
इस साल मई-जून में आम चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रचार अभियान का एक नैरेटिव यह भी था कि नरेंद्र मोदी सरकार के नेतृत्व में भारत ने दुनिया में अपनी सही जगह हासिल करना शुरू कर दिया है. वह 7 फीसद की दर से बढ़ रहा था, सबसे तेज गति से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था थी, 2027 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए तैयार थी और कारोबारी सुगमता में सुधार के मकसद से बनाई गई नीतियां विदेश से शानदार निवेश आकर्षित कर रही थीं. कम से कम कुछ वस्तुओं के लिए उसका विश्व का मैन्युफैक्चरिंग हब बनना तय लग रहा था.
मगर जमीनी स्थिति इतनी गुलाबी नहीं है. भारत जहां जोरदार रफ्तार से विकास कर रहा है, वहीं इस वृद्धि के अनुरूप प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नहीं आ रहा है. एफडीआई भारत की वृद्धि की कहानी में निवेशकों के जोखिम उठाने का पैमाना है. इसके विपरीत, एफडीआई गिरावट की ढलान पर है. दरअसल, वित्त वर्ष 2024 में भारत में कुल (या सकल) एफडीआई 16 फीसद से अधिक गिरकर 70.9 अरब डॉलर (6 लाख करोड़ रुपए) रह गया जो वित्त वर्ष 2022 में 84.8 अरब डॉलर (7.2 लाख करोड़ रुपए) था.
वित्त वर्ष 2023 में यह 71.4 अरब डॉलर (6.2 लाख करोड़ रुपए) था. जीडीपी के फीसद के रूप में एफडीआई की शुद्ध आवक 2020 में 2.4 फीसद थी जो 2021 में गिरकर 1.4 फीसद रह गई. 2022 में यह थोड़ा सा बढ़ा और जीडीपी का 1.5 फीसद हो गया लेकिन 2023 में अच्छा-खासा गिरते हुए महज 0.8 फीसद ही रह गया. 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट से ठीक पहले एफडीआई अपने सर्वकालिक उच्च स्तर जीडीपी के 3.6 फीसद पर पहुंच गया था.
फोर्ब्स मार्शल के को-चेयरपर्सन नौशाद फोर्ब्स कहते हैं, ''एफडीआई घरेलू निजी निवेश की राह का अनुसरण करता है और घरेलू निजी निवेश कुछ समय से सुस्त बना हुआ है. विदेशी कंपनियां भारत में पैसे बना रही हैं, लेकिन भारत में कमजोर मांग के कारण उनकी ऐसी कोई मजबूरी नहीं कि वे अपनी क्षमता में इजाफा करें. इसलिए वे पैसा वापस ले जाती हैं."

एफडीआई वापस तब जाता है जब अंतरराष्ट्रीय कॉर्पोरेशन रिटर्न कमाने के बाद अपना निवेश अपने गृह देश ले जाते हैं. यह लाभांश, शेयर बाई बैक और शेयर तथा प्रतिभूतियों से प्राप्त रकम जैसी परिसंपत्तियों के भुगतान के जरिए हो सकता है. रक्षा जैसे कुछ क्षेत्रों में तीन साल का लॉक इन पीरियड लागू है.
विशेषज्ञ कहते हैं कि वैश्विक वित्तीय संकट के बाद संरक्षणवाद में संचयी बढ़ोतरी हुई. यह अमेरिका-चीन व्यापार जंग और कोविड-19 महामारी के बाद से और तेज हुई है. इससे वैश्विक एफडीआई निवेश सुस्त पड़ा है. ऐसा लगता है कि एफडीआई निवेश कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित है और जो पैसा वापस जा रहा है, उसका हिस्सा बढ़ रहा है. इसमें जटिल नियमन भी इजाफा करते हैं जिनका पालन करना कारोबारों के लिए जरूरी होता है.
इन सब वजह से विदेशी निवेश धीमा हुआ है. वित्त वर्ष 2024 में आए 70.9 अरब डॉलर के एफडीआई में से विदेशी कंपनियां 44.4 अरब डॉलर (3.7 लाख करोड़ रुपए) या 63 फीसद वापस ले गईं या बेच गईं. इससे उस साल शुद्ध एफडीआई निवेश 26.5 अरब डॉलर (2.2 लाख करोड़ रुपए) रह गया.
एफडीआई में कमी भारत सरकार के लिए चिंता का सबब है. केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल में वाशिंगटन में एक कार्यक्रम में हताशा जताई और पूछा, "निवेशकों को किसने रोका है." उन्होंने कहा कि अगर किताबी धारणाओं से भी चलें तो एफडीआई का प्रवाह वहां बेहतर होना चाहिए, "जहां आर्थिक गतिविधियां अच्छी, मजबूत और गतिशील हैं."
