
उम्मीद तो यही थी कि सत्तारूढ़ महायुति और विपक्षी महा विकास अघाड़ी (एमवीए) के बीच महाभारत होनी है. लोकसभा चुनाव में एमवीए को महाराष्ट्र की कुल 48 सीटों में से 31 पर जीत मिली थी, इसलिए विपक्ष को भारी बढ़त की व्यापक संभावनाएं थीं. लगभग तय था कि मुकाबला कांटे का होगा.
हालांकि, नतीजे आए तो तोहफा महायुति के घटक दलों—भाजपा, मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना और उप-मुख्यमंत्री अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा)—के हाथ लगा. महायुति ने महाराष्ट्र विधानसभा की कुल 288 सीटों में 230 सीटें जीतकर लगभग सफाया कर दिया.
भाजपा को 149 सीटों पर चुनाव लड़कर 132 सीटें, शिवसेना को 81 में से 57 और राकांपा को 59 में से 41 सीटें हासिल हुईं. पांच अन्य छोटे दलों के विधायकों का समर्थन भी भाजपा को मिला है. एमवीए सिर्फ 49 सीटों के साथ जख्म सहलाता रह गया. उसमें शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) को 95 सीटों पर लड़कर सिर्फ 20 सीटें, कांग्रेस को 101 में से 16 सीटें, राकांपा (शरदचंद्र पवार) को 86 में से 10 सीटें और छोटी पार्टियों को चार सीटें ही मिल पाईं. बड़े-बड़े दिग्गज खेत रहे.
कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, विधायक दल के नेता बालासाहेब थोराट और पूर्व मंत्री यशोमति ठाकुर और राकांपा (एससीपी) के राजेश टोपे जैसों को मुंह की खानी पड़ी. राज्य के इतिहास में इस सबसे बड़े जनादेश का मतलब है कि पहली बार विधानसभा में कोई प्रतिपक्ष का नेता नहीं हो सकता है. कोई भी गैर महायुति पार्टी सदन की कुल सदस्य संख्या का 10 फीसद या 29 सीटें हासिल नहीं कर पाई है.
लेकिन जीत का तात्कालिक जोश जैसे ही घटा, भारी-भरकम जनादेश का भार महसूस होने लगा. इस जनादेश ने ने बेशक 132 सीटों और 89 प्रतिशत की स्ट्राइक रेट के साथ भाजपा को राज्य की प्रमुख ताकत बना दिया है. उसके पास बहुमत से महज 13 सीटें कम हैं. पार्टी का प्रदर्शन सभी राजनैतिक पार्टियों से शानदार ही नहीं था, बल्कि उसने राज्य में अपने रिकॉर्ड को भी पीछे छोड़ दिया. भाजपा ऐसी स्थिति में पहुंच गई कि वह महायुति के किसी एक घटक के साथ सरकार बना सकती है. लेकिन उसने महायुति के घटकों के साथ रहना पसंद किया.
हालांकि मजबूत जनादेश ने एक प्रश्न का जवाब दे दिया है कि मुख्यमंत्री भाजपा का होगा. एकनाथ शिंदे को पिछले कार्यकाल में सर्वेसर्वा होने के बाद इस बार कमतर भूमिका निभाने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. उनकी पार्टी के लोगों ने जरूर बिहार पैटर्न की ओर इशारा किया था जहां भाजपा ने सीएम का पद छोटे सहयोगी को दिया था. आखिरकार शिंदे भाजपा को मिले बेहतर जनादेश के आगे झुके. अब पूर्व मुख्यमंत्री, भाजपा के लिए शानदार जनादेश के आगे सिर नवा देते और दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की अपनी लालसा त्याग देते. एक भाजपा नेता ने दो-टूक कहा, "भाजपा अब संख्या के लिहाज से ऊपर है, शिंदे को दोयम दर्जे की भूमिका के लिए आदी हो जाना चाहिए...सत्ता का संतुलन अब हमारे पक्ष में झुक चुका है."
