scorecardresearch

लगातार चुनावी हार से कांग्रेस कैसे बनती जा रही लाचार?

कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में मिले फायदों को गंवा दिया. खुद को राजनैतिक रूप से प्रासंगिक बनाए रखने के लिए उसे फौरन अख्तियार करनी होंगी नई रणनीतियां

राहुल गांधी महाराष्ट्र के नांदेड़ में 14 नवंबर को एक रैली के दौरान
राहुल गांधी महाराष्ट्र के नांदेड़ में 14 नवंबर को एक रैली के दौरान
अपडेटेड 16 दिसंबर , 2024

महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा के चुनाव नतीजों की घोषणा के एक दिन बाद कोलकाता में यह नवंबर की ताजगी भरी सुबह थी. तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सांसद कल्याण बनर्जी पूरी दबंगई वाले स्वर में मीडिया से मुखातिब थे. उन्होंने पूछा, "ममता बनर्जी को इंडिया ब्लॉक का नेतृत्व क्यों नहीं करना चाहिए? उन्होंने बंगाल में भाजपा को लगातार पराजित किया है. कांग्रेस ने हाल के दिनों में चुनाव हारने के सिवा किया क्या है?" उनके शब्दों में तंज गहरा था.

सहयोगी दल की आलोचना महज इस वजह से नहीं थी कि उनकी पार्टी ने पश्चिम बंगाल के उपचुनावों में सभी छह सीटों को जीतकर बाकियों का सूपड़ा साफ किया था. इंडिया ब्लॉक के दूसरे कई सहयोगी दलों के बीच भी ऐसी ही भावना है. भाजपा के चुनावी दबदबे को चुनौती देने के लिए 2022 में तीन दर्जन से ज्यादा दलों ने मिलकर इंडिया ब्लॉक बनाया था. बनर्जी की टिप्पणी भी महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस की पराजय के तुरंत बाद आई.

इन दोनों राज्यों के चुनाव को लेकर माना जा रहा था कि कांग्रेस इस साल के शुरू में हुए लोकसभा चुनाव के बेहतर प्रदर्शन के बाद अपने पैर फिर से मजबूत कर सकती है.

यह पहली बार नहीं है जब कांग्रेस को इंडिया ब्लॉक में इस तरह के सार्वजनिक उपहास का सामना करना पड़ा है. हरियाणा में करारी हार के बाद शिवसेना (यूबीटी) सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने सीधे ही कह दिया था: भाजपा के साथ किसी भी तरह की सीधी लड़ाई में कांग्रेस ने विपक्ष को कमजोर किया है. जून के बाद से इंडिया ब्लॉक दो क्षेत्रों में विजयी हुआ है जहां मजबूत क्षेत्रीय दलों —झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी)—ने अभियान का नेतृत्व किया.

महाराष्ट्र की शिकस्त ने इस बहस को फिर से हवा दे दी है क्योंकि कांग्रेस महा विकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन के नेतृत्व में 101 सीटों पर चुनाव लड़ी और महज 16 जीत सकी. 288 सदस्यों के सदन में एमवीए की कुल सीटें 49 पर सिमट गईं जिससे घटक दलों के बीच ये सुर उठने लगे हैं कि कांग्रेस इंडिया ब्लॉक का नेतृत्व करने के बजाय उस पर सबसे बड़ी बोझ बन गई है.

इंडिया में नया समीकरण

अपने जोरदार प्रदर्शन से और मजबूत हुए क्षेत्रीय नेताओं को अब उस कांग्रेस के साथ जुड़ाव बरकरार रखने में कोई हित नजर नहीं आ रहा जो गठबंधन को नीचे खींच रही है. तृणमूल के अलावा समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख अखिलेश यादव और नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला ने अपनी बेचैनी जाहिर कर दी है.

उमर अब्दुल्ला ने तो जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस को मंत्री पद भी नहीं दिया है. राजनैतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी कहते हैं, "लगातार चुनावी पराजयों के कारण इंडिया ब्लॉक में कांग्रेस को चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. साथ ही, क्षेत्रीय दलों को कमजोर कांग्रेस से फायदा होगा क्योंकि दलित और मुस्लिम जैसे वंचित समूह अपना समर्थन कांग्रेस की बजाए उनको देंगे."

