
दिल्ली में जुलाई की मॉनसून भरी दोपहर. लोकसभा के माहौल में बहुत सुगबुगाहट थी. राहुल गांधी अभी बोलने को खड़े ही हुए थे कि तपे-तपाए और नौसिखुआ सभी सांसद अपनी कुर्सियों पर चौकन्ने होकर बैठ गए. कभी महत्वहीन मानकर खारिज कर दी गई उनकी मौजूदगी अब सभी के ध्यान और आकर्षण का केंद्र थी. दरअसल 18वीं लोकसभा में उनके पहले भाषण के दौरान खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उठकर हस्तक्षेप करना पड़ा.
अगर पहले भाषण का लब्बोलुबाब यह था कि धर्म अहिंसा सिखाता है—और किस तरह मोदी सरकार की दस साल की हुकूमत "नफरत की राजनीति" को बढ़ावा देती रही है—तो दूसरे भाषण में राहुल ने भारतीय सभ्यता जितनी पुरानी महागाथा महाभारत के इर्द-गिर्द नैरेटिव गढ़ा. उन्होंने अभिमन्यु की बात की, यानी उस योद्धा की, जो दुश्मनों के गठजोड़ के बिछाए जाल में फंसकर मारा गया था, और दुश्मन भी ऐसे जिन्होंने उसे हराने के लिए युद्ध के नियमों को खूब तोड़ा-मरोड़ा.
उन्होंने जो तुलनाएं कीं, वे विवादास्पद थीं, लेकिन उनके लहजे में आया नया आत्मविश्वास देखने लायक था. राहुल ने अभिमन्यु की दुर्गति की तुलना आज के भारत की दुर्गति से की, जिसमें मौजूदा सरकार और उसके उद्योगपति संगी-साथियों को नियम तोड़ने वाले योद्धाओं की तरह पेश किया.
ये पुराने राहुल नहीं थे, जो बाज दफा भाषणों के दौरान लड़खड़ा जाते थे और टकराव से आंख चुराते थे. यह बिल्कुल बदला हुआ शख्स था. भारत के हर छोर की दो यात्राओं की मेहनत-मशक्कत, विपक्षी गठबंधन के संख्याबल और सत्तारूढ़ भाजपा को बहुमत के लिए तरसता छोड़ गए 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने राहुल के राजनैतिक सफर को एक नया मकसद दे दिया है. अक्सर सुसंगत विमर्श न करने के लिए आलोचनाओं का शिकार हुए राहुल ने किस्सागोई की कला सीख ली है और अपने राजनैतिक शस्त्रागार के किसी हथियार की तरह उसका निपुणता से इस्तेमाल कर रहे हैं.
नजरिये में यह बदलाव रातोरात नहीं आया. दरअसल यह जरूरतों की पैदाइश है, जो बरसों की नाकामियों और उनके साथ आए उपहास और तौहीन से सीखे गए कठोर सबकों से निकला है. उनके आलोचकों ने लंबे वक्त से अनिच्छुक नेता के तौर पर उनकी तस्वीर गढ़ी, परिवार की विरासत को कंधों पर उठाए एक ऐसा नेता जिसमें उसे आगे ले जाने का विश्वास नहीं है. मगर हाल के महीनों में राहुल उस नैरेटिव को नए सिरे से गढ़ने लगे हैं—अपने लिए भी और कांग्रेस पार्टी के लिए भी.
18वीं लोकसभा में नेता विपक्ष का चोगा धारण करने के बाद राहुल ने अपनी भूमिका के प्रति असामान्य प्रतिबद्धता दिखाई है और पार्ट-टाइम पोलिटिशियन से सातों दिन चौबीसों घंटे काम करने वाले नेता के रूप में अपनी छवि का कायापलट कर लिया है. संसदीय कार्यवाही की पेचीदगियों को समझने का उनका समर्पण जगजाहिर है. अब वे महज प्रतिक्रिया देकर संतुष्ट नहीं होते बल्कि बहुत एहतियात से भाषण तैयार करते हैं, आलोचना का अनुमान लगाते हैं और रणनीतियों में इतनी चतुराई से हेरफेर करते हैं कि उससे एक सियासतदां के तौर पर उनकी बढ़ती परिपक्वता का पता चलता है.