उन्होंने कहा, ऐसा नहीं है कि भारत में कुछ भी नहीं आ रहा, पर इससे कहीं ज्यादा की गुंजाइश है. उन्होंने कहा, "नीतियां काम कर रही हैं. सुधार अभी भी हो रहे हैं, और होते रहेंगे. अर्थव्यवस्था का ज्यादा उदारीकरण होगा."
वर्ष 2023-24 में भारत आने वाली एफडीआई इक्विटी में शीर्ष पांच देशों में मॉरिशस 25 फीसद, सिंगापुर 23 फीसद, अमेरिका 9 फीसद, नीदरलैंड 7 फीसद और जापान 6 फीसद शामिल थे. इस दौरान जिन शीर्ष 5 क्षेत्रों में सबसे ज्यादा एफडीआई इक्विटी का निवेश आया, उनमें सेवा क्षेत्र 16 फीसद, कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर 15 फीसद, ट्रेडिंग 6 फीसद, दूरसंचार 6 फीसद और ऑटोमोबाइल 5 फीसद शामिल हैं.
राज्यों में सबसे अधिक 30 फीसद एफडीआई निवेश महाराष्ट्र में आया, उसके बाद कर्नाटक में 22 फीसद, गुजरात में 17 फीसद, दिल्ली में 13 फीसद और तमिलनाडु में 5 फीसद एफडीआई आया.
एफडीआई में गिरावट क्यों आई
फोर्ब्स कहते हैं, "निवेश में, घरेलू निजी निवेश और एफडीआई दोनों में, सुस्ती के प्रमुख कारणों में से एक उपभोक्ता मांग का सुस्त पड़ना है." धीमी खपत को लेकर इस तरह के पक्के संकेत मिल रहे हैं, यहां तक कि हाल में खत्म हुए दीवाली त्योहार से भी ऐसे संकेत मिले हैं. वे कहते हैं, "एफएमसीजी कंपनियों का प्रदर्शन इस मंदी का एक अच्छा संकेतक होता है."
भारी मॉनसून, वेतन में कम इजाफा और ऊंची महंगाई, खासतौर पर खाद्यान्न की, ने शहरी उपभोग पर असर डाला है जिससे कंपनियों के नतीजे कमजोर रहे हैं. कमजोर मांग से विदेशी कंपनियों को ऐसा कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता कि वह क्षमता जोड़ने के लिए नया निवेश लाएं क्योंकि मैन्युफैक्चरिंग संयंत्र पहले से ही अधिक क्षमता पर है.

एफडीआई के पैटर्न में बदलाव आना दूसरी वजह है. वित्तीय सेवा फर्म सिस्टमैटिक्स ग्रुप में इक्विटीज के सह प्रमुख और शोध प्रमुख धनंजय सिन्हा कहते हैं, "एफडीआई की प्रकृति में बदलाव हुआ है और यह रुझान 2012-13 के बाद विकसित हुआ है. एफडीआई में वृद्धि के साथ-साथ पैसा वापस ले जाने का हिस्सा भी बढ़ा है. (विदेशी निवेशकों के बीच) कारोबारी मानसिकता है न कि लंबी अवधि के पूंजी निर्माण की प्रतिबद्धता."
वे कहते हैं कि 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद खासतौर से 'खुद को देखने की प्रवृत्ति' प्रमुखता से उभरी है. वैसे कोई यह भी कह सकता है कि बाजार निवेशक को मुनाफा कमाने और अपना निवेश निकालने की सुविधा देता है जो एक 'स्वस्थ' प्रक्रिया है, मगर पैसा वापस ले जाने से लंबी अवधि की परिसंपत्तियों के सृजन या टेक्नोलॉजी ट्रांसफर में मदद नहीं मिलती.
इतना ही नहीं, आईटी, ट्रेडिंग और गैर पारंपरिक ऊर्जा जैसे कुछ क्षेत्रों में एफडीआई की बहुलता है. वित्त वर्ष 2017 के बाद से, एफडीआई निवेश की बहुलता के नौ शीर्ष क्षेत्र रहे हैं जिनमें मुख्य रूप से सेवा क्षेत्र है जो 49 फीसद से बढ़कर 2024 में करीब 70 फीसद हो गया. इसके विपरीत, अन्य व्यापक 53 सेक्टरों में, मुख्य रूप से मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 30 फीसद तक गिर गया है.
