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क्या है ट्रेडमार्क जारी करने की प्रक्रिया, महानियंत्रक की 'चूक' से कारोबारी क्यों पड़े मुश्किल में?

ट्रेडमार्क जारी कराने की व्यवस्था अनधिकृत और आउटसोर्स कर्मचारियों के भरोसे होने के चलते देश भर के ट्रेडमार्क दफ्तरों में हजारों मामले अटके. इनकी समीक्षा का जिम्मा अब एक समिति के हवाले. बेचारे कारोबारी पसोपेश में

दिल्ली के द्वारका इलाके में स्थित ट्रेडमार्क और पेटेंट दफ्तर
दिल्ली के द्वारका इलाके में स्थित ट्रेडमार्क और पेटेंट दफ्तर
अपडेटेड 8 नवंबर , 2024

दिल्ली के ओखला में स्थित 'न्यूट्रीहर्ब्स' नाम का फूड सप्लीमेंट बनाने वाली कंपनी के मालिक भूपेंद्र सिंह ने दिसंबर 2021 में अपने व्यापार चिह्न या ट्रेडमार्क रजिस्ट्रेशन के लिए दिल्ली स्थित ट्रेडमार्क कार्यालय में अर्जी दी. 26 फरवरी, 2024 को उनका ट्रेडमार्क निर्धारित प्रक्रिया के तहत ट्रेडमार्क जर्नल में प्रकाशित भी हो गया लेकिन 27 सितंबर को उन्हें ट्रेडमार्क दफ्तर से ई-मेल आया कि अब आपको आवंटित व्यापार चिह्न की समीक्षा होगी क्योंकि इसे आउटसोर्स कर्मचारी ने जारी किया है.

इसके दूसरे ट्रेडमार्क से मिलता-जुलता होने का अंदेशा है. आप संबंधित दस्तावेज जमा करें या सुनवाई की मांग करें. एक महीने में नोटिस का जवाब देने को कहा गया. नोटिस में कोलकाता हाई कोर्ट के अगस्त 2024 के एक फैसले का हवाला दिया गया जिसमें ट्रेडमार्क दफ्तर के आउटसोर्स कर्मचारियों की ओर से किए गए फैसलों को अमान्य करार दिया गया था. भूपेंद्र न्यूट्रीहर्ब्स में करीब 10 करोड़ रुपए का निवेश कर चुके हैं. अब वे कंपनी के भविष्य को लेकर असमंजस में हैं और अपने वकील को आड़े हाथ ले रहे हैं.

वकील उनसे ऊंची अदालतों तक जाकर न्याय दिलाने का वादा कर रहे हैं. लेकिन भूपेंद्र की चिंता जस की तस है क्योंकि वे पैकेजिंग, प्रिंटिंग और पब्लिसिटी पर तीन करोड़ रु. से ज्यादा खर्च कर चुके हैं. यह अकेले भूपेंद्र की चिंता नहीं, हजारों कारोबारियों की है क्योंकि आउटसोर्स कर्मचारियों ने ऐसे हजारों फैसले किए हैं जिनकी समीक्षा हो रही है.

भूपेंद्र सिंह, न्यूट्रीहर्ब्स, दिल्ली

ट्रेडमार्क अदृश्य संपदा (इनविजिबल प्रॉपर्टी) होती है और इसे बेचा भी जाता है यानी हस्तांतरण भी होता है. भारत में कंट्रोलर जनरल ऑफ पेटेंट्स, डिजाइन ऐंड ट्रेड मार्क्स (सीजीपीडीटीएम) दफ्तर ट्रेडमार्क, पेटेंट, जीआइटैग जैसे बौद्धिक संपदा अधिकार देने का काम करता है और यह केंद्र सरकार के वाणिज्य मंत्रालय के अधीन है. महानियंत्रक यहां का सबसे बड़ा अफसर होता है जिसकी तैनाती केंद्र सरकार करती है और फरवरी 2022 से इस पद पर हैं डॉ. उन्नत पी. पंडित. देश-विदेश के बड़े उद्योगों से लेकर स्टार्ट-अप तक सब ट्रेडमार्क सिक्योर और प्रोटेक्ट कराने ट्रेडमार्क दफ्तर आते हैं.

