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बिहार : छोटे चाय दुकानदारों के लिए कैसे वरदान बन रही रोजाद्दीन की सस्ती 'फिल्टर कॉफी' मशीन?

फिल्टर कॉफी की असली मशीन 15-20 हजार रुपए में आती है. उसके लिए बिजली की भी जरूरत होती है. अनपढ़ रोजाद्दीन उर्फ जेपी उस्ताद की बनाई मशीन महज 2,300 रुपये में आती है और उसमें कोई बिजली का झमेला भी नहीं

कॉफी बनाते हुए रोजाद्दीन
कॉफी बनाते हुए रोजाद्दीन
अपडेटेड 2 जनवरी , 2025

चंपारण के किसी शहर, कस्बे या बाजार में जाएं, आपको चाय दुकानों पर एक खास चीज नजर आएगी. वह है एक प्रेशर कुकर, जिसकी सेफ्टीवॉल वाली जगह में एक पीतल की पाइप लगी होती है. चाय वाले कुकर गर्म कर उस पानी से दनादन फिल्टर कॉफी बनाकर बेचते हैं.

ऐसा ही एक जुगाड़ मोतिहारी शहर के मधुबन छावनी चौक पर दिखा, जहां एक गुमटीनुमा स्टॉल पर राजेश कुमार ग्राहकों के लिए फिल्टर कॉफी बनाते दिखे. एक जग में उन्होंने कॉफी का घोल तैयार कर रखा है, फिर सीटी देते प्रेशर कुकर से निकली पीतल की पाइप को उस जग में डालकर उससे कॉफी में झाग तैयार करते हैं.

उस पाइप के बगल में एक हैंडलनुमा चीज बनी है, जिसे ऊपर-नीचे करने पर प्रेशर कम-ज्यादा होता है. फिर वे ग्राहकों को वह फिल्टर कॉफी पिलाते हैं. राजेश कहते हैं, "फिल्टर कॉफी की असली मशीन 15-20 हजार रुपए में आती है. उसके लिए बिजली की भी जरूरत होती है. यह मशीन मैंने 2,300 रुपए में ली है. 15 साल से इस्तेमाल कर रहा हूं, आजतक काम दे रही है. गैस से चलती है, और क्या चाहिए. इसे हमारे शहर के जेपी उस्ताद ने बनाया है."

काफी ढूंढ़ने पर जेपी उस्ताद की दुकान मिलती है. वे उसके बाहर लोहे की चौकोर रॉड को काटते नजर आते हैं. मैली बनियान और अंगोछे में वे किसी साधारण कामगार जैसे दिखते हैं. उनकी दुकान पर जरूर लिखा है कि उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है और वे ही कुकर से कॉफी मशीन बनाते हैं. मगर दुकान कहने भर को है, वहां कबाड़ भरा है. बैठने के लिए दो टूटी कुर्सियां भर हैं. जेपी उस्ताद का असली नाम मोहम्मद रोजाद्दीन है.

उन्हें वेल्डिंग सिखाने वाले उस्ताद ने उनका नाम जेपी उस्ताद रख दिया था. वे बताते हैं, ''शादी-ब्याह में फिल्टर कॉफी की मशीन देखता था, मगर चाय वालों के पास वह मशीन नहीं दिखती. चाय वाले कहते थे, काफी महंगी मशीन है. बिजली भी लगती है. फिर हम 2009 में प्रेशर कुकर में पाइप की वेल्डिंग करके एक चाय वाले को दिए. वह काम करने लगा." 

इसका आइडिया कैसे आया, पूछने पर वे बताते हैं, ''कुकर भी सीटी मारता है, तो हमको लगा इससे काम बन जाएगा. वेल्डिंग का काम तो हम करते ही थे. बन गया. उसके बाद चाय वाले लगातार मांग करने लगे. हम बना-बनाकर देने लगे. वे कुकर लाकर देते, हम पाइप और हैंडल लगाकर उनको दे देते. हम आठ सौ रुपए लेते थे, जिसमें पांच सौ का सामान, तीन सौ मजदूरी. कुकर उनका होता था. अभी तक 2,000 से अधिक मशीन बना चुके हैं. पिछले साल सौ मशीन बनाए. पूरे चंपारण में और मुजफ्फरपुर तक चाय वालों को मशीन बनाकर दिए हैं."

फिर उनके काम को राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान ने पहचाना, उन्हें पेटेंट दिलाया. पुरस्कृत किया. राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने भी पुरस्कार दिया. मगर इन सबसे भी उनकी जिंदगी बदल नहीं पाई. वे आज भी एक सामान्य वेल्डर हैं. वे कहते हैं, "एक मशीन का तीन सौ रुपए मिलता है, इससे क्या होगा." वे खुद अशिक्षित थे, उनके बच्चे भी ज्यादा पढ़ नहीं पाए. वे मजदूरों वाला काम ही करते हैं, भले उनके नाम एक पेटेंट है और उनकी मशीन हजारों चाय वालों के लिए वरदान बन गई है.

नवाचार

प्रेशर कुकर के सेफ्टी वॉल की जगह पर वे पीतल की एक पाइप लगाते हैं, जो अर्द्धगोलाकार होती है. उसी जगह एक हैंडल लगाते हैं, जिससे प्रेशर को कंट्रोल किया जा सके. इतने से ही उनकी देसी फिल्टर कॉफी मशीन बन जाती है.

पुरस्कार

राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान का राष्ट्रीय पुरस्कार, पेटेंट भी मिला.

सफलता का मंत्र

कोई नया काम करने को मिले तो करता हूं, इसी वजह से मुझसे नई खोज हो गई.

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