व्यापार संरक्षणवाद में वृद्धि एक अन्य कारण है जिसका एफडीआई के निवेश पर असर हुआ है. सिस्टमैटिक्स के एक अध्ययन के अनुसार, 2018 में अमेरिका-चीन की कारोबारी जंग और महामारी के बाद से संरक्षणवाद में तेजी आई, जिससे वैश्विक निवेश की आवक और जावक दोनों में सिकुड़न हुई है. आईटी सेक्टर के इतर, सेक्टरोल एफडीआई से संकेत मिलता है कि निर्यात आधार बनाने के बजाए अल्पावधि में घरेलू मौकों से लाभ उठाने के इरादों का दबदबा बढ़ा है.
रिपोर्ट कहती है कि इस तरह 'मेक इन इंडिया' और पीएलआई (उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन) योजनाओं के जरिए नीतिगत पहलकदमियों से इच्छित उद्देश्य हासिल नहीं हो सके हैं. इसके अनुसार, पीएलआई योजना के तहत फोकस वाले 14 क्षेत्रों में से सिर्फ गैर-पारंपरिक ऊर्जा को एफडीआई में प्रमुखता मिली है. ज्यादा निवेश सेवाओं में आया है क्योंकि इसमें नियमन अपेक्षाकृत कम हैं.
हाल के वर्षों में भारत ने नीति प्रोत्साहनों के साथ-साथ मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) की तरफ आक्रामक तरीके से रुख किया है. इनका उद्देश्य मैन्युफैक्चरिंग करना, निर्यात हब बनाना और रोजगार सृजन में एफडीआई आकर्षित करना रहा है. हालांकि सिस्टमैटिक्स की रिपोर्ट के अनुसार, तथ्य बोलते हैं कि इस तरह का लाभ अपर्याप्त रहा है. शुरुआती वर्षों के बाद, एफटीए देशों के साथ भारत का व्यापार घाटा अच्छा खासा बढ़ गया क्योंकि भारत ने एफटीए साझेदार देशों को ज्यादा बाजार पहुंच देने के लिए ऊंचे आयात शुल्कों में कटौती की.
एफटीए के साझेदार देशों के साथ भारत का वाणिज्य व्यापार घाटा 2007-09 और 2020-22 के बीच बहुत ज्यादा बढ़ गया. इसमें आसियान देशों के साथ 300 फीसद का इजाफा हुआ तो दक्षिण कोरिया के साथ 161 फीसद और जापान के साथ 138 फीसद की बढ़ोतरी हुई.
रिपोर्ट कहती है, "इसके विपरीत एफटीए के साझेदारों के साथ भारत को निर्यात में थोड़ा ही फायदा हुआ क्योंकि उन देशों में आमतौर पर आयात शुल्क कम ही थे. इस तरह एफडीआई नियमन में सुगमता होने के बावजूद संबंधित आयात शुल्क कम करने से निर्यातोन्मुखी एफडीआई को कोई प्रोत्साहन नहीं मिला है."
भारतीय निर्यात पर सख्त मानकों या नियमों जैसी गैर-शुल्क व्यापार बाधाओं का भी असर हुआ है, साथ ही साथ हमारी कई कंपनियों की निर्यात प्रतिस्पर्धा भी कमजोर है.
निवेशकों के लिए विकल्प भी काफी ज्यादा बढ़ गए हैं. बैंक ऑफ बड़ौदा में मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस कहते हैं, "पहले, चीन और भारत सरीखे उभरते बाजार ही पसंदीदा ठिकाने होते थे. अब अमेरिका और यूरोप में भी बहुत सारा पुनर्निर्माण काम चल रहा है, लिहाजा अवसर बढ़ गए हैं. धन भी कम हो गया है और इसे विकसित राष्ट्रों समेत कई देशों में वितरित किया जा रहा है."
एफडीआई को पटरी पर लाना
आर्थिक समीक्षा 2023-24 कहती है कि सभी क्षेत्रों में कारोबारी सुगमता बढ़ाने पर ध्यान जरूरी है और इसे उन सेक्टरों में भी बढ़ाया जाना चाहिए जो एफडीआई के लिए आकर्षक हैं. समीक्षा कहती है, "बीते कुछ साल में कारोबारी सुगमता के लिहाज से कई लाभ हुए हैं, मगर सरकार के सभी स्तरों—राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय—और सभी नियामकों के स्तर पर और विस्तृत काम किया जा सकता है."
नियामकीय अनुपालन प्रबंधन फर्म टीमलीज रेगटेक ने इस साल मई में एक शोध पत्र जारी किया. उसमें कहा गया कि अभी 1,536 अधिनियम और नियम, 69,233 अनुपालन और 6,618 वार्षिक फाइलिंग हैं जिनका अनुपालन कंपनियों को करना होता है. बेशक, यह हो सकता है कि हर कंपनी को सभी अनुपालन नहीं करने पड़ते हों और ये अलग-अलग राज्य के हिसाब और उनके कारोबार की प्रकृति के अनुसार अलग हों. ज्यादातर अनुपालन श्रम से संबंधित हैं जिनका कानूनों और नियमों में 30 फीसद और अनुपालनों में 47 फीसद हिस्सा है.
