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भारत को क्यों चलाना पड़ रहा है पनडुब्बी हासिल करने का महा-अभियान?

भारत का पनडुब्बी हासिल करने का बड़ा कार्यक्रम प्रोजेक्ट 75 (आई) पूरे जोर-शोर से आगे बढ़ रहा है, दूसरी ओर चीन का बढ़ता हुआ पनडुब्बी बेड़ा हिंद महासागर तक आ पहुंचा है

कलवरी श्रेणी की पनडुब्बी आइएनएस वागशीर के 20 अप्रैल 2022 को मुंबई में लॉन्चिंग समारोह का दृश्य
कलवरी श्रेणी की पनडुब्बी आइएनएस वागशीर के 20 अप्रैल 2022 को मुंबई में लॉन्चिंग समारोह का दृश्य
अपडेटेड 24 सितंबर , 2024

बीसवीं सदी के शुरुआती नौसैन्य युद्धों में पहली बार अपना घातक असर दिखाने के बाद से ही पनडुब्बियां समुद्री गहराइयों की ओझल और खामोश निगहबान रही हैं. निगरानी, पीछा करने, खदेड़ने और शत्रु प्लेटफॉर्म को तबाह करने के वास्ते नौसेनाओं के लिए जरूरी पनडुब्बियां परमाणु युग में तो और भी ज्यादा प्रासंगिक हो गई हैं. भारतीय नौसेना अब अपने सबसे बड़े पनडुब्बी अधिग्रहण कार्यक्रम, प्रोजेक्ट 75 (इंडिया) या पी75(आई) के लिए कमर कस रही है.

1997 में शुरू 43,000 करोड़ रुपए के इस कार्यक्रम के तहत भारत का लक्ष्य संयुक्त उद्यम के जरिए छह उन्नत डीजल-इलेक्ट्रिक पारंपरिक पनडुब्बियां बनाना है, जो बेहतर सेंसर, हथियार और एयर-इंडिपेंडेंट प्रोपल्शन (एआईपी) प्रणालियों से लैस हों. एआइपी यानी हवा से स्वतंत्र प्रणोदन प्रणाली की बदौलत गैर-परमाणु पनडुब्बियां लगातार 12 दिन पानी में डूबी रह सकती हैं, जिससे उनकी स्टेल्थ यानी छिपे रहने की क्षमता बढ़ जाती है. नौसेना के प्रस्ताव (आरएफपी) के मुताबिक पहली पनडुब्बी में 45 फीसद स्वदेशी सामग्री होनी चाहिए, जो छठी पनडुब्बी तक बढ़कर 60 फीसद होनी चाहिए. इसमें यह भी अपेक्षा की गई कि पहली पनडुब्बी अनुबंध पर दस्तखत होने से 84 महीनों या सात साल में मिल जाए.

कई मैन्युफैक्चरर के साथ सालों विचार-विमर्श के बाद पी75 (आई) ठेके के लिए स्पेन की सरकारी स्वामित्व वाली फर्म नवंतिया और जर्मन कंपनी थिसेनक्रूप मरीन सिस्टम्स (टीकेएमएस) दौड़ में रह गईं. नौसेना की तरफ से आरएफपी के साथ पेश पनडुब्बियों के अनुपालन की जांच के लिए मैदानी मूल्यांकन परीक्षण (एफईटी) पूरा होते ही इस विशाल पनडुब्बी सौदे ने अंतत: एक और मील का पत्थर पार कर लिया.

नौसेना की टीम ने एफईटी के लिए मार्च में टीकेएमएस के शिपयार्ड का दौरा किया, तो जून के अंत में नवंतिया की पेशकश का मूल्यांकन किया. पनडुब्बियों के निर्माण के लिए टीकेएमएस ने मुंबई के मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स लिमिटेड (एमडीएल) के साथ और नवंतिया ने भारतीय फर्म लार्सन ऐंड टुब्रो (एलऐंडटी) के साथ हाथ मिलाया है. जर्मन कंपनी ने अपनी टाइप 212 पनडुब्बियों के साथ एफईटी में बढ़त हासिल कर ली बताई जाती है, क्योंकि नवंतिया एआइपी के लिए नौसेना की कठोर आवश्यकताओं को पूरा करने में नाकाम रही. नौसेना ने अपनी रिपोर्ट रक्षा मंत्रालय को सौंप दी है.