आगे बढ़ने की खातिर बदलाव
मसलन, मौजूदा लोकसभा में उनके पहले भाषण को लीजिए. उन्होंने बीजेपी के हिंदुत्व और अपने जिस फलसफे को वे हिंदू धर्म का सच्चा संस्करण मानते हैं, उनके बीच एक लकीर खींचकर अपने और अपनी पार्टी के लिए खास और अलग वैचारिक जगह बनाने की कोशिश की. उन्होंने बीजेपी पर हिंसा फैलाने का आरोप लगाया और इस बयान से राजनैतिक विरोधियों को इस कदर चिढ़ा दिया कि उन्होंने उन पर हिंदुओं को बदनाम करने का आरोप मढ़ा. मगर अपने रुख पर जोर देने या पीछे हटकर खामोश हो जाने के बजाए राहुल ने नई परिस्थिति के हिसाब से अपने को ढाला.
कांग्रेस के एक वरिष्ठ लोकसभा सांसद का कहना है कि बीजेपी पर उसके घरेलू मैदान में हमला करने के संभावित खतरों को समझकर उन्होंने अपने नजरिये में फेरबदल कर लिया. हिंदू दर्शन में पारंगत गांधी युवराज ने महाभारत की दुहाई दी, जो भारत के विविधता भरे धार्मिक परिदृश्य पर सभी के दिलों में गूंजने वाली सांस्कृतिक कसौटी है. यह कदम खालिस राजनैतिक तमाशा था, पर यह संभावित समर्थकों को नाराज किए बिना सरकार की कमजोर रगों पर हमला बोलने के लिए नाप-तौलकर एहतियात से तैयार की गई उनकी नई रणनीति का उदाहरण भी था.
पर्दे के पीछे वे पार्टी के रोजमर्रा के कामकाज से गहराई से जुड़ गए हैं. जब केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट पेश किया, तो उसके बाद बहस में बोलने के लिए राहुल ने कांग्रेस के वक्ताओं की सूची सावधानी से खुद तैयार की. उन्होंने इन सांसदों की बैठक बुलाई, उनके भाषणों में उठाए जाने वाले मुद्दों की बारीकियों पर गहराई से चर्चा की और पार्टी की मुख्य थीम पर जोर देने वाला सुसंगत नैरेटिव खड़ा करना पक्का किया. पार्टी की यह मुख्य थीम है—संविधान और पंथनिरपेक्षता की रक्षा करना, हाशिये पर धकेल दिए गए लोगों की वकालत करना, दौलतमंदों के साथ सरकार के रिश्तों का पर्दाफाश करना, और जाति जनगणना पर जोर देना.
राहुल का यह कायापलट संसद की दीवारों से भी आगे जाता है. नई संसद के गठन के बाद पहले 50 दिनों में उन्होंने देश भर में घूम-घूमकर नौ राज्यों का दौरा किया और हर क्षेत्र के लोगों से मिले व बात की. किसानों और मजदूरों से लेकर नीट के दबावों से जूझते छात्रों तक राहुल ने सभी की बात गौर से सुनने का खास ख्याल रखा—साधारण भारतीयों की फिक्र-चिंताओं को सुनना और उन्हें सदन के भीतर उठाना. यह नया-नवेला समर्पण रंग दिखाने लगा है. इंडिया टुडे देश का मिज़ाज सर्वे में जब नेता विपक्ष के रूप में राहुल गांधी के काम का मूल्यांकन करने को कहा गया, तो 51.2 फीसद उत्तरदाताओं ने उनके कामकाज को 'असाधारण' या 'अच्छा' आंका, जो आधे से ज्यादा मतदाताओं में अनुकूल धारणा की तरफ इशारा करता है.
सबसे अव्वल चैलेंजर
सर्वे से यह भी संकेत मिलता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे अव्वल चैलेंजर के रूप में उन्होंने अपनी स्थिति मजबूत की है. सत्तारूढ़ बीजेपी के खिलाफ विपक्ष की अगुआई करने के लिए कांग्रेस के नेता को सबसे उपयुक्त आंकते हुए 32.3 फीसद उत्तरदाताओं ने उनका समर्थन किया, जो फरवरी 2024 के 21.3 फीसद और अगस्त 2023 के 23.6 फीसद से काफी ज्यादा हैं. यह उछाल मतदाताओं के बीच गांधी के नेतृत्व के प्रति बढ़ते विश्वास की तरफ इशारा करती है, जो हाल के महीनों में शायद उनके ज्यादा दिखाई देने और जोर-शोर से अपनी बात कहने का नतीजा है.
