scorecardresearch

बिहार : चंपारण के विवेक डीजल के बजाय गोबर से कैसे चला रहे अपना ट्रैक्टर?

मैकेनिकल इंजीनियर विवेक बताते हैं कि यह ईंधन उन्हें काफी सस्ता पड़ता है. हर तरह की कीमत जोड़ने के बाद भी बायो-सीएनजी 12 रुपये किलो पड़ता है और वे एक किलो बायो-सीएनजी से 15 किमी तक का सफर करते हैं

विवेक प्रियदर्शी, 38 साल, प. चंपारण
विवेक प्रियदर्शी, 38 साल, प. चंपारण
अपडेटेड 2 जनवरी , 2025

आज तक उनके घर में गैस सिलेंडर का कनेक्शन नहीं लिया गया. 1968 से ही उनके घर में बायोगैस प्लांट काम करता आया था. बीसवीं सदी के आखिरी दशक से बिजली भी बायोगैस से ही तैयार होती आ रही है. अभी भी उनका भरा-पूरा खानदान सोलर और बायोगैस से अपनी ईंधन और बिजली की जरूरतें पूरी करता है.

उसी परिवार के एक शख्स ने परंपरा को एक कदम आगे बढ़ाया है, अब वे अपने घर की गाड़ियां भी बायोगैस से चला रहे हैं. ठीक उसी तरह जैसे सीएनजी गाड़ियां चलती हैं. उन्होंने बाकायदा अपने घर में बायोगैस की बॉटलिंग शुरू की है और उस बायोगैस से उनके घर का ट्रैक्टर, जीप, जिप्सी और जेसीबी तक चलाए जा रहे हैं.

ये हैं पश्चिमी चंपारण के नरकटियागंज के बर्निहार गांव के विवेक प्रियदर्शी. मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बीटेक विवेक ने अपना अप्रेंटिशिप आईआईटी, दिल्ली में किया और वहां खास तौर पर बायोगैस बॉटलिंग का प्रशिक्षण लिया. ऐसा इसलिए क्योंकि उनके घर में बायोगैस के उत्पादन की लंबी परंपरा रही है. छोटे अंतराल के लिए एक नौकरी करने के बाद अपने इस प्रयोग को आजमाने के लिए विवेक 2012 में अपने गांव बर्निहार लौट आए.

बायोगैस प्लांट

विवेक कहते हैं, ''मैंने बचपन से देखा है कि बिहार के किसानों पर सबसे बड़ा बोझ डीजल का होता है. उन्हें सिंचाई से लेकर जुताई तक महंगे ऑयल का इस्तेमाल करना पड़ता है. मैं इसका विकल्प तलाश रहा था. इसलिए सबसे पहले मैंने अपने ट्रैक्टर के लिए बायोगैस बॉटलिंग की कोशिश की. 2012-13 में मेरा यह प्रयोग सफल रहा. इसके बाद अपने रोजगार के लिए मैंने दूसरी गाड़ियों में बायो-सीएनजी का इस्तेमाल शुरू किया. 2016 तक मेरे घर में रोजाना 50 किलो बायो गैस का उत्पादन होने लगा था. इससे हम हर तरह की जरूरत को पूरा करते थे."

विवेक के घर के पास वाल्मीकि टाइगर रिजर्व है. वहां जंगल सफारी के लिए जिप्सी और जीप की जरूरत रहती है. 2018 में उन्होंने वहां एक जीप और एक जिप्सी लगा दी, जो पर्यटकों को टाइगर रिजर्व घुमाती है. सस्ते और ईको फ्रेंड्ली बायो फ्यूल की मदद से वे जंगल के पर्यावरण को भी न के बराबर नुक्सान पहुंचाते हैं. उनकी एक क्रेन भी बायो-सीएनजी से चलती है.

विवेक बताते हैं, "यह ईंधन मुझे काफी सस्ता पड़ता है. हर तरह की कीमत जोड़ने के बाद भी बायो-सीएनजी 12 रुपए किलो पड़ता है और मैं एक किलो बायो-सीएनजी से 15 किमी सफर करता हूं. जबकि डीजल की कीमत हमारे यहां 95 रुपए लीटर के आसपास रहती है, इससे माइलेज भी 12 किमी प्रति लीटर का ही मिलता है. यानी मेरा खर्च लगभग सात गुना कम हो गया. खेती में भी इसी तरह हमारा खर्च कम हो गया है."

विवेक ही नहीं, उनके तीन चाचाओं का परिवार भी लगभग पूरी तरह बायोगैस पर निर्भर है. उनके दादा राजाराम पांडेय ने 1968 में उनके यहां बायोगैस की शुरुआत की थी और विवेक के पिता विजय कुमार पांडेय ने इसे आगे बढ़ाया. अभी उनके पूरे खानदान में चार बायोगैस प्लांट चल रहे हैं. विवेक गांव के लोगों से एक रुपए किलो की दर से गोबर भी खरीदते हैं.

उनकी इस सफलता से दो अन्य लोगों ने भी बायो-सीएनजी का प्लांट शुरू किया है. एक मध्य प्रदेश के डेयरी फार्मर देवेंद्र परमार हैं, जो अपना पिकप और ट्रैक्टर अपने यहां तैयार बायो-सीएनजी से चलाते हैं. दूसरे बिहार के फतुहा के एक चिकेन फार्मर हैं, जो मुर्गी के बीट से बायो-सीएनजी तैयार कर ईंधन और वाहन चलाते हैं. दोनों को टेक्निकल इनपुट विवेक ने ही दिया है.

नवाचार

विवेक ने आईआईटी, दिल्ली से बायो-सीएनजी की बॉटलिंग की ट्रेनिंग की थी. जिस तरह सीएनजी सिलेंडर की बॉटलिंग होती है, वैसे ही उन्होंने अपने यहां तैयार बायो गैस की बॉटलिंग की है. इसके अलावा गाड़ियों में किट लगाकर उन्हें बायो-सीएनजी के हिसाब से कन्वर्ट किया.

सफलता का मंत्र

''हर नई खोज को आगे बढ़ाना चाहिए, नए-नए रास्ते तलाशने चाहिए."

पुरस्कार

बिहार सरकार के पर्यटन विभाग से पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अवार्ड.

Advertisement
Advertisement