पेटेंट और ट्रेडमार्क ऑफिस वैश्विक प्रतिष्ठा का भी मामला है. फार्मा, लॉजिस्टिक्स, मोबाइल, टेलीकॉम, एफएमसीजी, इलेक्ट्रॉनिक्स आदि सेक्टरों की कंपनियां भारत में अपनी सेवाएं और उत्पाद बेचने से पहले ही ट्रेडमार्क और पेटेंटिंग कराती हैं. कई ई-कॉमर्स वेबसाइट्स भी बिना ट्रेडमार्क के वेंडर को बिजनेस नहीं करने देतीं, उनके भी आवेदन लटके हैं.

उत्तर प्रदेश के एक ट्रेडमार्क अटॉर्नी बताते हैं, ''सबसे ज्यादा दिक्कत विदेशी क्लाइंट्स के साथ होती है. हमें उनको टाइमलाइन बतानी होती है कि कितने समय में ट्रेडमार्क हासिल हो जाएगा, कंपनियां उसी के हिसाब से भारतीय बाजार में अपनी स्ट्रैटजी प्लान करती हैं. मेरे किसी विदेशी क्लाइंट का ट्रेडमार्क नामंजूर होगा तो जवाब देना मुश्किल होगा.''

भारत में दिसंबर 2023 तक करीब 30 लाख ट्रेडमार्क लोगों के पास थे. कारोबारियों की तरफ से ट्रेडमार्क के लिए हर साल तीन से चार लाख नई अर्जियां आती हैं. कारोबारी को ब्रांड पहचान डेवलप करने में कई तरह के खर्च आते हैं. बड़े बिजनेस में विज्ञापन, प्रोमोशन, प्रोडक्ट मार्केटिंग सब कुछ ट्रेडमार्क के मंजूर होने पर निर्भर होता है. ट्रेडमार्क खारिज होने पर क्लाइंट का विश्वास डगमगाता है जो बिजनेस के लिए ठीक नहीं. और यही भूपेंद्र सिंह के साथ हुआ.

उनके मामले में ट्रेडमार्क पूरी प्रक्रिया के साथ रजिस्टर हुआ. फिर ट्रेडमार्क दफ्तर की गलती का खामियाजा क्लाइंट क्यों भुगते? एक वकील कहते हैं, ''डिपार्टमेंट को गलती की भरपाई करनी चाहिए. लंबित मामलों को खत्म करने के लिए जो तरीका अपनाया गया, वह गलत था.'' 

दरअसल, इस सबकी जड़ में है महानियंत्रक डॉ. पंडित का वह विवादित फैसला जिसके तहत दफ्तर में मनमाने तरीके अपनाकर आउटसोर्स कर्मचारी रखे गए. उन्होंने मंत्रालय से लंबित मामले निबटाने के लिए अतिरिक्त कर्मचारियों की मांग की. डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी ऐंड प्रमोशन (डीआईपीपी) ने महानियंत्रक को संविदा पर 790 कर्मचारी बतौर टेक्निकल असिस्टेंट रखने की मंजूरी दी, जिनमें से 580 ट्रेडमार्क के लिए थे.

इसके बाद कर्मचारी रखने को डॉ. पंडित ने मंत्रालय यानी डीआईपीपी की मंजूरी के बगैर दिसंबर 2022 में क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया (क्यूसीआई) नामक संस्था के साथ एमओयू पर दस्तखत कर दिए. यानी संविदा पर रखने के बजाए कर्मचारी रखने का काम आउटसोर्स कर क्यूसीआई को दे दिया गया. उन्होंने प्रतिस्पर्धी निविदा आमंत्रित करने की तय प्रक्रिया दरकिनार कर एक वेंडर को काम सौंप दिया. यही वह गलती थी जिसकी वजह से ट्रेडमार्क आदि के काम उलट-पुलट गए.