पी75(आई) इसलिए और भी अहम हो जाता है क्योंकि भारत का पनडुब्बी बेड़ा घटकर 16 पर आ गया है जबकि उसके दुश्मन चीन और पाकिस्तान अपने बेड़े तेजी से बढ़ाते जा रहे हैं. इनमें से भी केवल आधे ही किसी भी वक्त जंग के लिए तैयार हैं; बाकी में अपग्रेड चलता रहता है. यह सही है कि 29 अगस्त को आइएनएस अरिघात के कमिशन होने के साथ भारत के पास दो स्वदेशी परमाणु शक्ति संपन्न बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बियां (एसएसबीएन) हैं, परमाणु शक्ति संपन्न पारंपरिक अटैक पनडुब्बियां (एसएसएन) हासिल करने की योजना है और स्कॉर्पीन श्रेणी (जिनका बुनियादी ब्लूप्रिंट वही है और जिसका नाम इस प्रकार के पहले जलयान के नाम पर रखा गया है) की पांच डीजल-इलेक्ट्रिक अटैक पनडुब्बियों का संचालन पहले से ही कर रहा है. मगर उसे पारंपरिक पनडुब्बियों के अपने बुढ़ाते बेड़े को मजबूत करने की जरूरत है और इस कमी को ये ताजातरीन जलयान पूरा कर देंगे.

भारत के पनडुब्बी बल ने 1967 में सोवियत मूल की कलवरी (एस-23) को शामिल करके अपना सफर शुरू किया था. 1980 के दशक का मध्य आते-आते नौसेना की पनडुब्बी शक्ति बढ़कर 21 डीजल-संचालित अटैक पनडुब्बियों तक पहुंच गई. मगर बीते चार दशकों में भारत के पनडुब्बी कार्यक्रम को मुश्किलों का सामना करना पड़ा. कीमतें बढ़ने और टेक्नोलॉजी की चुनौतियों के कारण उन्हें हासिल करने में देरी हुई. वहीं खरीद में रिश्वत लेने के आरोपों की झड़ी लग गई, चाहे वह 1987 में जर्मन फर्म हॉवल्ड्स्वेरके-डायचे वेक्रर्ट (एचडीडब्ल्यू) से पनडुब्बियों की खरीद हो या 2005 का स्कॉर्पीन सौदा हो.

चीन और पाकिस्तान से खतरा

चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी नेवी (पीएलएएन) ने बहुत तेजी से अपना पनडुब्बी बेड़ा बढ़ाया और आधुनिक बनाया है. इसकी ताकत अब 50 पनडुब्बियों तक पहुंच गई है, जिनमें पारंपरिक डीजल-इलेक्ट्रिक और परमाणु-संचालित दोनों पनडुब्बियां शामिल हैं. इनमें युआन श्रेणी की पारंपरिक पनडुब्बियां, शांग श्रेणी की एसएसएन और जिन श्रेणी की एसएसबीएन हैं, जो अंतरमहाद्वीपीय पहुंच के साथ जेएल-2 मिसाइलें दागने में सक्षम हैं.

यह बढ़ता वजन हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी ताकत दिखाने की बीजिंग की महत्वाकांक्षा का परिचायक है. चीन हिंद महासागर क्षेत्र (आइओआर) में भी अपनी पारंपरिक और परमाणु पनडुब्बियां तैनात करता रहा है, जिन्हें काबू करना भारत के भू-सामरिक लक्ष्यों के लिए अधिकाधिक अहम माना जा रहा है. नौसैन्य विशेषज्ञों का मानना है कि नौसेना के पास पनडुब्बियों का पूरा बेड़ा होना ही चाहिए.

