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प्रधान संपादक की कलम से

जहां मोदी अवनति या उतार का दंश पीछे छोड़कर नए जोशो-खरोश और आत्मविश्वास के साथ नीति-निर्माण के काम पर लौट आए हैं. कांग्रेस के एक बार फिर गच्चा खाने के साथ इंडिया गुट के भीतर समीकरण बदलेंगे

इंडिया टुडे कवर : भाऊ की जय
इंडिया टुडे कवर : भाऊ की जय
अपडेटेड 9 दिसंबर , 2024

—अरुण पुरी

पांच महीने पहले आम चुनाव में अपने दम पर बहुमत हासिल करने से चूककर ताकतवर भाजपा ने कइयों को हैरत में डाल दिया था. ऐसे में हाल के महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव इस बात का लिटमस टेस्ट थे कि क्या उसकी लोकप्रियता उतार पर है. नतीजों ने इस धारणा को हैरतअंगेज ढंग से चूर-चूर कर दिया. पार्टी को मिली 132 सीटें 288 के सदन में बहुमत से मात्र 13 कम हैं.

उसके महायुति गठबंधन के पास 235 सीटें हैं; विपक्षी महा विकास अघाड़ी (एमवीए) को उसके एक चौथाई से भी कम 50 सीटें मिलीं. यह भाजपा के मनोबल को जबरदस्त ढंग से बढ़ाने वाला है. इसका एक स्वाभाविक नतीजा यह होगा कि उसके सहयोगियों नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की वफादारी पक्की हो जाएगी. वहीं आम चुनाव के बाद खुद को उभार की राह पर देख रहे इंडिया गुट का जोश हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनाव नतीजों के बाद मंद पड़ गया है.

महाराष्ट्र में भाजपा को इस बात से तो मदद मिली ही कि एमवीए इस सुखदाई भुलावे में आकर लड़खड़ा गया कि लोकसभा चुनाव में 48 में से 31 सीटों पर उसकी निर्णायक जीत, जिसमें 153 विधानसभा सीटें आती थीं, राज्य के चुनाव में अपने आप बहुमत में बदल जाएंगी. मगर भाजपा ने होशियारी से खेल का पासा पलट दिया. पार्टी के रणनीतिकारों ने एक नई रणनीति ईजाद की.

विचारधारा और व्यवहारवाद की उसकी दोहरी रणनीति झारखंड में तो पुष्पित-पल्लवित नहीं हुई, लेकिन महाराष्ट्र की बंपर फसल ने उसकी भरपाई से कहीं ज्यादा काम कर दिया.

इस रणनीति के चार प्रमुख हिस्से थे. एक, अपनी गलतियों से सीखकर भाजपा ने आम तौर पर ताबड़तोड़ बमबारी करने वाले अपने चुनाव अभियानों में सर्वप्रमुख और सर्वशक्तिमान औजार के तौर पर मोदी का इस्तेमाल कम कर दिया. हर दूसरी चीज को अपनी छाया में ढक लेने वाली शख्सियत के बजाए वे शुभंकर बने रहे, लेकिन देशज और स्थानीय नेताओं को ज्यादा जगह दी गई.

इसने क्षेत्रीय गौरव से सराबोर राज्य महाराष्ट्र के 'दिल्ली दरबार' की विराट छाया से ढक लिए जाने की किसी भी गलतफहमी के लिए गुंजाइश नहीं छोड़ी. इसने रणनीति के दूसरे हिस्से के लिए सही माहौल भी तैयार किया. यह दूसरा हिस्सा था—स्थानीय पर जोर. टिकट बांटने पर सख्त नियंत्रण रखने वाली केंद्रीय कमान के बजाए स्थानीय क्षत्रपों को व्यूहरचना की पूरी छूट मिली.

यहां तक कि सहयोगियों—पूरी तरह राज्य की मिट्टी से निकलकर आए मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और सौम्य बन चुके अजित पवार—ने चुनाव अभियान में अपने-अपने हिस्से की जिम्मेदारी संभाली. इस बीच भाजपा के अपने देवेंद्र फडणवीस ने नेपथ्य से अहम तख्तापलट कर दिया. 

फिर आना था चरण #3: आरएसएस की सेवाओं की पूर्ण बहाली. लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के साथ अनबन के संकेतों के बाद अक्तूबर में हरियाणा का चुनाव आते-आते मतभेदों को सुलझा लिया गया था, जिसका तुरंत नतीजा भी दिखा. नागपुर के लाडले फडणवीस के सहयोग से सुलह और मेल-मिलाप अब पूरे जोर पर था. आरएसएस का मार्गदर्शक हाथ रणनीति से लेकर उम्मीदवारों के चयन तक हर चीज में साफ था.