भाजपा के अंदर भी देवेंद्र फडणवीस के पक्ष में बहुमत है जिन्होंने पार्टी की व्यूहरचना की. नागपुर और दिल्ली के बीच प्रभावी मेलमिलाप कराने का श्रेय भी उन्हें जाता है क्योंकि वे पारंपरिक शत्रु राकांपा के साथ जाने के फैसले से नाराज थे. वे पहले भी मुख्यमंत्री रह चुके हैं, 2014 में पूरा कार्यकाल और 2019 में पांच दिन के लिए. गठबंधन धर्म निभाने के फेर में वे तीसरे कार्यकाल से वंचित रहे क्योंकि शिंदे ने पार्टी छोड़कर उद्धव सरकार गिरा दी और पदले में भाजपा से मुख्यमंत्री पद ले लिया. हालांकि यह लिखे जाने तक मुख्यमंत्री पद पर दिल्ली में मंथन चल रहा था.
नए सत्ता समीकरण
मुख्यमंत्री पद अकेला मुद्दा नहीं है जिसे भाजपा को हल करना है. पार्टी को सत्ता साझा करने में गृह, वित्त, शहरी विकास और ग्रामीण विकास जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का उचित बंटवारा भी करना होगा. शिंदे और अजित पवार दोनों के हितों का ध्यान रखना होगा. शिंदे रणनीतिक रूप से भले ही पीछे हट गए हैं लेकिन वे खेल में बने हुए हैं.
बतौर मुख्यमंत्री ढाई साल के अपने कार्यकाल में उन्होंने भाजपा के पीछे से सरकार चलाने के प्रयासों को सिरे नहीं चढ़ने दिया. उन्होंने अपनी हैसियत दिखाई, चुपचाप पीछे रहकर आदेश पालन से इनकार किया और नीतियों तथा अधिकारियों के तबादलों-तैनातियों में भी अपने पांव अड़ा दिए. नतीजे बताते हैं कि वे ठाकरे फैमिली की छाया से बाहर निकल चुके हैं.
वैसे तो लाड़की बहिन योजना लागू करने का विचार मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार से उधार लिया गया, लेकिन इसका श्रेय लेने में शिंदे और अजित पवार में से कोई भी पीछे नहीं रहा. शिंदे ने इसे लागू करने का श्रेय लिया, तो अजित भी बजट में इसकी घोषणा के लिए. शिंदे की मराठा पृष्ठभूमि और साख का मतलब है कि वे आंदोलनरत मराठाओं से बात कर सकते हैं.
उद्धव के विपरीत शिंदे ने खुद को जनता का आदमी के तौर पर स्थापित किया. फिर, उनकी ऑटोरिक्शा वाला की पृष्ठभूमि भी खुद को सीएम अर्थात 'कॉमन मैन' चीफ मिनिस्टर नहीं, की तरह पेश करने में काम आती है. एक तरफ जहां उद्धव अपने निजी आवास मातोश्री या सरकारी आवास वर्षा से ज्यादा बाहर नहीं निकलते थे, वहीं शिंदे ने मुख्यमंत्री के बंगले को आम आदमी के लिए खोल दिया.
इसके बावजूद पार्टी शिंदे को इससे आगे जाने देने के मूड में नहीं है. वे पुरानी शिवसेना की विचारधारा के उत्तराधिकारी होने का दावा करते हैं; यानी एक हिंदुत्ववादी ताकत, वे महाराष्ट्र में एक जैसा राजनैतिक स्थान बनाने के लिए मुकाबला करेंगे. शिंदे का नए हिंदू हृदय सम्राट या मराठी हृदय सम्राट के रूप में पनपने से भाजपा का जनाधार चला जाएगा क्योंकि वह अब भी एक बड़े आंकड़े की तलाश में है. एक वरिष्ठ पदाधिकारी कहते हैं, भाजपा "भाजपा एक उद्धव को हटाकर उनके जैसा दूसरा नहीं लाएगी."
अजित पवार एक और शक्ति का केंद्र बने हुए हैं. उन्हें गठजोड़ में पूरे समय स्टेपनी जैसी भूमिका निभाने के बाद राज्य में तीसरे सत्ता-केंद्र के तौर पर उभरे हैं. राकांपा ने जब चार लोकसभा सीटों पर प्रत्याशी उतारे और सिर्फ एक पर जीत हासिल की तो अजित को एकदम चुका हुआ मान लिया गया. यहां तक, उनकी पत्नी सुनेत्रा को भी बारामती में चचेरी बहन सुप्रिया के हाथों हार का सामना करना पड़ा. किसी को उम्मीद नहीं थी कि वे चाचा शरद पवार पर भारी पड़ेंगे.