आउटसोर्स कर्मचारियों ने काम शुरू किया तो गड़बड़ियां सामने आईं क्योंकि उन्हें ट्रेडमार्क, पेटेंट आदि जारी करने के काम का कोई तजुर्बा नहीं था जबकि यह काम बेहद विशेषज्ञता वाला और अर्ध न्यायिक (क्वासी जूडीशियल) काम है क्योंकि इसमें दावे-प्रतिदावे होते हैं. किसी को ट्रेडमार्क आवंटित होता है तो उसका विरोध होता है, नोटिस जारी होते हैं और दोनों पक्षों को सुनने के बाद फैसला देना होता है. यह काम ट्रेडमार्क के पांच शहरों (दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, अहमदाबाद) में स्थित कार्यालयों में नियमित रूप से नियुक्त अधिकारी ही करते हैं. लेकिन जून 2023 से अप्रैल 2024 तक इसे आउटसोर्स कर्मचारियों ने भी किया.

अक्षम आउटसोर्स कर्मचारियों ने बगैर रिसर्च दनादन ट्रेडमार्क बांट डाले. इससे फैसलों में खामियां निकलीं और विवाद पैदा होने लगे. शिकायत मंत्रालय यानी डीआईपीपी तक पहुंचने लगी. उनमें कहा गया कि महानियंत्रक दफ्तर में अनियमितताएं और भ्रष्टाचार है. इस पर डीआईपीपी ने महानियंत्रक डॉ. पंडित से आउटसोर्स कर्मचारियों को अर्ध न्यायिक शक्तियां देने पर सफाई मांगी और शिकायतों के संबंध में कई चिट्ठियां भेजीं.

यह खतोकिताबत जनवरी से मार्च 2024 तक चली. जवाब न आने पर डॉ. पंडित को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया. तब जाकर उन्होंने अपना पक्ष रखा लेकिन मंत्रालय इससे संतुष्ट न हुआ क्योंकि इसमें प्रक्रिया और नियमों का खुला उल्लंघन हुआ था.

सूत्र बताते हैं कि अप्रैल 2024 में वाणिज्य मंत्री, महानियंत्रक और क्यूसीआई के एमडी के बीच बैठक हुई. इसके बाद निर्देश दिए गए कि मामले की संवेदनशीलता के मद्देनजर भारत के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) से इस पर कानूनी राय ली जाए. इसकी खातिर विधि मंत्रालय से गुहार लगाई गई.

एएसजी ऐश्वर्या भाटी ने मंत्रालय के अनुरोध पर बिंदुवार अपनी विधिक राय वाणिज्य मंत्रालय को दी. उन्होंने अपनी कानूनी राय में कहा, ''सीजीपीडीटीएम के पास शो कॉज, सुनवाई, अपोजिशन जैसे अर्ध न्यायिक कार्यों के लिए आउटसोर्स कर्मचारी रखने का अधिकार नहीं. इस तरह के कामों के लिए वैधानिक प्रावधानों का सख्ती से पालन होना चाहिए. इन अर्ध न्यायिक कार्यों को केंद्र सरकार की तरफ से निर्धारित भर्ती नियमों के तहत नियुक्त किए गए अधिकारी ही अंजाम दे सकते हैं.''

भाटी ने इस अभूतपूर्व स्थिति से निबटने के तरीके भी सुझाए, ''अनधिकृत आउटसोर्स कर्मचारियों के फैसलों को शून्य घोषित किया जाए. वैधानिक रूप से अधिकृत अधिकारियों की कमेटी बनाकर अनधिकृत कर्मचारियों के फैसलों को रिवैलिडेट (पुन: वैध) किया जाए. फैसलों और सही स्थिति की जानकारी सभी पार्टियों को अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराई जाए.''

इससे पहले कोलकाता हाई कोर्ट ने भी एक मामले में फैसला सुनाते हुए आउटसोर्स कर्मचारियों के फैसले को शून्य और अमान्य करार दे दिया था. महानियंत्रक दफ्तर से जारी हो रहे नोटिसों में इसी फैसले का हवाला दिया गया है. अप्रैल में आउटसोर्स कर्मचारियों की कार्यअवधि खत्म हो गई तो कामकाज में हुई गड़बड़िया तेजी से सामने आने लगीं. अब ट्रेडमार्क आवेदकों और आवंटियों को नोटिस दिए जा रहे हैं.