महाराष्ट्र में पराजय के बाद एमवीए के साथी दल शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) और नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (शरद चंद्र पवार) अब अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं. उनके नेताओं, उद्धव और शरद पवार पर अपने लोगों के पार्टी छोड़ने का संकट मंडरा रहा है जिससे गठजोड़ की चूलें और हिल सकती हैं. उद्धव खेमे के अंदर के लोग निजी तौर पर स्वीकार करते हैं कि गठजोड़ अपने मुख्य वोट बैंक से दूर हो गया जिसे दिवंगत बाल ठाकरे ने आक्रामक हिंदुत्व और मराठा स्वाभिमान के बल पर तैयार किया था. यह नाराजगी अब एमवीए में छिटकाव का संकेत हो सकती है.

इस मनमुटाव के अब संसद में भी दिखने का खतरा है. इंडिया के छोटे सहयोगी दल पहले ही संकेत दे चुके हैं कि वे कांग्रेस की प्राथमिकताओं के साथ तालमेल नहीं भी कर सकते हैं, जैसे राहुल गांधी अदाणी मसले को लगातार उठा रहे हैं. इस बिखराव से राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के मुकाबले विपक्ष का एकीकृत चेहरा पेश करने की गठजोड़ की क्षमता कमजोर होने का जोखिम हो गया है.

मुंबई में 7 नवंबर को एमवीए की रैली में इंडिया ब्लॉक के नेता उद्धव ठाकरे, राहुल गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे

कांग्रेस के एक सांसद आगाह करते हैं, "हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा में भाजपा बहुमत से अभी भी 32 सीट दूर है. अगर विपक्ष इंडिया ब्लॉक के नेता के मसले पर अटका रहा तो सत्तारूढ़ दल संख्या कम होने के बावजूद विवादास्पद बिलों को आगे बढ़ा सकता है." 

अब दिल्ली में चुनाव होने हैं. कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) दोनों ने गठजोड़ की संभावना से इनकार किया है. ऐसे में यह कांग्रेस की योग्यता की कसौटी होगी कि वह गैर भाजपा राजनीति की धुरी के रूप में खुद को साबित कर पाती है या नहीं.

छलिया सुबह

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन उसमें नई जिंदगी की सुबह के रूप में नजर आया था जब पार्टी ने 99 सीटें हासिल की थीं जो 2019 की उसकी 52 सीटों की संख्या से लगभग दोगुनी थीं. और कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि उसने अपने प्रासंगिक बने रहने की राह ढूंढ़ ली है. इस तथ्य से यह धारणा मजबूत हुई कि उसने भाजपा की 2019 के चुनाव की 303 सीटों की संख्या कम करते हुए 240 तक सीमित कर दी.

हालांकि नजदीक से देखें तो पता चलता है कि कांग्रेस को वहां अधिक लाभ हुआ जहां वह क्षेत्रीय दिग्गज सहयोगी दलों के साथ गठजोड़ पर बहुत ज्यादा निर्भर थी, जैसे डीएमके (तमिलनाडु), सपा (उत्तर प्रदेश) और अन्य. पार्टी ने जो 99 सीट जीतीं, उनमें से 36 इन्हीं राज्यों से आईं और उसे अपने जमीनी समर्थन की तुलना में रणनीतिक वोट स्थानांतरण का ज्यादा फायदा हुआ. ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा के साथ कांग्रेस ने जहां भी सीधा मुकाबला किया, वहां खराब प्रदर्शन किया, चाहे सीधी टक्कर हो या तीसरे दलों की मौजूदगी हो.

ऐसे 168 मुकाबलों में कांग्रेस महज 30 सीट ही जीत सकी. आंकड़ों की ये छुपी बारीकियां कुछ समय तक तो संभाल ली गईं लेकिन जून के बाद हुए विधानसभा चुनावों के दौरान ये जाहिर हो गईं जब सीधे मुकाबलों में कांग्रेस की जीतने की दर गिरकर 20 फीसद रह गई. इस वजह से भी इंडिया ब्लॉक के साझेदार दल ज्यादा हताश हुए. महाराष्ट्र में 75 सीटों पर कांग्रेस का भाजपा से मुकाबला था लेकिन वह 10 ही सीट जीत सकी.