मगर चीन भारत की अकेली चुनौती नहीं है. पाकिस्तान ने 2015 में हैंगर श्रेणी की आठ पनडुब्बियों के निर्माण के लिए चीन के साथ करार पर दस्तखत किए. ये पनडुब्बियां युआन श्रेणी की पनडुब्बियों का निर्यात संस्करण हैं. चीन ने अप्रैल 2024 में पहली पनडुब्बी का निर्माण पूरा कर लिया. पाकिस्तान का लक्ष्य 2028 तक सभी आठ पनडुब्बियां हासिल करना है, जो पानी के अंदर युद्ध की क्षमता के लिहाज भारत के लिए चुनौती बन सकती है. विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान को स्टेल्थ पनडुब्बियां देना भारत के ऊपर ''दबाव बिंदु बनाने’’ का बीजिंग का अपना तरीका है.

एआईपी टेक्नोलॉजी और उन्नत सेंसरों की बदौलत हैंगर श्रेणी की पनडुब्बियों को भारत की स्कॉर्पीन श्रेणी की पनडुब्बियों के ऊपर साफ बढ़त मिल जाती है जो नौसेना के बेड़े में सबसे उन्नत पारंपरिक पनडुब्बियां हैं. यह सरकार के लिए पी75(आई) परियोजना में तेजी लाने की पर्याप्त वजह है. भारत की पहली परमाणु-संचालित पनडुब्बी आईएनएस चक्र की कमान संभाल चुके वाइस एडमिरल ए.के. सिंह (सेवानिवृत्त) दोटूक कहते हैं, "समुद्र के नीचे हमारी क्षमताएं दयनीय हैं; इसमें तेजी लाने का समय अब आ गया है."

भारतीय पनडुब्बियों का सफर

भारत ने 1970 के दशक में कलवरी जैसी फॉक्सट्रॉट श्रेणी की पनडुब्बियों के साथ अपने पनडुब्बी बेड़े का विस्तार किया. फिर 1986 में नौसेना ने पश्चिम जर्मनी की शिशुमार श्रेणी की पनडुब्बियां हासिल करने के बाद इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम आगे बढ़ाया. ये टाइप-209 पनडुब्बियां अधिक उन्नत थीं और अधिक मजबूती के साथ बेहतर सेंसर और आधुनिक हथियारों से लैस थीं. फिर, 80 और 90 के दशक में नौसेना ने तत्कालीन सोवियत संघ और रूस से सिंधुघोष (किलो क्लास) श्रेणी की पनडुब्बियां हासिल कीं. उन्नत सोनार सिस्टम से लैस और क्रूज मिसाइलें दागने में सक्षम इन पनडुब्बियों ने भारत की युद्धक क्षमताओं को काफी बढ़ा दिया.

2000 का दशक शुरू होने के साथ भारत में पनडुब्बियों के विकास का एक नया चरण शुरू हुआ जब बैलिस्टिक मिसाइलों को दागने में सक्षम परमाणु ऊर्जा चालित पनडुब्बियों पर ध्यान केंद्रित किया गया. यह महत्वाकांक्षी लक्ष्य 2016 में एसएसबीएन आइएनएस अरिहंत के कमिशन के साथ पूरा हुआ. गोपनीय अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी पनडुब्बी (एटीवी) परियोजना के तहत विकसित अरिहंत ने भारत को बैलिस्टिक मिसाइल से लैस परमाणु ऊर्जा चालित पनडुब्बी संपन्न छठा देश बना दिया, जो देश की एटमी त्रिशक्ति यानी जमीन, हवा और समुद्र से परमाणु मिसाइलें दागने की क्षमता का एक महत्वपूर्ण पहलू है. आइएनएस अरिघात भारत की दूसरी एसएसबीएन पनडुब्बी है और तीसरी आइएनएस अरिदमन फिलहाल पाइपलाइन में है.

मोदी सरकार ने 2015 में प्रोजेक्ट डेल्टा को मंजूरी दी थी, जिसके तहत भारत को रूस से छह परमाणु ऊर्जा चालित एसएसएन (जिनमें लंबी दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलें लॉन्च करने की क्षमता नहीं है) लीज पर मिलनी थीं. हालांकि, यूक्रेन के साथ जंग में रूस की व्यस्तता के कारण अकुला श्रेणी की एसएसएन मिलने में देरी हो गई. नौसेना ने अब स्वदेशी स्तर पर दो एसएसएन निर्मित करने का प्रस्ताव रखा है.