अलबत्ता उन्हें मिल रही बढ़त से विपक्ष के तार-तार स्वरूप की झलक भी मिलती है, खासकर जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी की नेता ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप नेता अरविंद केजरीवाल सरीखे दूसरे संभावित नेताओं के समर्थन में तेज गिरावट देखी गई. ममता का समर्थन फरवरी के 16.5 फीसद से घटकर 7.2 फीसद पर आ गया, तो केजरीवाल का समर्थन इसी अवधि में 17.4 फीसद से घटकर 6.2 फीसद पर आ गया है. इस गिरावट से गांधी के इर्द-गिर्द संभावित एकजुटता का पता चलता है, पर यह विपक्ष के भीतर दमदार विकल्पों की कमी की तरफ भी इशारा करता है.
राहुल की अनुमोदन रेटिंग के साथ कुछ चेतावनियों भी जुड़ी हैं. 24.2 फीसद उत्तरदाताओं ने उनके कामकाज को 'खराब' आंका, जिससे विचारों के ध्रुवों में बंटे होने की झलक मिलती है. करीब एक-चौथाई सवर्ण हिंदू उत्तरदाताओं ने उनके कामकाज को "बहुत खराब" आंका, जो इसके भीतर निहित जाति के रुझान की तरफ इशारा करता है. जाति जनगणना की अथक मांग ने उनकी लोकप्रियता में भले इजाफा किया है, पर इसके उलट इसने उन्हें उन सवर्णों की आबादी से अलग-थलग भी किया है जो उन्हें अपने सामाजिक-राजनैतिक दबदबे के लिए चुनौती के रूप में देखते हैं.
नीतियां और परिवार
राहुल के राजनैतिक कथ्य में जो विषय केंद्र में रहते हैं उनमें से एक गरीबों और वंचितों का उत्थान रहा है. इस प्रक्रिया में, उन्होंने कई बार उद्योग और व्यापार जगत के दिग्गजों जैसे उच्च आय वाले समूहों को निशाना बनाया है जो नैतिक रूप से सही या गलत कुछ भी हो सकता है. विडंबना यह है कि सर्वे में शामिल उच्च आय वर्ग के उत्तरदाताओं के बीच उनकी अनुमोदन रेटिंग अधिक है. उच्च आय वर्ग के 29 फीसद लोगों ने उनके प्रदर्शन को 'उत्कृष्ट' बताया है, जबकि यह प्रतिशत निम्न आय वर्ग के लोगों के बीच कुछ कम है. निम्न आय वर्ग के 21 फीसद लोग उनके प्रदर्शन को 'उत्कृष्ट' मान रहे हैं.

सर्वेक्षण में प्रियंका गांधी पर भी जनता की राय जानने की कोशिश की गई. सक्रिय चुनावी राजनीति में उनके प्रवेश पर काफी अटकलें लगाई जाती रही हैं और उस पर खूब चर्चा भी होती है. जब पूछा गया कि गांधी भाई-बहनों में से कौन बेहतर राजनेता है, तो 54.8 फीसद उत्तरदाताओं ने राहुल का समर्थन किया, जबकि 17.3 फीसद प्रियंका के पक्ष में थे. यह बड़ा अंतर बताता है कि अपने करिश्मे और सार्वजनिक अपील के बावजूद, जनता की नजर में दमदार नेता के रूप में अपने भाई से आगे निकलने के लिए प्रियंका को लंबा रास्ता तय करना है. कांग्रेस के भीतर राहुल का प्रभुत्व और अधिक बढ़ा है. लगभग आधे (48.6 फीसद) उत्तरदाताओं ने उन्हें पार्टी का नेतृत्व करने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति माना है, जो फरवरी के 31.1 फीसद की तुलना में महत्वपूर्ण उछाल है.
जब उनसे यह पूछा गया कि प्रियंका के चुनावी राजनीति में प्रवेश का क्या असर होगा तो 41.2 फीसद उत्तरदाताओं का मानना था कि इससे कांग्रेस को मजबूती मिलेगी जबकि 22.3 फीसद ने कहा कि इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ने वाला. दिलचस्प बात यह है कि 10.4 फीसद का मानना है कि इससे पार्टी के भीतर दो शक्ति केंद्र बन जाएंगे और यह आगे चलकर आंतरिक खींचतान का कारण बन सकता है. ये प्रतिक्रियाएं उस दुविधा को भी दर्शाती हैं जो प्रियंका की भूमिका को लेकर पार्टी में हैं. कांग्रेस को फिर से मजबूती से खड़ा करने में वे बड़ी भूमिका निभा सकती हैं, इस पर मतदाताओं के एक बड़े समूह को संदेह है.