रिवैलिडेशन पर वरिष्ठ ट्रेडमार्क अटॉर्नी अजय साहनी कहते हैं, ''सुप्रीम कोर्ट के दो फैसले जिनमें कहा गया है कि जो फैसले शून्य (नलिटी) हैं, वे हमेशा शून्य ही रहेंगे. इसलिए क्यूसीआई के कर्मचारियों के फैसलों की समीक्षा भी वैधानिक नहीं है. ट्रेडमार्क ऐक्ट में भी किसी समिति से फैसलों की समीक्षा का प्रावधान नहीं है. इसमें आपत्ति दर्ज कराने पर रिव्यू होता है. यह भी उसी का होता है जो पहले स्टेज पर अधिकृत व्यक्ति ने किया हो.''

मुंबई के कॉर्पोरेट अधिवक्ता अभिषेक रस्तोगी कहते हैं, ''आउट ऑफ जूरिस्डिक्शन काम हुआ, फिर करेक्शन हुआ. अगर रेगुलराइज हो गया तो कोई दिक्कत नहीं होगी लेकिन खिलाफ फैसला आया तो वे आगे कोर्ट में जाकर न्याय मांग सकते हैं.'' लेकिन कारोबारी कोर्ट के इतने चक्कर लगाएगा तो बिजनेस कैसे करेगा?

वकीलों का कहना है कि ट्रेडमार्क पॉलिसी में स्थिरता नहीं है. साधारण एग्जामिनेशन स्टेज की कोई तय समय सीमा नहीं है. यह सालों तक चल सकती है. अगर आप तेज रफ्तार से एग्जामिनेशन कराना चाहें तो पांच गुनी ज्यादा फीस देनी होती है और तीन महीने में प्रक्रिया पूरी हो जाती है. वकील बताते हैं कि पांच साल पहले साधारण एग्जामिनेशन की एक महीने में रिपोर्ट मिल जाती थी. छह महीने में सर्टिफिकेट मिल जाता था. लेकिन अब एग्जामिनेशन में ही छह महीने से ज्यादा समय लग रहा है. स्टाफ की कमी भी इसकी एक वजह है. मौजूदा लंबित मामलों की संख्या किसी को पता नहीं. इंडिया टुडे ने डॉ. पंडित को ई-मेल भेजकर पूछा कि आउटसोर्स कर्मचारियों ने कितने ट्रेडमार्क जारी किए और रिवैलिडेशन कब तक हो जाएगा? लेकिन इसका कोई जवाब नहीं मिला.

सीजीपीडीटीएम ऑफिस में कामकाज में गड़बड़ी के खिलाफ दिल्ली हाइकोर्ट में रिट याचिका दाखिल हो चुकी है. याचिकाकर्ता के वकील ज्ञानंत सिंह ने बताया, ''महानियंत्रक डॉ. पंडित आईटी सेक्शन के जरिए अफसरों को केस बेतरतीबी से ट्रांसफर कर थे. यानी सुनवाई किसी अफसर ने की और फैसले के स्टेज पर इसे किसी और को ट्रांसफर कर दिया गया. इस पर हाई कोर्ट ने नोटिस जारी किया. इसी बीच, मंत्रालय को भनक लगी तो उसने केस ट्रांसफर करने वाले आईटी सेक्शन का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया. इससे पहले महानियंत्रक ने 200 से ज्यादा अफसरों को विभागीय जांच के संबंध में कारण बताओ नोटिस जारी किया. लेकिन मंत्रालय ने एक आदेश से इस कार्रवाई को निरस्त कर दिया. साथ ही अफसरों के ट्रांसफर के लिए मंत्रालय ने कमेटी बना दी.''

इतना ही नहीं, मंत्रालय ने टेंडर जारी करने, पूंजीगत व्यय, आइटी उपकरण, सॉफ्टवेयर और क्लाउड सर्विस खरीदने जैसे महानियंत्रक के वित्तीय अधिकार वापस ले लिए.

