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'मेक इन इंडिया' के लिए भारत सरकार ने यह कदम उठाया तो मिल सकता है दुनिया में धाक जमाने का मौका!

भारतीय उद्योग को मेक इन इंडिया का मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहिए और सरकार की तरफ से सक्षम व्यापार और विदेश नीतियों के जरिए बनाए जा रहे मौकों का फायदा उठाना चाहिए

इलस्ट्रेशन: नीलांजन दास
इलस्ट्रेशन: नीलांजन दास
अपडेटेड 4 सितंबर , 2024

सरकारी नीतियों की वजह से मैन्युफैक्चरिंग या विनिर्माण धीमा होकर गैर-प्रतिस्पर्धी बन सकता है. वे अनैतिक प्रबंधन प्रथाओं को बढ़ावा दे सकती हैं. यह 1950 के बाद तैयार की गई औद्योगिक नीतियों के नतीजों से जा‌हिर है. 1991 में लाइसेंस और नियंत्रण प्रणाली के उन्मूलन के साथ ही प्रतिस्पर्धा का माहौल तैयार करने से कुछ सकारात्मक बदलाव आए. अलबत्ता, सरकार ने 2014 के बाद ही ऐसी नीतियों को लागू किया, जिससे प्रतिस्पर्धी मैन्युफैक्चरिंग के ज्यादातर अड़ंगे दूर हो गए.

व्यापार करने में आसानी (ईज आफ डूइंग बिजनेस) का प्रोग्राम, जीएसटी (माल एवं सेवा कर) की शुरुआत, मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ का नेतृत्व करने के लिए निजी क्षेत्र पर भरोसा, राजकोषीय विवेक और कई अन्य सुधारों ने मैन्युफैक्चरिंग गतिविधि के ग्रोथ के लिए साजगार माहौल बनाया है. 2024 का बजट इस उद्देश्य को आगे बढ़ाता है.

एक ओर जहां सरकारी नीतियां यह तो तय कर सकती हैं कि मैन्युफैक्चरिंग फल-फूल सकती है या नहीं, वहीं वे वास्तव में मैन्युफैक्चरिंग की ग्रोथ तेज नहीं कर सकतीं. ग्रोथ की गति हमेशा कंपनियों के कामों से तय होगी. जिन कंपनियों का प्रबंधन पूरी तरह से अपनी कंपनियों के ग्रोथ के लिए प्रतिबद्ध है, वे उन कंपनियों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन करती हैं, जिनकी संपत्ति और संसाधनों को प्रमोटर की निजी संपत्ति माना जाता है.

कंपनी में पैसे की हेराफेरी करने से अनुसंधान और विकास तथा विस्तार में निवेश करने की क्षमता कम हो जाती है, जिससे ग्रोथ और प्रतिस्पर्धात्मकता काफी कमजोर हो जाती है. 1991 से पहले विकसित अवांछनीय प्रबंधन प्रथाओं की वजह से भारत में मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. इससे काफी हद तक यह जाहिर होता है कि सकल घरेलू उत्पाद में मैन्युफैक्चरिंग का योगदान 16 फीसद से कम क्यों है.

भारत को बढ़त: मौजूदा सरकार की मैन्युफैक्चरिंग के माकूल नीतियों ने, जो भू-राजनीतिक परिदृश्य से जुड़ी हैं, ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जिसमें मैन्युफैक्चरिंग के लिए चीन के बाहर की जगहों को तलाशा जा रहा है. सरकार की विदेश नीतियों ने हमारे लिए बहुत अनुकूल माहौल तैयार कर ‌दिया है और भारत मैन्युफैक्चरिंग की गतिविधियों के लिए बेहद स्वीकार्य विकल्प बन गया है.

आर.सी. भार्गव

इस वै‌श्विक स्थिति का फायदा उठाने के ‌लिए शायद ऑटो कंपोनेंट उद्योग सबसे अच्छी हालत में है. हमारा कार उद्योग लगातार बढ़ रहा है और अब दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा कार बाजार हमारा है. कंपोनेंट उद्योग में और भी तेजी से वृद्धि हुई है, जिसका श्रेय मारुति सुजुकी इंडिया लिमिटेड की 1983 में अपनाई गई नीति को जाता है. इस नीति में कंपोनेंट निर्माताओं को साझेदार माना जाता है और उनकी प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार जारी रखने के लिए उनके साथ काम किया जाता है. 2023-24 में कंपोनेंट उद्योग का कारोबार 6.14 लाख करोड़ रुपए था और पिछले 20 साल के दौरान इसकी चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि 16.69 फीसद रही है, जो समग्र रूप से मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र से कहीं ज्यादा है. कंपोनेंट निर्यात नौ साल की अवधि में दोगुना होकर 2023-24 में 21.2 अरब डॉलर (1.75 लाख करोड़ रुपए) तक पहुंच गया.

