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प्रधान संपादक की कलम से

समझना मुश्किल नहीं कि दिक्कत कहां है. भारत की दूसरी कई चीजों की तरह मामला अनुपालन का है. कानून कंपनियों की नेकनीयती और कोशिशों पर भरोसा करता है कि वे उन्हें दिए गए आदेशों का पालन करेंगी

इंडिया टुडे कवर : कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा आखिर क्या है उपाय
इंडिया टुडे कवर : कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा आखिर क्या है उपाय
अपडेटेड 9 सितंबर , 2024

—अरुण पुरी

कोलकाता में 9 अगस्त को ट्रेनी डॉक्टर के साथ हुए बर्बर बलात्कार और उसकी हत्या ने उन खतरों को एक बार फिर वास्तविक और जीवंत बना दिया जिनका सामना भारतीय महिलाओं को रोज करना पड़ता है. इस अपराध की असाधारण क्रूरता ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया, पर इससे भी ज्यादा खौफनाक बात यह थी कि वारदात पीड़िता के कार्यस्थल पर हुई, जहां आराम करने की सुरक्षित, समर्पित जगह, सभी मंजिलों पर सुरक्षा और चौतरफा सीसीटीवी कैमरे लगे होने की उम्मीद की जाती थी. 

इस अपराध पर वैसे तो अंतरराष्ट्रीय मंचों समेत तमाम हलकों में विरोध प्रदर्शन हुए, पर उस चिकित्सा बिरादरी का तो गुस्सा ही फूट पड़ा जो काम के लंबे और बोझिल घंटों सहित कामकाज की दयनीय परिस्थितियों को लेकर लंबे वक्त से खामोश थी, जहां न समुचित रेस्टरूम हैं और सुविधाएं भी निहायत घटिया. इन हालात में महिलाएं और भी ज्यादा बेबस हो जाती हैं क्योंकि उन्हें यौन उत्पीड़न से भी जूझना पड़ता है.

एक और ज्वालामुखी मलयालम फिल्म इंडस्ट्री में फूटा. जस्टिस हेमा समिति की रिपोर्ट जारी होते ही जाने-माने मलयाली अभिनेताओं के खिलाफ #मीटू आरोपों का जलजला आ गया और सिनेमा क्षेत्र की महिलाओं की कामकाजी स्थितियों पर बरबस ध्यान गया. इसमें कास्टिंग काउच से लेकर बुनियादी सुविधाओं के अभाव तक हर वह चीज शामिल है जो उनकी रोजमर्रा की जिंदगी को असुरक्षित बना देती है.

यही वजह है कि कार्यस्थल पर सुरक्षा नौकरी करने या न करने को लेकर महिलाओं के फैसलों में बड़ा कारक बन गई है. भारत की महिला श्रम भागीदारी दर, जो दूसरे देशों के मुकाबले अब भी सबसे कम में शुमार है, बहुत आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रही है. पिछले छह साल में स्थिर गति से बढ़कर पिछले साल यह 37 फीसद थी. भारत के वेतनभोगी कार्यबल में तकरीबन 20 करोड़ महिलाएं हैं.

बड़ा हिस्सा तो कृषि, मैन्युफैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन क्षेत्र के कामों में लगा है, पर शहरी महिलाओं को आईटी से लेकर मीडिया और टेलीकॉम, फार्मा और हेल्थकेयर, बैंकिंग और कंसल्टिंग तक तमाम ऐसी नौकरियों में देखा जा सकता है जिनमें लंबे घंटों और रात की पाली में काम होता है. मगर बढ़ती भागीदारी के साथ जोखिम भी बढ़ा है. महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण के लिए कार्यरत संगठन दिल्ली के उदयति फाउंडेशन की तरफ से, एनएसई में सूचीबद्ध 708 कंपनियों के किए गए अध्ययन ने ऐसे मामलों में 29 फीसद—2022-23 में 1,807 से 2023-24 में 2,325—की बढ़ोतरी दर्ज की.

अलबत्ता, सुरक्षा का मतलब महज यौन उत्पीड़न की रोकथाम नहीं है. कानून तो कई सारे हैं—कारखाना अधिनियम 1948; ठेका मजदूर (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम 1970; अंतरराज्य प्रवासी मजदूर (आरईऐंडसीएस) केंद्रीय नियम 1980; और हर राज्य के अपने दुकान और प्रतिष्ठान अधिनियम—जो महिलाओं के लिए अलग शौचालय, बैठने की व्यवस्था, काम के वाजिब घंटे, क्रेश और कैंटीन, और देरी होने पर घर छोड़ने सरीखी सुविधाओं का इंतजाम करना अनिवार्य बनाते हैं.

