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भारत को अपनी क्षमताओं के पूरे इस्तेमाल के लिए टेक्नोलॉजी कैडर की जरूरत क्यों है?

भारत ज्यों-ज्यों अहम टेक्नोलॉजी साझेदारियों के साथ आगे बढ़ रहा है, इन रणनीतिक पहलों का पूरा लाभ उठाने के लिए उसे अपनी अफसरशाहों की मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त करना होगा

इलस्ट्रेशन: नीलांजन दास
इलस्ट्रेशन: नीलांजन दास
अपडेटेड 6 सितंबर , 2024

वाशिंगटन डीसी में 31 जनवरी, 2023 को चैंबर ऑफ कॉमर्स के खचाखच भरे कमरे में अमेरिकी और भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों (एनएसए) ने अहम और उभरती टेक्नोलॉजी पर अमेरिका-भारत पहल या आइसीईटी औपचारिक तौर पर लॉन्च की. एनएसए और उनका प्रशासन—अमेरिका में नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल और भारत में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सचिवालय—अमेरिकी राज्य प्रशासन और विदेश मामलों के मंत्रालय (एमईए) के सक्रिय सहयोग से इस अभिनव प्रक्रिया को मजबूती से स्थापित कर रहे और आगे बढ़ा रहे हैं.

खेल का नाम था क्षमता और संभावना. एक जोरदार 'फैक्ट शीट' ने सहयोग के प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को सामने रखा: अंतरिक्ष, प्रतिरक्षा, बायोटेक्नोलॉजी, सेमीकंडक्टर, क्वांटम टेक्नोलॉजी, बेहद अहम खनिज, और ऐसे ही अन्य. निर्यात नियंत्रण कार्यशालाएं आम बात हो गई हैं. आंशिक रूप से नियंत्रणों के मामले में बातचीत के लिए भारतीय विदेश मंत्री की अगुआई में रणनीतिक व्यापार वार्ता की रूपरेखा बनाई गई है. हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड के साथ हुए जीई एफ414 इंजन सरीखे विरासत में मिले समझौतों को नई ताकत और ऊर्जा दी गई है. अमेरिकी प्रतिरक्षा क्षेत्र की 'सबसे प्रमुख' कंपनी जनरल एटॉमिक्स ने आइसीईटी से संचालित ऊर्जा का इस्तेमाल भारत को एमक्यू-9बी एचएएलई मानवरहित हवाई वाहनों (यूएवी) की बिक्री पर लौटने में किया. दोनों समझौतों पर फिलहाल बातचीत चल रही है.

नवाचारियों, निवेशकों, उद्योगपतियों और सरकारों की सक्रिय साझेदारी के साथ निवेश से लेकर सेमीकंडक्टर तक नया टेक्नोलॉजी इकोसिस्टम बनाने के लिए आइसीईटी की प्रभावशाली शुरुआत हुई. इसी रणनीति का अनुसरण करते हुए यूनाइटेड किंगडम और भारत ने जुलाई 2024 में टेक्नोलॉजी सुरक्षा पहल (टीएसआइ) शुरू की. इसका समन्वय भी दोनों देशों के एनएसए कर रहे हैं. एजेंडा कुछ ज्यादा छोटा और एकाग्र है. इसमें टेलीकॉम, बेहद अहम खनिज, एआइ, क्वांटम टेक्नोलॉजी और बायोटेक्नोलॉजी सरीखे अलहदा क्षेत्र शामिल हैं. ज्ञान की साझेदारी के लिए है केथॉन से लेकर पुलों तक टीएसआइ में बहुत कुछ है, जो इत्तफाकन आइसीईटी से मिलता है. समय के साथ यह तीनों देशों के बीच कुछ क्षेत्रों में तितरफा सहयोग को आधार दे सकता है.

इसमें शक नहीं कि ज्यादा गहरी साझेदारियों की खातिर भारतीय नेतृत्व ने कम से कम रणनीतिक रूपरेखा तैयार करने में तेजी से बदलती दुनिया की अनिवार्यता का उतनी ही युक्ति और चतुराई से जवाब दिया है. यह जितना भारत में मैन्युफैक्चरिंग और एसेंबली के नए केंद्र विकसित करने के बारे में है, उतना ही विभिन्न बेहद जरूरी टेक्नोलॉजी का आकलन करने और उन्हें सह-नवाचार से विकसित करने के बारे में भी है. ये साझेदारियां सैन्य आपूर्तियों में विविधता लाने के मौजूदा अभियानों को तेज रफ्तार दे सकती हैं और ऐसा भविष्य गढ़ सकती हैं जो आत्मनिर्भरता को ताकत देने और सह-उत्पादन को कई गुना बढ़ाने के बीच लगभग सही संतुलन ला सकता है.