लोकसभा में हार से आहत राकांपा नेता ने अपनी छवि बदलने के लिए डिजाइन बॉक्स्ड के प्रमुख नरेश अरोड़ा से संपर्क साधा था, जिसके बाद उनके पहनावे के साथ-साथ व्यवहार में भी बड़ा बदलाव नजर आया. उनके कपड़ों की अलमारी में अचानक गुलाबी रंग की भरमार हो गई, और चेहरा भी पहले की तरह गंभीरता ओढ़े रहने की जगह मुस्कान बिखेरता नजर आने लगा. भाजपा-शिवसेना के वोट पूरी तरह उनके प्रत्याशियों के पक्ष में हस्तांतरित होने से तस्वीर बदल गई. उन्होंने शरद पवार पर सीधे हमला करने से परहेज किया और माना कि चचेरी बहन सुप्रिया के खिलाफ पत्नी सुनेत्रा को मैदान में उतारना एक गलती थी.
उन्होंने उस समय कहा था, "राजनीति घरों में नहीं घुसनी चाहिए." भाजपा को उनके लिए कुछ अच्छे मंत्रालय रखने चाहिए, उनकी वफादारी पर संदेह नहीं है, वैसे भी एनसीपी में एका दूर की कौड़ी लगती है क्योंकि शरद पवार ने अजित के खिलाफ बारामती से उनके भतीजे युगेंद्र को उतारा था.
वादे और जोखिम
राजनैतिक चुनौतियों से इतर नई सरकार को अपने चुनावी वादों को पूरा करने के बोझ से भी दो-चार होना पड़ेगा. 46,000 करोड़ रुपए की लाड़की बहिन योजना महायुति की जीत का इकलौता सबसे बड़ा कारण रहा. इसके तहत गरीब महिलाओं को हर महीने 1,500 रुपए दिए जाते हैं. महायुति का दावा है कि इससे राज्य की लगभग 2.3 करोड़ महिलाएं लाभान्वित हुईं हैं और चुनाव जीतने पर उसे बढ़ाकर 2,100 रुपए करने का वादा किया गया. इससे महिलाओं ने बढ़-चढ़कर मतदान किया और कम से कम 15 सीटों पर उनका मतदान प्रतिशत पुरुषों से ज्यादा रहा.
इसके अलावा एप्रेंटिसशिप भत्ता, तीर्थस्थलों की मुफ्त यात्रा और मुंबई में प्रवेश के पांच नाकों पर लगाए गए टोल में छूट जैसी अन्य योजनाओं ने इस रणनीति में दम भरा. नमो शेतकरी महासम्मान निधि योजना के तहत किसानों के लिए वार्षिक भुगतान को 12,000 रुपए से बढ़ाकर 15,000 रुपए करने, कृषि संकट को दूर करने के लिए कृषि ऋण माफी का वादा भी किया गया. इन रियायतों का मकसद किसानों के गुस्से को कुछ हद तक कम करना था, खासकर मराठवाड़ा और विदर्भ के सोयाबीन और कपास की खेती करने वाले किसान अपनी उपज के लिए कम दरों से परेशान थे.
मतदाताओं को खुश करने के लिए जो कल्याणाकारी घोषणाएं की गई थीं, वही अब सरकार की मुश्किलें बढ़ा सकती हैं. चुनाव बाद वादों को पूरा करने का समय आ गया है और लाडकी बहिन तथा किसानों की योजनाओं पर भुगतान क्रमश: 600 रुपए और 3,000 रुपए बढ़ाना होगा. कृषि ऋण माफी से भी राज्य के खजाने पर अतिरिक्त बोझ पड़ने वाला है. वह भी तब जब महाराष्ट्र पर कर्ज का बोझ पहले से ही सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 18 फीसद है और उसे 2029 तक कर्ज और ब्याज भुगतान पर लगभग 4.6 लाख करोड़ रुपए का बोझ वहन करना है. कल्याणकारी योजनाओं को देश की वित्तीय राजधानी के विकास और वृद्धि की कीमत पर नहीं चलाया जा सकता. यह नई सरकार के लिए चुनौती का सबब बन सकता है.