कांग्रेस का उत्साह
राहुल की छवि में सुधार से विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस पार्टी की भूमिका को लेकर भी धारणा बेहतर हुई है. नवीनतम देश का मिज़ाज सर्वेक्षण में, 44.3 फीसद उत्तरदाताओं ने विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस पार्टी के प्रदर्शन को 'उत्कृष्ट' या 'अच्छा' माना, जबकि फरवरी में 41.4 फीसद ऐसा मानते थे. लेकिन कुछ चिंताजनक संकेत भी हैं. नवीनतम सर्वेक्षण में केवल 18.5 फीसद लोग कांग्रेस के प्रदर्शन को 'उत्कृष्ट' मानते हैं जो फरवरी के 22.7 फीसद से कम है. इस गिरावट के साथ ही 28 फीसद लोगों का पार्टी के प्रदर्शन को 'खराब' या 'बहुत खराब' बताना दर्शाता है कि कांग्रेस अभी एक-चौथाई मतदाताओं के बीच खुद को मजबूत विपक्षी ताकत के रूप में स्थापित करने के लिए जूझ ही रही है.
इस सर्वेक्षण में यह भी समझने की कोशिश हुई कि केंद्र में गठबंधन सरकारों में क्षेत्रीय दलों की भूमिका पर जनता क्या सोचती है. फरवरी में 37.2 फीसद उत्तरदाता स्थानीय हितों का राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व करने में क्षेत्रीय दलों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हुए, गठबंधन सरकारों में क्षेत्रीय दलों के शामिल होने के पक्ष में थे. आज यह आंकड़ा बढ़कर 50 फीसद हो गया है. हालांकि, 36 फीसद ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि क्षेत्रीय पार्टियों के केंद्र सरकार में होने से राष्ट्रीय हितों पर संकीर्ण विचारों को प्राथमिकता मिल सकती है. यह विभाजन भारत के जटिल राजनैतिक ढांचे में संघवाद और क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय हितों के बीच शक्ति संतुलन पर व्यापक बहस को दर्शाता है.
इंडिया टुडे देश का मिज़ाज सर्वे के नतीजे मौजूदा राजनैतिक माहौल में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों पर बारीक नजरिया हमारे सामने रखते हैं. एक नेतृत्वकर्ता के रूप में राहुल गांधी की छवि में उभार तो है लेकिन विपक्षी ताकतों को अभी कुछ और परीक्षाएं पास करनी होंगी. एकजुट होकर, वे भाजपा को मजबूत चुनौती देने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन अपने लिए जनता का भरोसा बढ़ाने के लिए उन्हें प्रभावशाली और सुसंगत आख्यान गढ़ना होगा.
प्र: राहुल गांधी और प्रियंका गांधी में कौन बेहतर राजनेता है?
प्रियंका नौसिखिया हो सकती हैं लेकिन उन्हें अभी शुरुआत करनी है
प्र: प्रियंका गांधी के चुनावी राजनीति में पदार्पण को आप कैसे देखते हैं?
राहुल की बहन की मतदाताओं में लोकप्रियता खत्म नहीं हुई है
प्र: मौजूदा नेताओं में से कौन विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए सबसे उपयुक्त है?
देशव्यापी पदयात्रा और फिर लोकसभा चुनाव में उनके प्रदर्शन ने राहुल गांधी को स्पष्ट रूप से पसंदीदा बना दिया है
प्र: कौन-सा कांग्रेस नेता पार्टी में नई जान डालने के लिए सबसे उपयुक्त है?
राहुल गांधी अब निर्विवाद रूप से पार्टी के नंबर 1 नेता हैं
प्र: आप नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी के कामकाज का आकलन किस तरह करते हैं?
नफरत के अभियान की हवा निकालने और महाभारत का उद्धरण देने वाले राहुल के नए अवतार को लोगों की स्वीकृति मिली है
प्र: विपक्षी दल के रूप में आप कांग्रेस के प्रदर्शन को किस तरह देखते हैं?
पार्टी को अब भी लंबा सफर तय करना है पर लगता है कि इसकी गिरावट थम गई है
प्र: क्षेत्रीय पार्टियों के केंद्र में गठबंधन सरकार का हिस्सा बनने पर आपकी क्या राय है?
क्षेत्रीय पार्टियों ने नाटकीय ढंग से वापसी की है. यह बात लोकसभा के आंकड़ों और लोगों की राय से भी स्पष्ट हो रही है
51% उत्तरदाताओं ने राहुल गांधी के नेता विपक्ष के तौर पर उनके कामकाज को अच्छा या असाधारण बताया
24 % सवर्ण हिंदू उत्तरदाताओं ने राहुल गांधी के नेता प्रतिपक्ष के तौर पर कामकाज को बहुत खराब बताया है