हरियाणा में तो उसने भाजपा को जीत भेंट में दे दी जबकि जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस 32 सीटों पर चुनाव लड़ी और सिर्फ छह ही जीत पाई. खास तौर पर जम्मू में उसका प्रदर्शन बहुत चौंकाने वाला रहा जहां वह सिर्फ एक सीट हासिल कर सकी. इस क्षेत्र में पार्टी का यह सबसे खराब प्रदर्शन है. सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, नई दिल्ली में फेलो राहुल वर्मा कहते हैं, "हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को चुनौती देने के बाद इन राज्यों में कांग्रेस का प्रदर्शन संगठन की ज्यादा गहरी समस्या का संकेत देता है."

हाल में 15 राज्यों की 48 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में भी पार्टी का खराब प्रदर्शन बरकरार रहा. पार्टी से जुड़े एक रणनीतिकार कहते हैं, "लोकसभा में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन इसलिए किया क्योंकि उसने जोरदार अभियान के जरिए सरकार के खिलाफ जनता के गुस्से को एकजुट किया. लेकिन अंदरूनी तौर पर पार्टी का नेतृत्व और संगठन का ढांचा अभी भी नहीं बदला है. भाजपा ने रणनीति बदलकर इन खामियों को उजागर कर दिया."

प्रियंका की संभावना

झटकों के बावजूद ऐसा लगता है कि कांग्रेस आत्म निरीक्षण करने को लेकर बहुत इच्छुक नहीं है और इसके बजाए उसने उपचुनाव की छिटपुट सफलताओं में सांत्वना तलाश ली है. इनमें दो लोकसभा सीटों की जीत भी शामिल हैं—एक नांदेड़ (महाराष्ट्र) और दूसरी सबसे उल्लेखनीय वायनाड, जहां प्रियंका गांधी वाड्रा चुनाव जीती हैं. पार्टी ने कर्नाटक की तीनों विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की जिनमें से दो उसने भाजपा और जनता दल (एस) से छीनी. इससे भ्रष्टाचार के आरोपों के दबाव के बीच कांग्रेस के नेतृत्व वाली सिद्धरामैया सरकार को बहुत राहत मिली है.

इस बीच, संसद में प्रियंका के प्रवेश को पार्टी के लिए उल्लेखनीय पल के रूप में बताया जा रहा है. पहली बार गांधी परिवार के तीन सदस्य—प्रियंका, भाई राहुल और मां सोनिया—एक साथ संसद में दिखेंगे. उनकी मौजूदगी से कांग्रेस की आवाज मजबूत होने की उम्मीद है, खासतौर पर महिला अधिकारिता, सामाजिक न्याय और संवैधानिक मूल्य जैसे मसलों पर जिन्हें वह अपने राजनैतिक अभियानों में जोरदार तरीके से उठाती रही है.

प्रियंका का आगमन कांग्रेस के लिए अवसर और चुनौती दोनों ही पेश करता है. संसद में अपने साथ गांधी परिवार के दूसरे सदस्यों के होने से भाजपा जैसे विरोधी उन पर और ज्यादा हमलावर हो सकते हैं जो कांग्रेस पर पहले से ही परिवार केंद्रित पार्टी होने का आरोप लंबे अरसे से लगाते रहे हैं. हालांकि जमीनी समर्थन जुटाने की उनकी क्षमता और जोरदार अभियान के कौशल से कुछ आलोचनाओं को कम करने में मदद मिल सकती है. अक्सर अपनी दादी इंदिरा गांधी से उनकी वाक्पटुता की तुलना और मतदाताओं से निजी तौर पर जुड़ने के कौशल से प्रियंका में कांग्रेस की सार्वजनिक छवि को फिर से गढ़ने की संभावना है.

जरूरत नए नैरेटिव की

हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के चुनावों में संगठन के मजबूत ढांचे की मदद से स्थानीय ठोस नैरेटिव गढ़ने में कांग्रेस नाकाम रही है. दोनों राज्यों में पार्टी ने मोटे तौर पर राष्ट्रीय मसलों, जैसे 'संविधान बचाओ’ और जाति जनगणना को बहुत ज्यादा उठाया और ये रणनीतियां राज्यों के मुकाबलों में औंधे मुंह गिरीं.

