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लोकसभा के झटके के बाद बीजेपी ने बदल दी रणनीति, आरएसएस का क्या है इसमें रोल?

भगवा पार्टी की लगातार जीतें इस बात का प्रमाण हैं कि उसने अपनी गलतियों से सबक लिया है और आरएसएस की थोड़ी मदद से पार्टी फुर्ती से सुधार करने में सक्षम है

अमित शाह 8 नवंबर को कोल्हापुर में एक रैली के दौरान
अमित शाह 8 नवंबर को कोल्हापुर में एक रैली के दौरान
अपडेटेड 9 दिसंबर , 2024

सत्तारूढ़ पार्टी के जीत के जश्न अब देश के लिए जाने-पहचाने हो गए हैं. दिल्ली में तो बजते ही हैं, इस बार महाराष्ट्र में भी बीजेपी के मुख्यालय पर ढोल बजे, पटाखे फूटे, और हां, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी के अथक मेहनती कार्यकर्ताओं और श्रमजीवियों को हर बार की तरह धन्यवाद दिया. इस जून में हुए आम चुनाव में जबरदस्त मायूसी के बाद—जब बीजेपी बहुत तकलीफदेह ढंग से अपने दम पर साधारण बहुमत से पीछे रह गई थी—पार्टी बंधे-बंधाए ढर्रे पर लौट आई है.

लोकसभा चुनाव में हार का एक बड़ा कारक रहे महाराष्ट्र की कायापलट जीत ने मोदी का जादू कम होने को लेकर या बीजेपी की चुनाव मशीनरी की बुनियादी सामर्थ्य पर किसी भी तरह के संदेह मिटा दिए. पार्टी की अगुआई में महायुति गठबंधन ने चुनावों में जबरदस्त जीत हासिल की. खुद बीजेपी ने 148 सीटों पर चुनाव लड़ा और 132 जीत लीं (तकरीबन 90 फीसद की सफलता दर).

यह पांच महीने पहले लोकसभा की 28 में नौ सीटें जीतने से बहुत अलग था. झारखंड के नतीजों से भले कुछ ऐंठन और मरोड़ पैदा हुई हो पर महाराष्ट्र जीतने के राष्ट्रीय प्रभाव और भारत की अर्थव्यवस्था पर उसके भीमकाय असर ने हर चीज को फीका कर दिया है.

बीजेपी के उत्साही समर्थकों के लिए ये वाकई खुशी के महीने रहे, जो दशक भर की सत्ता-विरोधी भावना के बावजूद हरियाणा की चमत्कारिक जीत और अनुच्छेद 379 खत्म होने के बाद जम्मू-कश्मीर के पहले विधानसभा चुनाव में काबिले तारीफ प्रदर्शन से शुरू हुए थे. इस सबने यह भी पक्का कर दिया कि मोदी 3.0 हिंदुत्व की विचारधारा को आगे बढ़ाता रह सकता है, जबकि उसके पास इतनी गुंजाइश भी है कि संसद में कांग्रेस की अगुआई वाले विपक्ष की तरफ से फेंकी गई किसी भी गुगली को चकमा दे सके.

कहा-सुना सब माफ

यह कायापलट अलबत्ता मुमकिन नहीं हुआ होता अगर बीजेपी के नेता पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के अपने समकक्षों के साथ शांति कायम नहीं करते. वैचारिक पितृ संगठन मोदी 2.0 में चल रही कारगुजारियों को लेकर कुछ वक्त से नाराज था, खासकर इस बात को लेकर कि बीजेपी नेताओं ने अहम नियुक्तियों के बारे में उनसे सलाह-मशविरा नहीं किया या जिस तरह पार्टी ने विपक्ष की सरकारों को गिराने और दलबदल करवाने के लिए विचारधारा को तिलांजलि दे दी. यह सब उस वक्त निर्णायक मोड़ पर पहुंच गया जब लोकसभा के चुनाव अभियान के दौरान बीजेपी प्रमुख जे.पी. नड्डा ने कह दिया कि पार्टी अपने मामलों को संभालने में 'सक्षम’ है और वह आरएसएस से कहीं ज्यादा बड़ी हो गई है.

