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प्रधान संपादक की कलम से

साल 2023 में किए गए 2,000 से ज्यादा कर्मचारियों के एक सर्वे में 60.1 फीसद ने अत्यधिक या हद से ज्यादा तनाव बताया, जो 2022 के मुकाबले 30.3 फीसद ज्यादा थे. सबसे बड़ा आंकड़ा, 64.4 फीसद, 21-30 आयु समूह में था

इंडिया टुडे कवर : दफ्तर में काम का जानलेवा तनाव
इंडिया टुडे कवर : दफ्तर में काम का जानलेवा तनाव
अपडेटेड 25 नवंबर , 2024

—अरुण पुरी

कहावत है कि कड़ी मेहनत से कोई नहीं मरता. तमाम संस्कृतियों में इसके गुण गाए जाते हैं. भले-चंगे रहने के लिए डॉक्टर जो मंत्र अक्सर सबसे ज्यादा बार-बार दोहराते हैं, वह है—हर चीज में संयम बरतो. आज 21वीं सदी की कभी न ठहरने वाली दुनिया में यह मुमकिन नहीं. दरअसल, दुनिया के सबसे मेहनती देश जापान में इसके बदतरीन नतीजों के लिए एक नाम है—करोशी. यानी काम के बोझ से मौत.

हाल में हम यह तकलीफदेह परिघटना ज्यादा और ज्यादा घटते देख रहे हैं. भारत में इस मुद्दे ने हाल में 26 वर्षीया मेधावी चार्टर्ड अकाउंटेंट ऐना सेबेस्टियन पेरायिल की व्यथित मां की लिखी चिट्ठी से खासी अहमियत अख्तियार कर ली. ऐना ने एक ग्लोबल कंसल्टेंसी की सदस्य फर्म में अपना 'ड्रीम जॉब' शुरू ही किया था कि एक दिन कथित तौर पर काम के भारी बोझ से उनके शरीर ने जवाब दे दिया और उनकी मौत हो गई.

मां के पत्र ने मार्मिक और हृदयस्पर्शी ढंग से इसका निचोड़ बयान किया, जिसने 'घातक कार्य संस्कृतियों' पर राष्ट्रव्यापी बहस छेड़ दी. उन्होंने लिखा कि किस तरह हम ''बहुत ज्यादा काम को महिमामंडित करते हुए उन भूमिकाओं का निर्वाह कर रहे इंसानों की अवहेलना और तिरस्कार करते हैं... जिसकी कीमत हमें इस कदर संभावनाओं से भरपूर नौजवान लड़की की जान से चुकानी पड़ी.''

ये शब्द कई लोगों के मन को छुएंगे, पर शायद 1995 और 2012 के बीच जन्मे जेन ज़ी के युवाओं को और भी ज्यादा, जिनमें से करीब आधे भारत के कार्यबल का हिस्सा बन चुके हैं. 2023 में किए गए 2,000 से ज्यादा कर्मचारियों के एक सर्वे में 60.1 फीसद ने अत्यधिक या हद से ज्यादा तनाव बताया, जो 2022 के मुकाबले 30.3 फीसद ज्यादा थे. सबसे बड़ा आंकड़ा, 64.4 फीसद, 21-30 आयु समूह में था. 41-50 के आयु समूह ने बनिस्बतन कम तनाव बताया, फिर भी ये 53.6 फीसद जितने विकट तो थे ही.

शहरी भारत में जेन ज़ी को जो दुनिया विरासत में मिली है, वह उनके माता-पिता की दुनिया से बहुत अलग है. उन्हें बुनियादी जरूरतों—खाना, घर और वित्तीय सुरक्षा—का ख्याल नहीं रखना पड़ता, जैसा कि उनके माता-पिता को रखना पड़ता था. उनके लिए काम रोजी-रोटी का मामला नहीं बल्कि ज्यादा सार्थक तलाश का है. इसीलिए गिग इकोनॉमी, फ्रीलांसिंग और यहां तक कि स्टैंड-अप कॉमेडी सरीखे काम-धंधों में बढ़ोतरी हुई है.

उन्हें कई-कई घंटे लगातार काम नहीं करना पड़ता, जो उनसे कम भाग्यशाली कर्मचारियों या अब भी पारंपरिक क्षेत्रों में कार्यरत लोगों को करना पड़ता है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के ताजातरीन डेटा के मुताबिक, 51 फीसद भारतीय कर्मचारी पांच दिनों के कार्य हफ्ते में 49 घंटे या दिन में 10 घंटे काम करते हैं.