कैनवस तैयार कर लिया गया है. उद्योगपतियों, कंप्यूटर के दीवानों, कोड लिखने वालों, निर्यात नियंत्रकों, नियामकों और शीर्ष स्तर पर कायम राजनैतिक नेतृत्व को अगले कई साल इसे कामयाब बनाने की अगुआई करनी होगी. कई देश और खासकर एशिया के देश इसी से मिलती-जुलती व्यवस्था के लिए भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं. आइसीईटी और टीएसआइ से पहले भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका के बीच बने क्वाड्रिलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग (क्वाड) के कम से कम छह कार्य समूह टेक्नोलॉजी से जुड़े सहयोग के अलग-अलग पहलुओं को समर्पित हैं. आलोचकों और विरोधियों के बीच साझा स्वर यह है कि "क्या भारत इन जैसी साझेदारियों के बारे में बताने वाली विभिन्न 'फैक्ट शीट' और 'विवरणों' से चीखती क्षमता और संभावनाओं को पकड़ सकता है?" मेरी समझ से उत्तर दो-टूक हां है.

रुद्र चौधरी

आइसीईटी और क्वाड के कुछ पहलुओं के मामले में यह बताने वाले काफी सबूत हैं कि इन पहलकदमियों के नतीजे मिल रहे हैं. तो भी भारत जब आजादी के 78वें साल में प्रवेश कर रहा है और अपनी क्षमता के ताले खोलने को ध्यान में रखकर कर रहा है, इन कम सामान्य रणनीतिक साझेदारियों की संभावनाओं का अधिकतम लाभ उठाने के लिए जरूरत एक प्रशासनिक धुरी की है. नई दिल्ली में कभी-कभी अपनी अलग-थलग कोठरियों में सिमटी नौकरशाही की मशीन की पुनर्कल्पना करना और उसे नई ऊर्जा से भरना उतनी ही रणनीतिक प्राथमिकता होनी चाहिए जितना प्रोत्साहन लाभ देने वाली रणनीतिक योजनाओं में धन लगाना और नए रक्षा समझौतों पर दस्तखत करना है. उनसे बात कीजिए जो वहां रहे हैं और जिन्होंने यह किया है, तो 'गेटिंग द ब्यूरोक्रेसी राइट' पुराना और थकेला गाना है जिसका पृष्ठभूमि में बजना कभी बंद नहीं होता. यह ऐसा हो सकता है. लेकिन इससे बदलाव की जरूरत कम नहीं होती.

भारत की सरकार टेक्नोलॉजी राजदूतों के एक नए कैडर पर विचार कर सकती है. कई देशों के ऐसे राजदूत हैं और वे सफल और प्रभावी हैं. हमारे यहां नहीं हैं. दूतों को समन्वय करना होता है. विशेष दूत, संभवत: विदेश मंत्रालय में, नतीजे देने में एनएससीएस के साथ काम कर सकता है. यह बस एक फॉर्मूला है. कई होंगे. अहम बात समन्वित कार्रवाई और अलग-अलग धाराओं में की जा रही कोशिशों को बढ़-चढ़कर जोड़ने की तत्काल जरूरत के बारे में है. बेहद जरूरी टेक्नोलॉजी कायापलट करने वाली है और तमाम महकमों और मंत्रालयों पर समान असर डालती है.

इतना ही नहीं, उन अधिकारियों के पास प्रचुर सांस्थानिक ज्ञान है जिन्होंने साझेदारी की प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं को गढ़ा है. होता यह है कि खुद अपने प्रशासनिक भविष्य की खातिर वे आम तौर पर आगे चले जाते हैं. ठीक ये ही उस तरह के लोग हैं जिन्हें आइसीईटी, टीएसआइ, क्वाड और आने वाले ऐसे ही समझौतों से जुड़ी टीमों या विभागों का हिस्सा बनने के लिए विकसित किया जाना चाहिए. उनके ज्ञान का पुनर्निर्माण नहीं, पुनरोपयोग होना चाहिए. अफसरशाही के ढांचे के शिखर पर सरकार ने निरंतरता के लिए कई असरदार फैसले किए हैं. इस जोश को 'व्यवस्था' के विभिन्न स्तरों पर ले जाने की जरूरत है.

निचोड़ यह कि प्रबंधकीय बारीकियों और रचनात्मक के साथ गठित कार्रवाई के आह्वान की जरूरत है. नई प्रशासनिक हकीकतों को धुरी पर नहीं रखने के इस मौके को गंवाने की कीमत उस देश के लिए बहुत ज्यादा हो सकती है जो एक या दूसरे ढंग से दुनिया के भविष्य को गढ़ने के लिए तैयार है.

रुद्र चौधरी

लेखक कारनेगी इंडिया के डायरेक्टर हैं. विचार निजी हैं

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