कई विश्लेषक अहम मोड़ों पर बीजेपी के अभियानों से संघ की साफ गैरमौजूदगी के लिए इसी बयान को जिम्मेदार ठहराते हैं. मायूस करने वाले नतीजों से आरएसएस नेतृत्व को पलटवार करने का मौका मिल गया. यहां तक कि सरसंघचालक मोहन भागवत ने कथित तौर पर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ तंज कसे. आखिरकार अनबन तोड़ने के लिए दोनों पक्षों के बीच कई दौर की बातचीत हुई, पर यह तभी टूटी जब बीजेपी ने संघ को बड़ी रियायतें दीं.

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत 20 नवंबर को नागपुर में मतदान के बाद

उसी के तहत जम्मू-कश्मीर के चुनावों से निबटने के लिए राम माधव की बीजेपी में वापसी हुई और चुनावों में तालमेल के लिए आरएसएस के सह सरकार्यवाह अरुण कुमार (हरियाणा में), अतुल लिमये (महाराष्ट्र) और आलोक कुमार (झारखंड) को तैनात किया गया. उनका काम जाहिरा तौर पर "एक बार फिर मूल मतदाताओं को सक्रिय करना और समर्थकों में जोश भरना था."

संघ के सूत्रों का कहना है कि महाराष्ट्र में 65 सहयोगी संगठन जमीन पर काम कर रहे थे और ठेठ 'पन्ना (मतदाता सूची का एक पेज)’ स्तर से शुरू करके करीब 1,50,000 बैठकें की गईं. यहां तक कि केंद्रीय मंत्री और मूलत: नागपुर के रहने वाले नितिन गडकरी को सौंपी गई चुनावी जिम्मेदारियों के पीछे भी संघ का हाथ था. चुनाव नतीजों ने दिखा दिया कि पार्टी की कामयाबी के लिए कहीं ज्यादा बड़ा संघ परिवार कितना अहम है.

नया सांचा

पहले के विपरीत जब मोदी चुनाव अभियानों की भारी जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाते थे, इधर बाद में पार्टी ज्यादा रणनीतिक ढंग से उनका इस्तेमाल कर रही है. अपने तीसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने हरियाणा में महज पांच, महाराष्ट्र में 10 और झारखंड में चार रैलियां कीं. तीनों राज्यों में पैटर्न भी एक जैसा रहा—मुकाबलों को स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित किया गया, मोदी बनाम अन्य पर नहीं. इसकी वजह से बीजेपी एजेंडा भी तय कर पाती है और आरएसएस के विशाल संगठन का बेहतरीन इस्तेमाल भी कर पाती है.

बीजेपी की रणनीतियों की नई किताब में प्रधानमंत्री मोदी 'एक हैं तो सेफ हैं’ सरीखी पंक्तियों के साथ नरम रुख अपनाते हैं. वे कांग्रेस के गांधी परिवार सरीखी राष्ट्रीय शख्सियतों पर हमले भी करते हैं, लेकिन स्थानीय दिग्गजों मसलन महाराष्ट्र में शरद पवार और उद्धव ठाकरे से जबानी टकराव से बचते हैं. इस बीच 'बटेंगे तो कटेंगे’ सरीखे चुनावी नारों के साथ कठोर हिंदुत्व पर जोर देने का काम उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरीखों पर छोड़ दिया गया, जिसे बीजेपी के संभावित मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का भी अनुमोदन मिला.