साथ ही उसके कार्यकर्ता एमवीए के प्रोपैगेंडा का मुकाबला करने, मतदाताओं में जोश भरने और अंतिम पायदान के बूथ प्रबंधन को सख्त और प्रभावी बनाने के लिए जमीन पर उतर पड़े. इस एकजुटता का दिल्ली में भी मुफीद असर पड़ने की संभावना है, जहां भाजपा के अगले अध्यक्ष का चयन ज्यादा तालमेल के साथ होगा.

आखिरी चरण दो मोर्चों की राजनीति की वापसी से जुड़ा है. हिंदुत्व का तो बेशक असरदार इस्तेमाल किया ही गया. विभाजनकारी आक्रामकता से अपनी सापेक्ष दूरी की बदौलत मोदी 'एक हैं तो सेफ हैं' सरीखे नरम और ज्यादा मृदुभाषी नारे पर कायम रह पाए. वहीं 'बटेंगे तो कटेंगे' सरीखी बर्बर लफ्फाजी का काम अमित शाह और योगी आदित्यनाथ सरीखे चुनाव प्रचारकों को सौंप दिया गया.

झारखंड में भी इस शब्दावली को खूब सान चढ़ाया गया, जहां असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सरमा 'बांग्लादेशी घुसपैठियों' का बंधा-बंधाया हौवा चुनाव प्रचार में ले आए. उस राज्य में तो उसे उम्मीद के मुताबिक विदेशी-द्वेष से प्रेरित प्रतिक्रिया नहीं मिली. संयत करने वाले इस फीडबैक पर भाजपा शायद ध्यान दे सके.

राजनैतिक रणनीतियों से परे एक और बुनियादी बदलाव भी आया. 'रेवड़ी संस्कृति' के खिलाफ प्रधानमंत्री के मशहूर रुख को पलटते हुए महाराष्ट्र ने भाजपा के हाथों मुफ्त खैरातों को अपनाए जाने पर मोहर लगा दी. लोकसभा चुनाव के बाद शिंदे सरकार की तरफ से लाई गई लाडकी बहिन योजना के तहत राज्य की 2.3 करोड़ से ज्यादा महिलाओं को 1,500 रुपए की तीन मासिक किस्तें और चुनाव की पूर्व संध्या पर अक्तूबर-नवंबर की दो किस्तें दे दी गईं.

इसी अनुपात में महिलाएं भी वोट देने के लिए निकलकर आईं, जब उनके मतदान का प्रतिशत 2019 में 59.26 फीसद से बढ़कर इस बार 65.22 फीसद पर पहुंच गया. इस मासिक नकद हस्तांतरण को बढ़ाकर 2,100 रुपए करने के भाजपा के वादे के साथ उनकी पसंद स्पष्ट थी. झारखंड में ऐसी ही महिला समर्थक खैरात—मंइयां सम्मान योजना—ने हेमंत और उनकी पत्नी कल्पना को सार्वभौम आधार दे दिया, फिर भले ही उन्होंने आदिवासी गौरव पर भी चुनाव लड़ा हो.

इस हफ्ते हमारा पैकेज कई मोर्चों का जायजा लेता है. मुख्य आलेख नई दिल्ली में उभरते परिदृश्य पर बारीक नजर डालता है, जहां मोदी अवनति या उतार का दंश पीछे छोड़कर नए जोशो-खरोश और आत्मविश्वास के साथ नीति-निर्माण के काम पर लौट आए हैं. कांग्रेस के एक बार फिर गच्चा खाने के साथ इंडिया गुट के भीतर समीकरण बदलेंगे. अलबत्ता हर तरफ महत्वाकांक्षाएं बढ़ने के साथ महायुति में गठबंधन की चुनौतियां बनी रहेंगी.

जहां तक मोदी 3.0 की बात है, अगले साल दिल्ली और बिहार के चुनाव तक चुनावी राजनीति का पटाक्षेप हो चुका है. ध्यान आर्थिक पुनरुद्धार पर होना चाहिए. जरूरतमंदों को बुनियादी चीजें देकर चुनाव जीते जा सकते हैं, यह सुखद घटनाक्रम तो नहीं ही है. चुनाव ऐसे नीतिगत मुद्दों पर जीते जाने चाहिए जो लोगों की जिंदगी में स्थायी सुधार लाएं: खैरात की तो जरूरत ही खत्म हो जानी चाहिए.

— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह)

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