अब ये काम डीपीआईआईटी खुद करेगा. पेटेंट, ट्रेडमार्क एजेंट्स के खिलाफ शिकायतें सुनने वाली समिति के सदस्य और कोलकाता के एडवोकेट शुभतोष मजूमदार का कहना है कि आउटसोर्स कर्मचारियों के फैसलों में जो मामले संदिग्ध हैं उनमें पक्षकारों को दोबारा सुनवाई का मौका दिया जाएगा. यह काम कुछ महीनों में खत्म होने की उम्मीद है. लेकिन कामकाज के आवंटन के तौर-तरीके देखकर ऐसा संभव नहीं लगता.

पहली बात तो यह कि आउटसोर्स कर्मचारियों की तरफ से हुए निर्णयों को जो अफसर रिवैलिडेट करेंगे वे अपना नियमित काम करते हुए यह अतिरिक्त काम करेंगे. 13 अगस्त को महानियंत्रक की तरफ से जारी ऑफिस ऑर्डर में कहा गया है कि लोगों की परेशानी कम करने के लिए लेवल-1 और लेवल-2 के अफसरों का समूह प्रतिदिन 250 आवेदन रोज निबटाएगा. अब 7 घंटे रोज की ड्यूटी के हिसाब से देखें तो एक फाइल के लिए दो मिनट से भी कम का समय मिलेगा. इतने समय में फाइल और तथ्यों को देख पाना असंभव-सा लगता है. 

दूसरी ओर, ऑल इंडिया पेटेंट अफसर वेल्फेयर एसोसिएशन मानती है कि महानियंत्रक को पर्याप्त प्रशासनिक अनुभव न होने की वजह से यह गड़बड़ी हुई है. एसोसिएशन ने महानियंत्रक की नियुक्ति को दिल्ली हाइकोर्ट में चुनौती दी है. ज्ञानंत सिंह का कहना है, ''डॉ. पंडित की नियुक्ति में प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया, बगैर विज्ञापन जारी किए नियुक्ति की गई.''

दिल्ली के वरिष्ठ ट्रेडमार्क अटॉर्नी देव लालवानी कहते हैं,  ''ट्रेडमार्क ऑफिस कोई अस्थायी संस्था नहीं है जो इसमें अस्थायी कर्मचारी लगाए जाएं. मेरी 500 से ज्यादा एप्लीकेशन हैं, मुझे नहीं पता कौन से मैटर रिवैलिडेट होने जा रहे हैं. नुक्सान सिर्फ रजिस्ट्रेशन प्रोसेस से नहीं होता, बिजनेस का भी नुक्सान होता है, जिसका आकलन असंभव है.''

लालवानी कहते हैं, ''अपोजीशन के बहुत-से मामले तो 30 साल से पेंडिंग हैं. जिन मामलों में कुछ करना नहीं होता, उनमें नॉन कंप्लायंस के केस निबटाकर पेंडेंसी में कमी दिखा देते हैं. ट्रेडमार्क 10 साल में रिन्यू कराना होता है. अगर किसी को 25 साल बाद ट्रेडमार्क मिला तो उसे तुरंत दो रिन्यूवल कराने होंगे और अगला रिन्यूअल पांच साल बाद होगा. ट्रेडमार्क दफ्तर की अनियमितताओं की वजह से ही यह स्थिति पैदा होती है.''

वेल नोन का रजिस्ट्रेशन कराने के लिए मुंबई जाना पड़ता है. ट्रेडमार्क पाना और उसे कायम रख पाना सतत संघर्ष है. इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है: 1993 में एक व्यापारी मर्सिडीज कार का लोगो (ट्रेडमार्क) लगाकर अंडरगारमेंट बेच रहा था और इस मामले में दिल्ली हाइकोर्ट ने मर्सिडीज के पक्ष में फैसला सुनाया था.

फिलहाल, आउटसोर्स कर्मचारियों के फैसलों से निबटने में सरकार को पसीना छूट रहा है. और मुकदमेबाजी की आशंकाएं कारोबारियों को परेशान कर रही हैं.