यही चाल झारखंड में भी चली गई जहां असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सरमा ने 'मुस्लिम घुसपैठ’ के खतरे की घंटी बजाते हुए कहा कि आदिवासी संथाल परगना का इलाका 'मिनी बांग्लादेश’ में बदल रहा है. विपक्ष के नेताओं ने 'संविधान बचाओ’ के साथ मोदी पर हमले करने की कोशिशें जरूर कीं, पर प्रधानमंत्री की तरफ से पलट हमला नहीं किए जाने से यह ज्यादातर उल्टे उन्हीं को लगा. बीजेपी के अंदरूनी लोगों का कहना है कि ऐसा दरअसल जान-बूझकर किया गया, ताकि नैरेटिव पर पार्टी का नियंत्रण बना रहे और मुकाबलों को मोदी बनाम पवार या मोदी बनाम उद्धव में नहीं बदलने देकर बिल्कुल स्थानीय बनाए रखा जा सके.

संघ के जिस एक और बड़े हस्तक्षेप से बीजेपी को मदद मिली, वह यह था कि चुनाव अभियानों में स्थानीय क्षत्रपों की ज्यादा सुनी गई. गडकरी ने महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में पड़ाव डाला और 73 रैलियां कीं. आरएसएस ने यह भी पक्का किया कि उम्मीदवारों के चयन और चुनाव अभियान में भी उनकी बात सुनी जाए. नतीजा यह हुआ कि बीजेपी की अगुआई वाले महायुति गठबंधन ने इस इलाके की 62 विधानसभा सीटों में से 40 जीत लीं. इस इलाके में किसानों के संकट और मराठा आंदोलन ने लोकसभा चुनाव में महा विकास अघाड़ी (एमवीए) को 10 निर्वाचन क्षेत्रों में से सात जीतने में मदद की थी.

इसी तरह महायुति के सहयोगी दल अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) को पश्चिम महाराष्ट्र में हिंदुत्व की विचारधारा की अवहेलना करने की इजाजत दी गई. बीजेपी के थिंक टैंक को समझ आ गया कि उनके कट्टरपंथी नारे यहां कारगर नहीं हो रहे हैं. मामला तब और पेचीदा हो गया जब स्थानीय कार्यकर्ता अजित के साथ गठबंधन से नाखुश थे.

लोकसभा चुनाव में इस इलाके से एनडीए के सफाये से इसकी झलक मिल चुकी थी. संघ का काम यह पक्का करना था कि अजित के विद्रोही तेवरों के बावजूद बीजेपी और शिंदे सेना के वोट उनके उम्मीदवारों को मिलें. यह तकरीबन वही रणनीति थी जो हरियाणा में अपनाई गई, जहां राव इंद्रजीत सिंह और कृष्णपाल गुर्जर सरीखे क्षत्रपों को अभियान में 'नवाचार’ की इजाजत दी गई.

बाजीगर (बाएं से क्रमश:) देवेंद्र फडणवीस, एकनाथ शिंदे, योगी आदित्यनाथ और जे.पी. नड्डा

भगवा रेवड़ी का झटका

प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से 'रेवड़ी’ संस्कृति आदि की चाहे जितनी आलोचना की गई हो, बीजेपी में कम ही लोग 'चुनावी संदेश देने’ में इसके इस्तेमाल से इनकार करेंगे. आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने सुनिश्चित किया कि ऐसे संदेश असरदार ढंग से ठेठ नीचे जमीन तक पहुंचें. संघ के तंत्र ने निर्वाचन क्षेत्र-वार तैनाती अगस्त के अंत से ही शुरू कर दी और फीडबैक का तंत्र भी कायम किया. इससे पार्टी को न केवल प्रमुख मुद्दों की पहचान बल्कि उन्हें हल करने में भी मदद मिली.

इस सब में रणनीतिक प्रलोभन नकद रेवड़ियां और जनकल्याण की योजनाएं थीं. हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों ने लाडली बहना के अपने-अपने संस्करण पेश किए. यह महिलाओं के लिए वही खैरात योजना थी जो मध्य प्रदेश में जबरदस्त कामयाब रही थी. महाराष्ट्र में यह लाड़की बहिन योजना हो गई, जिसमें 13 लाख महिलाओं के खाते में हर महीने 1,500 रुपए डाले गए और इस धनराशि में 700 रुपए का इजाफा करने और 2.34 करोड़ लाभार्थियों तक योजना का विस्तार करने के वादे किए गए.