अपने पारंपरिक पनडुब्बी बेड़े के आधुनिकीकरण के भारत के प्रयासों के तहत 2005 में छह फ्रांसीसी स्कॉर्पीन श्रेणी की डीजल-इलेक्ट्रिक अटैक पनडुब्बियों के लिए अनुबंध हुआ. इन्हें फ्रांसीसी कंपनी नेवल ग्रुप के सहयोग से विकसित किया गया और निर्माण एमडीएल ने किया. इनमें से पहली पनडुब्बी आइएनएस कलवरी (भारत की पहली पनडुब्बी के नाम पर और बाद में जो एक श्रेणी बन गई) 2017 में कमिशन की गई.

आगे के कुछ वर्षों में कलवरी श्रेणी की चार और पनडुब्बियों को नौसेना में शामिल किया गया और इस साल के अंत में छठी पनडुब्बी मिलने की उम्मीद है. उन्नत पारंपरिक पनडुब्बियों की बढ़ती जरूरत के मद्देनजर नौसेना ने 2021 में कलवरी श्रेणी की तीन अतिरिक्त पनडुब्बियों को शामिल किए जाने को मंजूरी दी. एमडीएल तीन पनडुब्बियों के लिए तकरीबन 35,000 करोड़ रुपए के सौदे पर आगे की बातचीत में लगा है जो पहले छह की तुलना में अधिक बड़ी और अत्याधुनिक होंगी.

दुश्मनों की नजर से बचने में माहिर और एक्सोसेट ऐंटी-शिप मिसाइलें दागने की क्षमता से लैस कलवरी श्रेणी पनडुब्बियां सिंधुघोष और शिशुमार श्रेणी की तुलना में काफी ज्यादा उन्नत हैं. लेकिन इनमें एआईपी तकनीक और अत्याधुनिक पारंपरिक पनडुब्बियों जैसे सेंसर का अभाव है. प्रोजेक्ट 75(आई) पनडुब्बियां इस कमी को दूर कर देंगी.

नौसेना के एक पनडुब्बी चालक ने बताया, "स्कॉर्पीन के लिए अनुबंध पर हस्ताक्षर 2005 में किए गए थे. लेकिन इस प्रोजेक्ट के निर्धारित समय से पीछे चलने की वजह से लागत लगभग दोगुनी हो रही थी. यही नहीं, इसके उपकरण भी अप्रासंगिक हो गए." उनके मुताबिक, एआईपी की कमी इन्हें पनडुब्बी रोधी जंग में तैनात करने में बड़ी बाधा है. वे कहते हैं, "यहां तक पाकिस्तान के पास भी 2005 से एआइपी सक्षम पनडुब्बियां हैं. सबसे बड़ी बात कि इसे फ्रांस ने उपलब्ध कराया है."

प्रौद्योगिकी का पूर्ण हस्तांतरण

रणनीतिक लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट 75(आई) को भी देरी का सामना करना पड़ा, जिसने 2021 में तेजी पकड़ी. वाइस एडमिरल सिंह की राय में भारत को पी-75(आई) की सख्त जरूरत है. वे इसकी अनुमानित समयसीमा (पहली पनडुब्बी मिलने में सात वर्ष लगने की संभावना) को लेकर संशकित भी हैं. उनके मुताबिक, भारत के दोनों भारतीय पनडुब्बी निर्माण शिपयार्ड—मुंबई स्थित एमडीएल और तमिलनाडु में एन्नोर के पास बना एलऐंडटी शिपयार्ड—के पास बहुत काम है.

उन्होंने बताया, "एमडीएल में तीन अतिरिक्त पनडुब्बियों के निर्माण की तैयारी चल रही है, एलऐंडटी में एक परमाणु पनडुब्बी पर काम हो रहा है. जब तक हमें तीसरा शिपयार्ड नहीं मिलता, हम प्रोजेक्ट-75 (आई) को हकीकत में तब्दील होने की उम्मीद नहीं कर सकते."