अन्य चुनौतियां
एक और क्षेत्र जहां महायुति के भीतर-बाहर प्रतिस्पर्धी महत्वाकांक्षाएं उभरकर सामने आने के आसार हैं, वह है बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी), जिसके चुनाव काफी समय से लंबित हैं. बीएमसी पर जिसका कब्जा होता, उसे ही मुंबई पर राज करने वाला माना जाता है. खासे समृद्ध माने जाने वाले इस निगम पर परंपरागत तौर पर शिवसेना का कब्जा रहा है और उसने उसे काफी फायदा भी पहुंचाया है. माना जाता है कि शिवसेना के दुर्जेय संगठनात्मक तंत्र को इसी ने मजबूती प्रदान की. एक पेशेवर नौकरशाह की मानें तो, "बीएमसी पर नियंत्रण के लिए भाजपा और शिंदे के बीच भारी खींचतान नजर आ सकती है."
फिर, मराठों का मुद्दा अभी अनसुलझा ही है, भले ही इस बार उनका मोहभंग विरोधी वोट के रूप में सामने नहीं आया हो. इस साल गर्मियों में ओबीसी आरक्षण में मराठों की हिस्सेदारी के लिए मनोज जरांगे-पाटील के नेतृत्व वाले आंदोलन की वजह से मराठवाड़ा क्षेत्र की आठ में से सात सीटें एमवीए के खाते में चली गईं. एक ओर जहां यह आंदोलन आम चुनाव में कारगर रहा, जो दो ध्रुवीय था, वहीं विधानसभा चुनाव में कई मराठा उम्मीदवारों की वजह से मतदाता भ्रमित हो गए. हालांकि जरांगे-पाटील ने मराठों के "दमनकारियों"—जिसका मतलब कई लोगों ने भाजपा लगाया—को हराने का आह्वान किया, लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि समुदाय को किसे वोट देना चाहिए. इसकी वजह से टैक्टिकल वोटिंग की संभावना खत्म हो गई.
मराठा वर्चस्व के विरोधी ओबीसी वर्गों को रिझाने की वजह से महायुति को इस प्रभावशाली समुदाय को बेअसर करने में भले ही मदद मिली हो, लेकिन जैसा कि विश्लेषक सोमनाथ घोलवे कहते हैं, राज्य की राजनीति में मराठों का प्रभुत्व कायम है. समुदाय के पास अभी भी सबसे अधिक विधायक हैं. राजनैतिक विश्लेषक अभय देशपांडे का कहना है कि सरकार को यह तय करना होगा कि मराठा आरक्षण कानून (जिसमें इस समुदाय को शिक्षा और नौकरियों में 10 फीसद आरक्षण का प्रावधान है) अदालती समीक्षा की कसौटी पर खरा उतरे, ऐसा न होने पर आंदोलन का एक नया दौर शुरू हो सकता है.
यही नहीं, दलितों की नाराजगी भी जोर पकड़ सकती है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत राज्य सरकारों को आरक्षण के लिहाज से अनुसूचित जातियों (एससी) को उप-वर्गीकृत करने की अनुमति मिली है और महाराष्ट्र ने भी इस मुद्दे पर विचार के लिए एक समिति गठित कर दी है. इस चुनाव में महायुति के पक्ष में एकजुट होने वाली हिंदू अनुसूचित जातियों की शिकायत है कि बौद्ध दलितों (जो पूर्ववर्ती महार हैं और जिन्होंने 1956 में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के नेतृत्व में बौद्ध धर्म अपना लिया था) ने ज्यादातर लाभ और दलित सामाजिक-राजनैतिक जगह हथिया ली है. वहीं, बौद्ध दलित अपनी मांगों को लेकर मुखर हैं और कोई भी उप-वर्गीकरण उनकी नाराजगी बढ़ा सकता है. इसी तरह, सरकार को विभिन्न समुदायों, खासकर सशक्त धनगर (चरवाहा) समूह की मांगों के बीच संतुलन साधना होगा, जो ओबीसी श्रेणी का हिस्सा है, फिर भी अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग उठा रहा है. यह ऐसा कदम है जिससे दूसरे आदिवासी समुदाय नाराज हो सकते हैं.
अलविदा एमवीए?