बीजेपी को एक नया नारा भी मिल गया लगता है, जिसके बारे में मोदी ने अपने जीत के भाषण में इतना तो कहा ही: "महाराष्ट्र के मतदाताओं ने कांग्रेस और उनके दोस्तों की तरफ से रची गई साजिश पर विराम लगा दिया है. महाराष्ट्र ने एक नया फैसला दिया है—एक हैं तो सेफ हैं भारत का मंत्र है." बीजेपी-आरएसएस ने समझ लिया कि हरियाणा के चुनावों के दौरान इस नारे की गूंज ने पार्टी के कार्यकर्ताओं को जोश से भर दिया था.

आलोचक बेशक आरोप लगाते हैं कि बीजेपी हिंदू मतदाताओं को मुसलमान मतदाताओं के खिलाफ खड़ा करने वाले अपने पुराने 'ध्रुवीकरण करने वाले एजेंडे’ पर लौट आई है. उनका कहना है कि यह 'सबका साथ, सबका विकास’ के उस नारे के खिलाफ है जिस पर चढ़कर मोदी सत्ता में आए थे.

बीजेपी के अंदरूनी लोग इसका जवाब यह कहकर देते हैं कि यह नारा पार्टी के समर्थकों को 'वैश्विक खतरों’ और उस 'उलट ध्रुवीकरण’ के बारे में जागरूक करने की कोशिश है जिसमें खासकर अल्पसंख्यक वोटों को अयोध्या, वक्फ (संशोधन) विधेयक 2024, समान नागरिक संहिता और धर्मांतरण विरोधी कानूनों सरीखे मुद्दों पर इंडिया गुट के पक्ष में लामबंद किया जाता है. 'एकता’ के इस आह्वान को जाति जनगणना पर विपक्ष के जोर से ध्यान हटाने की बीजेपी-संघ की रणनीति के तौर पर भी देखा जा रहा है. संघ परिवार की हमेशा से यही राय रही है कि जाति जनगणना का मकसद हिंदू समाज को बांटना है.

किले में दरारें

उपचुनावों के नतीजों से यह पता चलता है कि बीजेपी पश्चिम बंगाल, पंजाब और केरल सरीखे राज्यों में अब भी जद्दोजहद कर रही है. इन राज्यों में पार्टी ठहराव की शिकार है या जमीन खो रही है. इन तीनों राज्यों में कुल मिलाकर 85 लोकसभा सीटें हैं, पर बीजेपी के पास इनमें से महज 12 हैं ( केरल में 1 और पश्चिम बंगाल में 11). पार्टी की 2029 की योजना को कामयाब बनाने के लिए इन राज्यों में सुधार और नए सिरे से नाप-तौल बहुत जरूरी है (तमिलनाडु को इस सूची में और जोड़ लें तो सीटें 39 और बढ़ जाती हैं).

उपचुनावों में बीजेपी बंगाल (6), पंजाब (4) और केरल (2) में सभी सीटें हार गई. इनमें उत्तर बंगाल के मदारीहाट और केरल के पलक्कड़ की हार दर्दनाक होंगी. मदारीहाट बीजेपी का गढ़ रहा है, लेकिन पार्टी मजबूत नैरेटिव और संगठन की ताकत नहीं होने से हार गई. पलक्कड़ की लड़ाई को जबरदस्त गुटबाजी से ठेस लगी.

अगले दो महीनों में इन चारों राज्यों में पार्टी संगठन में भारी बदलाव देखने को मिल सकते हैं. केरल में राज्य अध्यक्ष के. सुरेंद्रन के खिलाफ तलवारें खिंची हुई हैं. पंजाब में सुनील जाखड़ भी इसी हश्र से दो-चार हैं. पार्टी के पास इन राज्य इकाइयों में फ्रेश बटन दबाने के अलावा कोई चारा नहीं है, क्योंकि पहले ही देर हो चुकी है. बंगाल, तमिलनाडु और केरल में 2026 में चुनाव होंगे. पंजाब में चुनावी हिसाब-किताब 2027 में होगा.