प्रासंगिक रहने के लिए कांग्रेस को राष्ट्रीय मुद्दों को छोड़ना होगा और जमीनी स्तर के उन मसलों को उठाना होगा जो स्थानीय स्तर पर उभर सकें. मसलन, जाति जनगणना अन्य पिछड़ा वर्ग के समुदायों को लुभाती है लेकिन इससे दलितों और अन्य हाशिए वाले समूहों के छिटकने का भी खतरा है. संविधान बचाओ जैसे दूसरे राष्ट्रीय मसले भी अब अपना आकर्षण खो चुके हैं.

राहुल के प्रचार का नजरिया भी कांग्रेस का जुड़ाव न होने को दर्शाता है. उनका एकमात्र फोकस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेते हुए अदाणी विवाद होता है जिससे सहयोगी दल और मतदाता दोनों छिटक जाते हैं. वरिष्ठ घटक नेता शरद पवार ने उनकी रणनीति के साथ अपनी असहजता दिखाई और एक ही मसले पर प्रचार करने की अव्यावहारिकता पर जोर दिया.रेवंत रेड्डी और अशोक गहलोत जैसे कांग्रेस नेताओं के गौतम अदाणी के साथ सार्वजनिक जुड़ाव से भी यह मामला जटिल हो गया.

गुटबाजी भी स्थायी समस्या बनी हुई है. महाराष्ट्र में नाना पटोले, पृथ्वीराज चव्हाण और बालासाहेब थोरात जैसे वरिष्ठ नेताओं ने विरोधाभासी एजेंडे आगे बढ़ाए जिससे प्रदेश कांग्रेस बिन माझी के हो गई. हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा प्रचार में हावी रहे जिससे कुमारी शैलजा तथा रणदीप सिंह सुरजेवाला जैसे नेता हाशिए पर रहे.

उबरने का रास्ता

अपनी खोई चमक पाने के लिए कांग्रेस को फिर से अपने बुनियादी उसूलों पर लौटना होगा. उसे जमीनी स्तर पर मौजूदगी मजबूत करने, सांगठनिक ढांचे को खंगालने, जवाबदेही तय करने और ऐसे नैरेटिव गढ़ने की जरूरत है जो महज प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा से इतर हों. पार्टी व्यक्तित्व-संचालित अभियानों, सत्ता विरोधी कारकों और फौरी मसलों पर निर्भर रही है जो अभी तक बेअसर साबित हुए हैं.

बूथ लेवल के काम को कारगर तरीके से अंजाम देने, खासतौर पर भाजपा के साथ सीधे मुकाबले में उसकी नाकामी भी हमेशा का मसला रही है. राज्यों के चुनाव में स्थानीय मसलों और मतदाताओं के साथ सीधे जुड़ाव की जरूरत होती है जहां ऊपरी अभियान काम नहीं कर पाते. कांग्रेस को गांधी परिवार पर अपनी निर्भरता भी घटानी होगी और जमीनी स्तर का नजरिया अपनाना होगा, राज्यों के मजबूत नेताओं को अधिकार देने होंगे और मतदाताओं का विश्वास हासिल करने के लिए विश्वसनीय स्थानीय चेहरे तैयार करने होंगे.

इस जरूरत को देखते हुए पार्टी ने दिल्ली चुनावों के बाद महत्वपूर्ण सांगठनिक फेरबदल करने का वादा किया है. 2022 में उदयपुर चिंतन शिविर और 2023 में रायपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने अपनी चुनौतियों की पहचान की और राजनैतिक उपायों को तय किया. मकसद सिर्फ लोगों को हटाना नहीं बल्कि जवाबदेही तय करना, युवा नेताओं के लिए जगह तैयार करना और जमीनी इकाइयों को सशक्त बनाते हुए उन्हें अधिक निर्णय लेने का अधिकार देना है. ऐसा जवाबदेह, मजबूत सांगठनिक ढांचा बनाना, जिसमें कुछ लोग जोड़-तोड़ न कर सकें, इसका महत्वपूर्ण तरीका होगा.

कांग्रेस अब ऐसे जोखिम भरे मोड़ पर है, जहां वह इंडिया ब्लॉक के अपने सहयोगी दलों की उम्मीदों और अपनी खुद की आंतरिक अकर्मण्यता के बोझ तले फंसी हुई है. पार्टी के लिए निर्णायक परीक्षा की घड़ी है: विपक्षी राजनीति के मुख्य दल के रूप में अपनी योग्यता साबित करना या नए बनते राजनैतिक परिदृश्य में अप्रासंगिक होने का जोखिम.

Advertisement
Advertisement