अब, अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहे एमवीए का क्या होगा? अजित की राकांपा और शिंदे की शिवसेना के असली गुट होने पर मतदाताओं की मुहर के बाद उद्धव की शिवसेना और राकांपा (एससीपी) के लिए अपने नेताओं को साथ बनाए रखना आसान काम नहीं होगा. राकांपा अजित गुट के मंत्री अनिल भाईदास पाटील पहले ही दावा कर चुके हैं कि राकांपा (एससीपी) के विधायक उनके संपर्क में हैं. पूर्व शिवसेना सांसद राहुल शेवाले कह रहे हैं कि उद्धव शिवसेना के सांसद और विधायक धीरे-धीरे उनके साथ आकर जुड़ सकते हैं. इससे उद्धव ठाकरे और शरद पवार के सियासी वारिसों आदित्य और सुप्रिया का राजनैतिक भविष्य अधर में नजर आ रहा है.
उद्धव शिवसेना अपना मूल जनाधार खिसकने की आशंका से जूझ रही है. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है, "हमारा मूल मराठी वोट बैंक शिंदे की शिवसेना, भाजपा और मनसे के जनाधार से मिलता-जुलता है." राकांपा (एससीपी) के एक पदाधिकारी की मानें तो हिंदू ध्रुवीकरण ने मतदाताओं को शिंदे शिवसेना और भाजपा की ओर आकर्षित किया, न कि उद्धव की ओर, जिन्हें कांग्रेस के साथ गठबंधन करके अपनी पार्टी के हिंदुत्व एजेंडे को कमजोर करते पाया गया.
देशपांडे कहते हैं, "ठाकरे अपने हिंदुत्व एजेंडे को नए धर्मनिरपेक्ष ढांचे के साथ संतुलित करने में नाकाम रहे. इससे मूल जनाधार ही उनसे कट गया." अब उद्धव को बहुसंख्यक राजनीति के दौर में अपनी 'मुस्लिम समर्थक' छवि पर पुनर्विचार करने पर मजबूर होना पड़ सकता है. यही नहीं, समान नागरिक संहिता पर कोई स्पष्ट रुख अपनाने पर उन्हें अपनी पार्टी के खाते में आए मुस्लिम वोटों को भी गंवाना पड़ सकता है. उद्धव की शिवसेना के भीतर एमवीए से अलग होने के लिए दबाव पड़ने लगा है, कांग्रेस के भीतर भी इसी तरह की आवाज उठने लगी है.
शरद पवार एक पुराने सियासी खिलाड़ी हैं और उन्होंने पार्टी का जनाधार फिर से मजबूत करने की कसम खाई है. हालांकि, 80 वर्ष पार की उम्र उनका इसमें साथ देती नजर नहीं आती. एक वरिष्ठ मराठा नेता के मुताबिक, उनकी राजनीति की समस्या यह है कि वह इलाकावार क्षत्रपों पर निर्भर है, जो न तो सत्ता के बिना जीवित रह सकते, न ही संगठित काडर के बिना उनका कोई अस्तित्व है. देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के भीतर भी तलवारें खिंची हुई हैं. गुटबाजी, पटोले की नेतृत्व शैली, नेताओं की दूसरी पांत की कमी...कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता की नजर में यही सब चीजें पार्टी के लोकसभा चुनाव जैसा प्रदर्शन न दोहरा पाने के लिए जिम्मेदार हैं.
बहरहाल, इस चुनाव ने यह काम तो किया कि पिछले कुछ साल की सियासी अनिश्चितता खत्म करके राज्य को एक निर्णायक दिशा प्रदान की. राज्य की दो पार्टियों के टूटने की बात अब पुरानी हो चुकी है. अब लोग सुशासन की उम्मीद कर रहे हैं और नई सरकार को इसकी चुस्त व्यवस्था करनी चाहिए.