बंगाल में बीजेपी को उम्मीद थी कि आर.जी. कर अस्पताल में हुए बलात्कार और हत्या के मामले में विरोध प्रदर्शन के बूते उसे बढ़त मिल जाएगी. ऐसा नहीं हुआ. शुभेंदु अधिकारी की शक्ल में पार्टी के पास आक्रामक नेता है, लेकिन बीजेपी के सूत्रों का कहना है कि संघ की पृष्ठभूमि का न होना संगठन में उनके लिए कमजोरी बन जाता है. केरल में बीजेपी ने त्रिशूर से अभिनेता से नेता बने सुरेश गोपी की जीत के साथ पहली बार लोकसभा की सफलता का स्वाद चखा था.

लिहाजा पड़ोसी पलक्कड़ की विधानसभा सीट से ऊंची उम्मीदें संजो ली गईं, जहां बीजेपी हमेशा तगड़ा प्रदर्शन करती रही है. मगर लगता है यहां भी अंतर्कलह ने उसकी तमाम उम्मीदों में पलीता लगा दिया. इसी तरह पंजाब में बीजेपी को उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री भगवंत मान के खिलाफ सत्ता विरोधी वोट और अकाली दल की गैरमौजूदगी से पार्टी को ग्रामीण पट्टी में कुछ जमीन हासिल करने में मदद मिलेगी. मगर चार में से तीन सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार जमानतें गंवा बैठे. यह तब हुआ जब पूर्व मंत्रियों मनप्रीत बादल, रविकिरण कहलों और सोहन सिंह ठंडल को उनके अपने-अपने गढ़ों से मैदान में उतारा गया था.

अलबत्ता इन कुछेक राज्यों को छोड़ दें तो बीजेपी सही मायनों में देश की 'सुपर पार्टी’ होने का दावा कर सकती है. विधानसभा चुनावों में एक के बाद एक जीत से यह विश्वास मजबूत हुआ है कि नेतृत्व ने अपनी गलतियों से सबक लिए हैं और सुधार करने की चुस्ती-फुर्ती उनमें है.

अगली चुनौती फरवरी में होने वाले दिल्ली के विधानसभा चुनाव हैं, जिनमें आरएसएस-बीजेपी मिलकर तीसरे कार्यकाल की उम्मीद कर रहे अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी के खिलाफ अपनी किस्मत आजमाना चाहेंगे. भगवा युति लंबे वक्त से दिल्ली के दरवाजे तोड़ने की आस लगाए है और अगर ऐसा होता है तो भरोसा कर सकते हैं कि यह जश्न खत्म होने में अभी लंबा वक्त लगेगा.

खेल वही, रणनीति नई

●आरएसएस ने बीजेपी के साथ फिर से संतुलन स्थापित कर लिया है. यह साबित करता है कि संगठन पार्टी की चुनावी जीतों के लिए जरूरी है

● 'रेवड़ी संस्कृति‘ पर सभी चर्चाओं के बावजूद, बीजेपी की जीत में सबसे बड़ा योगदान नकद वितरण योजनाओं, जैसे 'लाडकी बहिन’, का ही रहा है

●प्रधानमंत्री मोदी को नरम छवि के साथ सामने लाने की रणनीति कारगर रही, जबकि ध्रुवीकरण और कठोर हिंदुत्व की बातों की जिम्मेदारी योगी आदित्यनाथ और हेमंत बिस्व सरमा जैसे नेताओं पर छोड़ दी गई

●राज्य चुनाव अभियानों में स्थानीयकरण सबसे महत्वपूर्ण है. राष्ट्रीय मुद्दों के बजाए क्षेत्रीय या सीट-विशेष केंद्रित समस्याओं को प्राथमिकता दी गई

●स्थानीय क्षत्रपों को अभियान रणनीति और उम्मीदवार चयन में अधिकार दिया जाता है और परिणाम मिलने पर उन्हें 'नवाचार’ की अनुमति भी दी जाती है

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