नौसेना की तरफ से एफईटी के बाद स्पेनिश फर्म नवांतिया के साथ सौदा बहुत फायदेमंद नजर नहीं आता. क्योंकि उनके पास अभी तक विश्वसनीय एआइपी नहीं है. हालांकि, सरकार नियंत्रित कंपनी होने के कारण महत्वपूर्ण सरकारी सहायता और गारंटी जरूर सुनिश्चित करती है. नवांतिया ने नई एस-80 श्रेणी वाली एक पनडुब्बी की पेशकश की है. इसके विपरीत, जर्मन कंपनी टीकेएमएस 15 देशों की नौसेनाओं के लिए 170 से अधिक पनडुब्बियां बना चुकी है, और उनमें से 52 समय के साथ फ्यूल सेल एआइपी सिस्टम पर खरी उतरी हैं और भारत को भी इनकी पेशकश की जा रही है.

टीकेएमएस इंडिया के मुख्य कार्यकारी अधिकारी खलील रहमान का कहना है कि जर्मन सरकार प्रस्तावित सौदे का पूर्ण समर्थन कर रही हैं. उन्होंने कहा कि टीकेएमएस भारत की इच्छा के मुताबिक प्रौद्योगिकी के पूर्ण हस्तांतरण के लिए भी तैयार है. उन्होंने जोर देकर कहा कि जर्मनी इसकी गारंटी देगा. खलील ने इंडिया टुडे को बताया, "यह डिजाइन एचडीडब्ल्यू क्लास-214 का ही परिवर्तित संस्करण है, जिसे पी-75(आई) की अपेक्षाएं पूरी करने के लिहाज से ढाला गया है. थाइसेनक्रूप मरीन सिस्टम्स स्टेल्थ टेक्नोलॉजी में अग्रणी है और सी-प्रूवेन फ्यूल सेल एआइपी सिस्टम का एकमात्र प्रदाता है, जो किसी पनडुब्बी की दुश्मन की नजरों से बचकर रहने की क्षमता और ज्यादा बढ़ा देता है." चाहे नवांतिया को चुनें या फिर टीकेएमएस को भारत को प्रोजेक्ट-75(आई) को तेजी से आगे बढ़ाना होगा.

क्या है प्रोजेक्ट 75 (आई)?

पनडुब्बी हासिल करने के भारत के सबसे बड़े कार्यक्रम को विशाल पैमाने पर अपग्रेड करना
43,000 करोड़ रुपए की परियोजना के तहत भारत संयुक्त उपक्रम में छह डीजल इलेक्ट्रिक पनडुब्बियां बनाएगा
पहली पनडुब्बी में घरेलू सामग्री 45%, होगी जो कि छठवीं तक पहुंचते-पहुंचते बढ़कर 60% हो जाएगी

समंदरों के ये रखवाले: खामोश और छिपे हुए

भारत, चीन और पाकिस्तान की पनडुब्बी क्षमताओं पर तुलनात्मक ब्योरा

भारत

भारत
■ परमाणु-संचालित बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बियां (एसएसबीएन)
संख्या: 2 (आइएनएस अरिहंत; आइएनएस अरिघात), आइएनएस अरिदमन निर्माणाधीन
2016 में पहली बार शामिल ये पनडुब्बियां अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों दाग सकती हैं. रूस से आइएनएस चक्र लीज पर लेने और लौटा देने के बाद भारत के पास फिलहाल कोई परमाणु अटैक पनडुब्बी (एसएसएन) नहीं है पर दो के निर्माण की योजना है

■डीजल: इलेक्ट्रिक पनडुब्बियां (एसएसके)
कलवरी श्रेणी (स्कॉर्पीन श्रेणी)
संख्या: 5
फ्रांस के साथ निर्मित और 2017 में शामिल. कलवरी श्रेणी की तीन और उन्नत पनडुब्बियां बनाने की योजना है. एक्सोसेट ऐंटी-शिप मिसाइलों और एमआइसीए ऐंटी-एयर मिसाइलों से सुसज्जित