निर्यात बढ़ाने की बहुत गुंजाइश बहुत है. ऑटोमोबाइल कंपोनेंट और एक्सेसरीज का वैश्विक व्यापार 2022-23 में 1,862 अरब डॉलर का था. हमारी हिस्सेदारी महज 1 फीसद से थोड़ी ही ज्यादा थी. इस उद्योग को अपनी इंजीनियरिंग, डिजाइन और मैन्युफैक्चरिंग क्षमताओं का तेजी से विस्तार करने की जरूरत है. कम्पोनेंट निर्माताओं को यह समझना होगा कि दुनिया में क्या-क्या अवसर मौजूद हैं और ये अवसर कैसे उनकी पहुंच में हैं. उन्हें बहुत बड़े पैमाने पर सोचना शुरू करना होगा और अपनी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाना होगा. उन्हें बड़े खिलाड़ियों के साथ खेलना और जीतना चाहिए न कि तीसरे लीग में चैंपियन बनकर संतुष्ट हो जाना चाहिए. मानसिकता बदलनी होगी. ऐसी कई मिसाले हैं जब कंपोनेंट निर्माताओं ने ऐसा किया है. ‌मिसाल के तौर पर, मदरसन समूह का टर्नओवर लगभग 1 लाख करोड़ रुपए है और यह दुनिया के शीर्ष 15 कंपोनेंट निर्माताओं में से एक है.

चूल मिलाने की घड़ी: कंपोनेंट निर्माताओं को अपनी इंजीनियरिंग क्षमताओं को बढ़ाना होगा और ग्राहकों की बदलती मांगों को जल्दी से जल्दी पूरा करने में सक्षम होकर प्रतिस्पर्धा करने की अपनी क्षमता बढ़ानी होगी. इसके लिए कई मामलों में कंपनियों को विदेशी भागीदारों के साथ संयुक्त उद्यम शुरू करने की जरूरत पड़ सकती है. तेजी से विकास करने में सक्षम होने की खातिर बहुमत नियंत्रण बनाए रखने की पारंपरिक सोच को संशोधित करने की जरूरत हो सकती है. कंपनियों को अपनी प्रबंधन शैली पर भी गौर करना होगा और विचार करना होगा कि लागत कैसे कम की जाए, मुनाफा बढ़ाया जाए और इंजीनियरिंग क्षमताओं और अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों के निर्माण में निवेश के लिए पूंजी जुटाई जाए. इस उद्देश्य के लिए मितव्ययी और नैतिक प्रबंधन दरकार है.

भारत में कंपोनेंट निर्माताओं को इस बात से बढ़त हासिल है कि कारों का घरेलू उत्पादन, जो 40 लाख को पार कर गया है, अगले आठ साल में 80 लाख तक पहुंचने की उम्मीद है. आगे और ग्रोथ होना तय है. घरेलू मांग में लगातार वृद्धि से विदेशी बाजारों की जरूरतों को पूरा करने के लिए क्षमता निर्माण में उनके निवेश का जोखिम कम होगा. भारत में इंजीनियरिंग और मैन्युफैक्चरिंग के लिए जरूरी हुनर वाले लोगों के प्रचुर संसाधन हैं. यहां कामगारों की कोई कमी नहीं है. कोई अन्य देश ये बढ़त नहीं दिला सकता.

जो बात कंपोनेंट मैन्युफैक्चरिंग उद्योग पर लागू होती है, वह कई अन्य क्षेत्रों पर भी लागू होती है. उद्यमियों और प्रमोटरों को बड़ी और दीर्घकालिक सोच रखनी होगी. उन्हें अपनी कंपनियों के दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक होने का रोमांच अनुभव करना होगा. जैसे-जैसे उनकी कंपनियां बढ़ेंगी, उनके पास पैसा आएगा, लेकिन उन्हें एहसास होगा कि राष्ट्रीय विकास में योगदान देने और लाखों लोगों को फायदा पहुंचाने से मिलने वाले सुख और आनंद के बराबर कोई भी धन नहीं हो सकता. यह अब भारत की घड़ी है. उद्योग को इसका फायदा उठाना चाहिए.

आर.सी. भार्गव

लेखक मारुति सुजुकी इंडिया के चेयरमैन हैं

लंबी छलांग

> भारतीय निर्माताओं को कार कंपोनेंट उद्योग की तरह अपनी इंजीनियरिंग, डिजाइन और विनिर्माण क्षमताओं का तेजी से विस्तार करने की जरूरत है

> उन्हें बहुत बड़े पैमाने पर सोचना शुरू करना होगा और अपनी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाना होगा. उन्हें छोटी लीग में चैंपियन बनने के बजाए बड़े खिलाड़ियों के साथ खेलना और जीतना होगा

> निर्यात बढ़ाने की गुंजाइश बेतहाशा है. ऑटो कंपोनेंट और एक्सेसरीज का वैश्विक व्यापार वित्त वर्ष 2023 में 1,862 अरब डॉलर था. और हमारा हिस्सा? 1% से कुछ ज्यादा

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