विशेषज्ञों की राय है कि सरकार को पूंजी निर्माण की राह के रूप में एफडीआई के बजाए घरेलू कंपनियों के निवेश को प्रोत्साहित करने की कोशिश करनी चाहिए. फोर्ब्स का कहना है, "निजी निवेश में बहाली, जब भी होगी, अधिक एफडीआई के आने का पहला संकेतक होगा." सबनवीस भी इससे सहमति जताते हैं, "सरकार कारोबारी सुगमता या परिचालन के लिए केवल नीतिगत ढांचा और माहौल ही मुहैया करा सकती है."
मारुति सुजूकी के चेयरमैन आर.सी. भार्गव जोड़ते हैं, "सरकार की नीतियां यह तय कर सकती हैं कि मैन्युफैक्चरिंग बढ़ेगी या नहीं, वे वास्तव में मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ को बढ़ा नहीं सकतीं. वृद्धि की रफ्तार हमेशा ही कंपनियों के कदमों से तय होगी."
फोर्ब्स कहते हैं कि सरकार को फरवरी में आगामी बजट का इस्तेमाल काफी समय से लंबित कुछ सुधारों की घोषणा के लिए करना चाहिए जिनसे अधिक विदेशी निवेश आकर्षित होगा. उन्होंने कहा, ''वित्तीय क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्रों के कुछ बैंकों का निजीकरण लंबित पड़ा है. हमारी ब्याज दरें अभी भी उन कई देशों के मुकाबले बहुत ज्यादा हैं जो काफी अधिक एफडीआई आकर्षित कर रहे हैं. और 2019 में पारित चार श्रम संहिता अभी भी क्रियान्वयन के लिए लंबित हैं.
सीतारमण और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल दोनों ने हाल में वृद्धि को हतोत्साहित करने के कारण के रूप में ऊंची ब्याज दरों की तरफ इशारा किया था. वे चाहते थे कि रिजर्व बैंक महंगाई से निबटने के लिए ऊंची दरों का इस्तेमाल करने के अपने सख्त रुख में बदलाव लाए. सीतारमण ने हाल में मुंबई में भारतीय स्टेट बैंक के एक कार्यक्रम में कहा, "ऐसे समय में जब हम चाहते हैं कि उद्योग क्षमताएं बनाएं, हमें बैंक ब्याज दरें ज्यादा किफायती रखने की जरूरत है."
देश के कुल जीडीपी में एफडीआई का हिस्सा भले ही अपेक्षाकृत छोटा हो सकता है मगर इससे भारत में विदेशी निवेशकों की दिलचस्पी का संकेत मिलता है. इस पैमाने से कुछ ऐसे चिंताजनक मसले हैं जिनसे निबटने की जरूरत है. एफडीआइ में लंबी सुस्ती उस अर्थव्यवस्था के लिए कतई अच्छी नहीं है जिसकी महत्वाकांक्षा विश्व की तीन शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने की है.
एफडीआई क्यों कम हो रहा?
- विदेशी कंपनियां वित्त वर्ष 2024 में कुल एफडीआई में से 44.4 अरब डॉलर (3.7 लाख करोड़ रुपए) या 63 फीसद वापस ले गईं.
- आईटी, ट्रेडिंग और गैर-पारंपरिक ऊर्जा सरीखे क्षेत्रों में निवेशकों को भूमि से संबंधित नियमों से निबटना नहीं पड़ता, इसलिए इन्हीं क्षेत्रों में उनका पूरा जोर है. नतीजतन, इन्हीं क्षेत्रों में एफडीआइ की बहुलता है.
- आलोचकों का कहना है कि 'मेक इन इंडिया’ और पीएलआइ स्कीमों के जरिए नीतिगत पहलों से वांछित लक्ष्य हासिल नहीं हो सके हैं. पीएलआइ स्कीम के तहत फोकस वाले 14 क्षेत्रों में सिर्फ गैर-पारंपरिक ऊर्जा को एफडीआइ प्रवाह में प्रमुखता मिली है.
- मुक्त व्यापार समझौतों से भारत के साझेदार देशों को अधिक लाभ हुए हैं क्योंकि भारत ने आयात शुल्क घटाए हैं.
- निवेशकों के लिए उपलब्ध वैश्विक विकल्प बढ़ गए हैं क्योंकि अमेरिका और यूरोप में अवसर बढ़ रहे हैं. फंड भी कम हो गया है.