिम सरकार को सलाह देते हैं और ढाका की सड़कों पर ट्रैफिक संचालन में हाथ बंटाते हैं. पर इसमें दो राय नहीं कि इस बगावत में कट्टरपंथी तत्वों की घुसपैठ हो गई और उसका रुख शुरू से ही भारत विरोधी हो गया. इस क्रांति के गर्भ में इस्लामवादियों के कब्जे का खतरा छिपा है.
परेशानी का पहला संकेत यह था कि सड़कों पर उमड़ी हिंसक भीड़ ने सिर्फ सत्तारूढ़ अवामी लीग के प्रतीकों और संस्थानों को ही निशाना नहीं बनाया. हिंदुओं के घरों और संपत्तियों पर हमले की खबरें शुरू से ही आ रही थीं. बांग्लादेश में अल्पसंख्यक अधिकार समूह हिंदू बौद्ध ईसाई एकता परिषद (एचबीसीयूसी) ने 5 से 20 अगस्त के बीच 2,010 सांप्रदायिक घटनाओं का जिक्र किया है, जिसमें नौ हत्याएं, पूजा स्थलों पर 69 हमले और महिलाओं के खिलाफ हिंसा की चार वारदातें शामिल हैं.
अधिकांश वारदातें 1.3 करोड़ की आबादी वाले हिंदू समुदाय के खिलाफ हुईं, जो बांग्लादेश की आबादी का 7.95 फीसद है. इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली नई अंतरिम सरकार से अपनी चिंता साझा की. मोदी उनकी नियुक्ति पर उन्हें बधाई देने वाले पहले वैश्विक नेता भी थे.
यूनुस सरकार हमलों की इतनी भारी संख्या का खंडन करती है. पिछले हफ्ते उसने 88 दर्ज मामलों और 70 गिरफ्तारियों का हवाला दिया. सचाई जो भी हो, इसमें कोई संदेह नहीं कि बांग्लादेश में स्थिति विस्फोटक बनी हुई है और वहां के हिंदू डरे हुए हैं. इसकी मिसाल इस्कॉन के पूर्व संन्यासी चिन्मय कृष्णदास के विरुद्ध राजद्रोह का आरोप भी है, जो अल्पसंख्यक सुरक्षा के लिए अभियान चला रहे थे.
इन हालात की जिम्मेदार हसीना थीं, जो एक वक्त समाधान थीं पर बाद में समस्या बन गईं. धर्मनिरपेक्ष और यकीनन भारत समर्थक, अवामी लीग की नेता पिछले कुछ वर्षों में लगातार दमनकारी और निरंकुश होती गईं, जो उनके लिए विनाशकारी साबित हुआ. उनकी मेहरबानी यूं तो सभी विरोधियों के खिलाफ एक समान थी, मगर अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी, पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) पर उनकी खास नजर थी, जिनको उन्होंने जेल में भी डाला.
अवामी और बीएनपी के बीच कटुता के बीज 1975 में बांग्लादेश के जनक शेख मुजीबुर रहमान की हत्या के वक्त पड़े. मुजीब की बेटी हसीना को भाषाई स्वायत्तता और पाकिस्तान विरोधी रुख विरासत में मिली. भाषाई स्वायत्तता ही 1971 में बांग्लादेश निर्माण का आधार बनी थी. उधर, बीएनपी इस्लामवादी राजनीति के और करीब चली गई, जिसका मतलब था भारत से दूरी. खालिदा ने बतौर प्रधानमंत्री अपने दूसरे कार्यकाल 2001-06 में कट्टर तथा पाकिस्तान समर्थक जमात-ए-इस्लामी के साथ गठबंधन किया और भारत के शत्रुओं की ओर झुकाव बढ़ाया. उन्होंने हमारे पूर्वोत्तर के बागी गुटों को भी पनाह दी.