चुनावी जुंबिश
महायुति के हक में क्या काम कर गया
> रेवड़ी राजनीति, खासकर सबसे प्रमुख लाडकी बहिन योजना
> मराठा दबदबे के खिलाफ ओबीसी तबके की गोलबंदी
> 'बंटेंगे तो कटेंगे' और 'वोट जिहाद' जैसे बहुसंख्यक ध्रुवीकरण के नारे
> भाजपा और संघ परिवार के कार्यकर्ताओं का माइक्रो मैनेजमेंट
> उम्मीदवारों का जल्दी ऐलान
महायुति के सामने चुनौतियां

> राजनैतिक तौर पर फायदेमंद 'लाभार्थी' राजनीति और राज्य के विकास में संतुलन साधना
> शिवसेना या राकांपा को नाराज किए बिना भाजपा के पक्ष में सत्ता-समीकरण को बदलना
> यह तय करना कि कृषि संकट और जातिगत टकराव के मुद्दे सिर न उठाने लगें
> नेताओं और विधायकों की मंत्री तथा अन्य पदों की आकांक्षाओं पर खरा उतरना
> तय करना कि कहीं भारी बहुमत का गुरूर राजनैतिक गलतियां करने की ओर न ले जाए
एमवीए से आखिर चूक कहां हुई
> सहानुभूति लहर पर उसने कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया
> भाजपा के ध्रुवीकरण के एजेंडे या लाडकी बहिन जैसी कल्याण योजना की काट कर पाने में नाकामी
> कृषि संकट, मराठा नाराजगी, या रोजगार की कमी तथा रोजी-रोटी के सवाल, महाराष्ट्र से परियोजनाओं को गुजरात ले जाने जैसे मुद्दों को पूरी तरह भुना पाने में नाकामी
> एमवीए नेताओं के खुलेआम सामने आए आपसी झगड़े
> लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद अतिशय आत्मविश्वास और सीटों तथा उम्मीदवारों का गलत चयन
शरद पवार और उद्धव की चुनौतियां
> अपनी पार्टी और नेताओं-कार्यकर्ताओं को एकजुट बनाए रखना
> अपने मतदाताओं के मूल जनाधार को बनाए रखना, जो उद्घव के मामले में भाजपा, शिंदे शिवसेना और एमएनएस के बीच साझा है
> अगले साल की शुरुआत में स्थानीय निकाय के चुनावों में दमदार प्रदर्शन करना
> विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता के अभाव में सरकार के सामने चुनौती पेश करना
> अपने उत्तराधिकारियों के भविष्य की रक्षा करना, जो उद्घव के मामले में आदित्य, और शरद पवार के मामले में सुप्रिया हैं
कल्याण योजनाओं की कीमत
महाराष्ट्र में कल्याणकारी योजनाओं की मद में राज्य के खजाने पर अतिरिक्त 90,000 करोड़ रुपए का खर्च पड़ेगा. राज्य के बजट में पहले से 7.8 लाख करोड़ रुपए के कर्ज के बोझ का अनुमान है

> मुख्यमंत्री माझी लाड़की बहिन योजना
1,500 रुपए हर महीने कमजोर वर्ग की महिलाओं को
लाभार्थी: 2.3 करोड़
खर्च: रू. 46,000 करोड़*
> 100% फीस माफी लड़कियों के लिए
उच्च शिक्षा में ईडब्ल्यूएस, ओबीसी और एसईबीसी छात्राओं के लिए
लाभार्थी: 2,05,000
खर्च: रू. 2,000 करोड़
> अन्नपूर्णा योजना
लाड़की बहिन और पीएम उज्ज्वला योजना के लाभार्थियों को तीन एलपीजी सिलेंडर मुफ्त
लाभार्थी: 52 लाख
खर्च: रू. 829 करोड़
> मुख्यमंत्री बलीराजा मोफ्त वीज योजना
7.5 हॉर्सपावर की क्षमता वाले कृषि पंप के लिए मुफ्त बिजली
लाभार्थी: 44 लाख
खर्च: रू. 14,761 करोड़
> मागेल त्याला सौर कृषि पंप योजना
किसानों के लिए सौर पंप
लाभार्थी: 8,50,000
खर्च: रू. 27,000 करोड़
> मुख्यमंत्री युवा कार्य प्रशिक्षण योजना
रू. 10,000 हर महीने भत्ता बेरोजगार युवा को इंटर्नशिप योजना के तहत
लाभार्थी: 10 लाख
खर्च: रू. 10,000 करोड़
> मुख्यमंत्री वयोश्री योजना
रू. 3,000 हर 65 वर्ष से ऊपर के वरिष्ठ नागरिक को अपने जीवन से जुड़ी जरूरत के उपकरण खरीदने के लिए
लाभार्थी: 12.5-15 लाख
खर्च: रू. 450 करोड़
*संभावित 2.5 करोड़ लाभार्थियों को हर महीने 600 रुपए बढ़ोतरी के वादे से कुल सालाना खर्च 63,000 करोड़ रु. हो जाएगा