■ शिशुमार श्रेणी
संख्या: 4
1986 से 1996 तक हासिल जर्मन मूल की इन पनडुब्बियों की टिके रहने की ताकत और सेंसर अच्छे हैं. हार्पून ऐंटी-शिप क्रूज मिसाइलों से लैस
■ सिंधुघोष श्रेणी
(किलो-वर्ग)
संख्या: 7
रूसी मूल की ये पनडुब्बियां 1986 में शामिल की गईं. उन्नत सोनार यंत्र लगा है, ऐंटी-शिप क्रूज मिसाइलें लॉन्च कर सकती हैं

चीन

चीन
■ जिन श्रेणी (एसएसबीएन)
संख्या: 6
2007 में पहली बार कमिशन की गईं ये पनडुब्बियां चीन की परमाणु प्रतिरोधक रणनीति का बेहद अहम हिस्सा हैं.
ये एसएसबीएन 7,000 किमी दूरी की 12 जेएल-2 बैलिस्टिक मिसाइलें ले जा सकती हैं. अगली पीढ़ी की टैंग श्रेणी की ये एसएसबीएन निर्माणाधीन हैं और इनकी क्षमता के और बेहतर होने और ज्यादा लंबी दूरी की जेएल-3 मिसाइलें ले जाने में सक्षम होने की उम्मीद है
 
■ शांग श्रेणी (एसएसएन)
संख्या: 6
पहली बार 2006 में कमिशन की गई इन परमाणु अटैक पनडुब्बियों में उन्नत सेंसर और सोनार यंत्र लगे हैं और ये वाइजे-18 और वाइजे-82    ऐंटी-शिप क्रूज मिसाइलें ले जा सकती हैं. उन्नत संस्करण में इनकी क्षमता बेहतर हुई है. एसयूआइ श्रेणी की इन निर्माणाधीन एसएसएन में कम शोर और बेहतर सेंसरों के साथ उन्नत टेक्नोलॉजी की खूबियां होने की उम्मीद है
■ सोंग श्रेणी
(एसएसके)
संख्या: 13
ये डीजल-इलेक्ट्रिक अटैक पनडुब्बियां 1999 और 2006 के बीच शामिल की गईं और टॉरपीडो, बारूदी सरंगें और ऐंटी-शिप मिसाइलें ले जाती हैं
 
■ युआन श्रेणी
(एसएसके)
संख्या: 20+
इन्हें चीन के पनडुब्बी बेड़े की रीढ़ माना जाता है. कुछ संस्करण एयर-डिपेंडेंट प्रोपल्शन (एआइपी) प्रणाली से लैस हैं, जो इन्हें पानी के अंदर लंबे समय तक टिके रहने की क्षमता देता है. स्टेल्थ सहित बेहतर क्षमताओं वाले संस्करण लाए जा रहे हैं. चीन के पास पुरानी मिंग श्रेणी की 12 डीजल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियां भी हैं

पाकिस्तान

पाकिस्तान

■खालिद श्रेणी
(एसएसके)
संख्या: 3
फ्रांसीसी मूल की ऑगस्टा श्रेणी की इन पनडुब्बियों को 1999 और 2006 के बीच कमिशन किया गया. अहम बात यह कि ये एआइपी प्रणाली और ऐक्सोसेट ऐंटी-शिप विरोधी मिसाइलों से लैस हैं. इन्हें अपग्रेड किया गया है
 
■ हैंगर श्रेणी
(एसएसके)
संख्या: 8
(विकसित की जा रही हैं)
अपने पारंपरिक डीजल-इलेक्ट्रिक बेड़े को आधुनिक बनाने के लिए पाकिस्तान ने चीन का रुख किया ताकि नई पीढ़ी की युआन श्रेणी की 8 पनडुब्बियां मिल सकें. एआइपी प्रणाली और उन्नत हथियार प्रणालियों से लैस होने की उम्मीद. पहली डिलिवरी 2024 में मिलने की उम्मीद. सभी पनडुब्बियों का 2028 तक संचालन कर पाने की योजना है.

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