मगर एक के बाद एक प्रतिष्ठान हैरतअंगेज ढंग से लगातार इस अपेक्षा का उल्लंघन करते हैं. महिला और बाल पीड़ितों को कानूनी और सामाजिक सहायता देने वाले मजलिस लीगल सेंटर की डायरेक्टर ऑड्रे डिज् मेलो कहती हैं, "एमएसएमई, सरकारी दफ्तर, पुलिस थानों जैसी सबसे छोटी संस्थाओं और यहां तक कि अदालतों में भी नीति पर अमल का पूरी तरह से अभाव है और सुरक्षा की बुनियादी जरूरतें तक पूरी नहीं की जातीं."

इस तरह विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के 2019 के सर्वे से पता चला कि उसने जिन 665 जिला अदालत परिसरों में से 100 में महिलाओं के लिए शौचालय नहीं थे और जिन 585 परिसरों (88 फीसद) में वॉशरूम थे भी तो उनमें से 60 फीसद पूरी तरह चालू हालत में न थे.

समझना मुश्किल नहीं कि दिक्कत कहां है. भारत की दूसरी कई चीजों की तरह मामला अनुपालन का है. कानून कंपनियों की नेकनीयती और कोशिशों पर भरोसा करता है कि वे उन्हें दिए गए आदेशों का पालन करेंगी. सरकारी एजेंसी या ऑडिट के लिए स्वतंत्र अधिकार समूह की शक्ल में निगरानी तंत्र न होने की वजह से ज्यादातर कार्यस्थलों पर आम ढर्रे से काम चलता रहता है.

यही उन आंतरिक समितियों के बारे में भी सच है जिनका गठन करना 10 या ज्यादा कर्मचारी वाली हरेक संस्था के लिए कानूनन जरूरी है. ज्यादातर मामलों में आईसी को या तो पूरी तरह तिलांजलि दे दी गई है, या अगर वे हैं भी, तो अक्सर स्वतंत्र नहीं हैं, और उनकी रुचि लोगों के अधिकारों से ज्यादा कंपनी की छवि की रक्षा करने में होती है. लंबित शिकायतों के समाधान में बढ़ती देर भी इतनी ही चिंता की बात है—उदयति फाउंडेशन ने सालाना आधार पर 67 फीसद—2022-23 में 260 से 2023-24 में 435—की बढ़ोतरी दर्ज की.

यानी अपवाद नहीं बल्कि नियम बन चुकी इन समस्याओं का समाधान कहां है? सरकारों को महज नीति बनाकर हाथ नहीं झाड़ लेने चाहिए, बल्कि कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए निगरानी तंत्र भी स्थापित करना चाहिए. कई राज्यों में महिलाओं के लिए बस का सफर मुफ्त बना देने के सीधे-सादे उपाय ने आखिरकार अनगिनत महिलाओं की कामकाजी जिंदगी को कहीं ज्यादा आसान बना दिया है. टेक्नोलॉजी एक और समर्थ बनाने वाला साधन है. मोबाइल ऐप और जीपीएस ट्रैकिंग अपनी महिला कर्मचारियों को घर तक सुरक्षित सवारी मुहैया करने में कंपनियों की मदद कर रहे हैं.

अपनी महिला साथियों की सामूहिक कोशिशों के साथ हमारी संपादकीय टीम इस विषय की गहराई में उतरकर दोटूक और व्यवहार्य योजना लेकर आई है. उन कंपनियों में अपनाई जाने वाली सर्वश्रेष्ठ प्रथाओं पर रिपोर्ट सबसे उपयोगी टूलकिट में से एक है जो महिलाओं के बताए अनुसार, सर्वोच्च सुरक्षा मुहैया करती हैं. समय-समय पर जांच, आंतरिक समिति के साथ नियमित संवाद और शोषण के सभी रूपों को स्वर देने के लिए गुमनाम और सुरक्षित चैनल बेहद कारगर हैं.

कहते हैं कि विकसित भारत की राह पर बढ़ने के लिए हर साल 8 फीसद वृद्धि की जरूरत होगी. महज कार्यबल में महिलाओं की संख्या बढ़ाकर भारत यह लक्ष्य हासिल कर सकता है. यह अपने आप में देश के लिए कार्यस्थलों पर और उसके अलावा भी अपनी महिलाओं की सुरक्षा और गरिमा सुनिश्चित करने का पर्याप्त कारण होना चाहिए.

- अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह)

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