इसी की बदौलत हम दुनिया में दूसरा सबसे ज्यादा लंबे कार्य घंटों वाला देश बन गए. उत्पादकता को मानवीय भलाई से ज्यादा तरजीह देने वाली 'हसल' या 'धक्कापेल' की संस्कृति भारत में भले ही आइटी कंपनियों ने सिलिकन वैली से आयात की हो, लेकिन यह बीमारी अब कंसल्टिंग, मार्केटिंग और अकाउंटिंग के क्षेत्रों में भी फैल गई है.

भूमंडलीकरण और 2437 कनेक्टिविटी ने उस कार्यदिवस को और भी लंबा खींच दिया है. दुनिया भर के ग्राहकों की जरूरतें पूरी करते हुए भारत ज्यों-ज्यों सर्विस इकोनॉमी बना, भारतीय कर्मचारियों के कार्यदिवस की न कोई साफ शुरुआत रह गई और न अंत. जैसा कि दिल्ली में रहने वाले एक 30 वर्षीय कंसल्टिंग पेशेवर कहते हैं, ''हांगकांग के अपने साथियों के साथ काम करने के लिए मैं सुबह ठीक 9 बजे लॉग इन करता और रात 3 बजे तक रहता.'' अक्सर मध्यरात्रि में काम खत्म करने के बाद भी वे अगले दिन की रिपोर्टों पर लगातार काम करते. वे कहते हैं, ''रात 12 या 1 बजे लॉग आउट करना सामान्य बात थी.'' इसका मतलब है नियमित 16 घंटे लगातार काम.

नतीजा हम सबका जाना-पहचाना है: मिनट-दर-मिनट डिजिटल अपडेट ने जहां अर्थव्यवस्थाओं में क्रांति का सूत्रपात किया, उन्होंने काम के स्वरूप का भी कायापलट कर दिया. काम अब ऐसी चीज नहीं रह गया जो आप शाम 5 बजे दफ्तर की डेस्क पर छोड़कर चले आते हैं, आप उसे चौबीसों घंटे और सातों दिन घर में, ई-मेल और व्हाट्सऐप पर करते रहते हैं. महामारी ने पहले अक्षरों से मिलकर बने एक और बेमेल छोटे नाम का सूत्रपात किया—डब्ल्यूएफएच, यानी वर्क फ्रॉम होम.

इसका हाइब्रिड या मिला-जुला अवतार अब भी जिंदा है, जिसने कार्यस्थलों को और भी निराकार जगह बना दिया, जहां निजी सीमाओं का कोई सम्मान नहीं. फिर हैरत नहीं कि चेतावनी के संकेतों की महामारी आ धमकी—अत्यधिक दुश्चिंता, निराशा, चिरस्थायी थकान और अवसाद. इनके बदतरीन शिकार या तो बेहद थके जागते हैं और जिम में धराशायी हो जाते हैं या काम के दबाव को न झेल पाने के कारण अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेते हैं.

2021 में जारी वैश्विक आंकड़ों से पता चला कि 2016 में कई-कई घंटे लगातार काम करने की वजह से 194 देशों में 7,45,194 लोग इस्केमिक हृदय रोग और पक्षाघात से मारे गए, जो 2000 के मुकाबले 29 फीसद ज्यादा थे. हफ्ते में 55 से ज्यादा घंटे काम करने वाले 35-40 घंटे काम करने वालों के मुकाबले कहीं ज्यादा जोखिम से घिरे थे.

भारत के ताजातरीन डेटा से पता चलता है कि 62 फीसद कर्मचारी तनाव और बेइंतहा थकान बताते हैं, जो 20 फीसद के वैश्विक औसत से तिगुने हैं. 2023 के एक अध्ययन से हासिल वैश्विक तुलनाएं भी इतनी ही चिंताजनक थीं: काम और जीवन में समुचित संतुलन न होने, घर और देखभाल के कामों की सामाजिक अपेक्षाओं से उसके और बढ़ जाने, दफ्तर में लैंगिक पक्षपात और मान्यता नहीं मिलने के कारण महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा तनावग्रस्त थीं. 

सीनियर एसोसिएट एडिटर सोनल खेत्रपाल की आवरण कथा भारत के उन निराशाजनक कार्यस्थलों के कामकाजी माहौल की तस्वीर उकेरने से कहीं आगे जाती है जो 2437 वैश्विक सेवा कारखानों में तब्दील हो गए हैं. हम उन तरीकों की तरफ इशारा कर रहे हैं जिनसे कंपनियों को मानव शरीर पर तनाव के विनाशकारी प्रभावों को स्वीकार करके अपनी कुशलता की रणनीतियों का फिर से आकलन करना होगा. मनोवैज्ञानिक करुणा भास्कर कहती हैं, ''इसे रबड़ बैंड की तरह समझिए. बहुत ज्यादा खींचेंगे तो टूट जाएगा.'' हम नए भारत को टूटते देखना नहीं चाहते.

— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह)

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