ट्रेडमार्क जारी करने की प्रक्रिया

एप्लीकेशन

ट्रेडमार्क हासिल करने के लिए तय प्रारूप और फीस के साथ सीजीपीडीटीएम में ऑनलाइन या ऑफलाइन आवेदन किया जाता है

एग्जामिनेशन

आवेदन और दस्तावेजों की छानबीन होती है. कुछ पैमाने होते हैं जिन पर परखा जाता है. आपत्तियां या कमियां होती हैं तो एग्जेमिनेशन रिपोर्ट के 30 दिन के भीतर जवाब देना होता है. इसमें रिप्लाइ चेक होता है. सुनवाई होती है. इसका मकसद यह है कि ट्रेडमार्क कानून के अंतर्गत होने चाहिए और एक जैसे या नकल नहीं होने चाहिए

पब्लिकेशन

अगर सब ठीक है तो ट्रेडमार्क जर्नल में प्रकाशित होता है. यह प्रकाशन जनता के लिए होता है, ताकि अगर किसी को ट्रेडमार्क पर कोई आपत्ति हो जैसे ट्रेडमार्क एक जैसा हो या नकल हो तो वे उसके रजिस्ट्रेशन को लेकर विरोध दर्ज करा सकें

रजिस्ट्रेशन

पब्लिकेशन के चार महीने तक अगर कोई विरोध पत्र नहीं आता है तो रजिस्ट्रेशन हो जाता है. रजिस्ट्रेशन के बाद भी इसे चुनौती दी जा सकती है

अपोजीशन

पब्लिकेशन के बाद अगर किसी को कोई आपत्ति होती है तो वह विरोध पत्र दाखिल कर आपत्ति दर्ज करा सकता है. आवेदक को इस आपत्ति पर अपना पक्ष रखने को कहा जाता है. दोनो पक्षों को अपने-अपने साक्ष्य पेश करने होते हैं. दोनों पक्षों को सुना जाता है, फिर निर्णय दिया जाता है

शुल्क

4,500 रु. से शुरू. ऑनलाइन और ऑफलाइन शुल्क अलग-अलग, वेल नोन का सबसे ज्यादा 1 लाख रु. (वकील की फीस और अन्य खर्चे अलग से)

महानियंत्रक की चूक से हुई गड़बड़

महानियंत्रक पेटेंट और ट्रेडमार्क डॉ. उन्नत पंडित (ऊपर) ने लंबित केस निबटाने के लिए संविदा कर्मचारी रखने के बजाए यह काम एक एजेंसी को बिना निविदा के एमओयू कर दे दिया. ट्रेडमार्क जारी करना एक अर्ध न्यायिक या क्वासी जूडीशियल काम है जिसे सीजीपीडीटीएम ने आउटसोर्स कर्मचारियों को सौंप दिया. कोलकाता हाइकोर्ट के एक फैसले और मंत्रालय की तरफ से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल से मांगी गई विधिक राय में आउटसोर्स कर्मचारियों की तरफ से हुए सभी फैसलों और आदेशों को शून्य और अप्रभावी करार दिया गया

3.53 लाख

ट्रेडमार्क के केस जून 2023 से अप्रैल 2024 तक निबटे, जिनमें आउटसोर्स कर्मचारियों के फैसले भी शामिल हैं. इनमें अपोजिशन, रिप्लाइ, शो कॉज नोटिस आदि स्टेज के मामले शामिल हैं

आगे का रास्ता

डीपीआईआईटी के निर्देश पर महानियंत्रक ट्रेडमार्क ने सभी दफ्तरों के लिए कमेटियां बनाई हैं जो आउटसोर्स कर्मचारियों के फैसलों की समीक्षा कर उन्हें पुन: वैध (रिवैलिडेट) करेगी. जो मामले ठीक नहीं लगेंगे उनमें फिर से प्रक्रिया अपनाई जा सकती है. इसमें उन कंपनियों/कारोबारियों को परेशानी हो सकती है जिनके खिलाफ आदेश जारी होगा. लेकिन बड़ी अदालत जाने का विकल्प उनके पास हमेशा रहेगा.

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