लिहाजा, नई दिल्ली को हसीना का भरपूर समर्थन करने में समझदारी दिखी. हालांकि, उसने हसीना के लोकतांत्रिक और मानवाधिकार उल्लंघनों के खिलाफ सतर्कता न दिखाकर गलती की. यह अब और भी साफ हो गया है क्योंकि बीमार खालिदा के 59 वर्षीय बेटे तारिक रहमान लंदन में अपने निर्वासन से लौटने वाले हैं. बीएनपी के कार्यवाहक अध्यक्ष को तख्तापलट और 'भारत भगाओ’ अभियान का गुमनाम सूत्रधार कहा जाता है. नई सरकार ने जमात पर हसीना के प्रतिबंध को भी हटा दिया है. छात्र नेता अपनी खुद की पार्टी बनाने पर विचार कर रहे हैं; कई के कट्टरपंथियों से संबंध की बात कही जाती है.
इस हफ्ते की आवरण कथा ग्राउंड जीरो से है. विशेष संवाददाता अर्कमय दत्ता मजूमदार ने चटगांव के बाहरी इलाके में इस्कॉन के 21 एकड़ के पुंडरीक धाम जैसे दूर-दराज के स्थानों का दौरा किया और ढाका की भारत विरोधी पोस्टरों से पटी दीवारों का जायजा लिया. हसीना का खुलकर साथ देने की वजह से भारत खलनायक बना गया है. यह अवांछित मोड़ उस वक्त आया, जब भारत बांग्लादेश के साथ मुक्त व्यापार समझौता करने वाला था. 2017 से द्विपक्षीय व्यापार लगभग दोगुना हो गया, जो 14 अरब डॉलर पर पहुंच गया, जिसमें 11 अरब डॉलर से अधिक भारत का निर्यात था.
बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था में उछाल बेमिसाल थी. वह 2021 तक भारत और पाकिस्तान के प्रति व्यक्ति जीडीपी को पार कर गई थी. गरीबी 1971 में 80 फीसद से घटकर 13 फीसद से कम हो गई थी और 2024 में संयुक्त राष्ट्र की सूची में न्यूनतम विकसित देश के दर्जे से ऊपर आने वाला था. अलबत्ता, कोविड-19 ने उसकी निर्यात-उन्मुख अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डाला.
हालात सुधर ही रहे थे कि देश कट्टरपंथी राजनीति की चपेट में आ गया. इस बीच, महंगाई और बेरोजगारी लगातार बढ़ती रही, जो कोविड के बाद अभिशाप बन गई है. दरअसल, हसीना का 1971 के 'स्वतंत्रता सेनानियों’ के लिए विवादास्पद 30 फीसद नौकरी का आरक्षण आखिरी कील साबित हुआ. जब तक उन्होंने बढ़ते विरोध के चलते उसे वापस लिया, आर्थिक हालात सियासी रूप ले चुके थे.
मौके से भेजी गई रिपोर्ट के अलावा ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा ने व्यापक रणनीतिक तस्वीर के सक्रिय पहलुओं को जोड़ा है. यह ऐसी धुरी बन सकता है जिस पर दक्षिण एशिया का निकट भविष्य निर्भर करेगा. जिनके गहरे निहित स्वार्थ भारत से मेल नहीं खाते, उनमें पाकिस्तान है, जिसमें 'विदग्ध पितृ-भाव’ हिलोरे मार रहा है; अमेरिका है, जिसके राज परिवर्तन विशेषज्ञ अगस्त के तख्तापलट से पहले ही मौजूद थे; और चीन है, जो हमेशा भारत विरोध को सहर्ष हवा देता है.
अस्थिर बांग्लादेश में इस्लामी कट्टरपंथ का उदय भारत के लिए चिंता का विषय है और बेहद सतर्क कूटनीतिक पहल की जरूरत है. वह न तो तलवार भांज सकता है, न ही आंखें मूंद सकता है. वीजा और खाद्यान्न निर्यात भारत को कुछ बढ़त देते हैं, लेकिन ज्यादा दबाव डालने से स्थिति और खराब हो सकती है. भारत को अपने संकटग्रस्त पड़ोसी के साथ सतर्कता और सावधानी से पेश आना होगा.
— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह)