
भारत के एटमी ऊर्जा कार्यक्रम की कुछ बहुत खास उपलब्धियां रही हैं. इसकी बदौलत हम एटमी हथियारसंपन्न देश (एटमी पनडुब्बी क्षमता सहित) बनकर उभर पाए. साथ ही इसने हमें प्रेशराइज्ड हेवी वॉटर रिएक्टर (पीएचडब्ल्यूआर) या दबावयुक्त गुरु जल रिएक्टर और उससे जुड़ी न्यूक्लियर फ्यूल साइकल टेक्नोलॉजी भी दी, जो व्यावसायिक रूप से सफल है और वैश्विक मानदंडों के अनुरूप काम कर रही है.
भारत में अभी 220, 540 और 700 एमडब्ल्यूई (मीटर वॉटर इक्विवैलेंट) इकाई आकारों के उन्नीस पीएचडब्ल्यूआर काम कर रहे हैं. 700 एमडब्ल्यूई की चौदह और इकाइयां फ्लीट मोड में निर्माणाधीन हैं. अपनी तीन चरणों की रणनीति के अगले चरण के तौर पर हम 500 एमडब्ल्यूई का प्रोटोटाइप फास्ट ब्रीडर रिएक्टर चालू करने के भी नजदीक हैं, जिसका लक्ष्य थोरियम के हमारे विशाल और दुनिया में सबसे बड़े भंडारों के बूते भारत के लिए लंबे वक्त की ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करना है.
थोरियम को उच्च तापमान वाले एटमी रिएक्टरों के ईंधन के तौर पर भी तरजीह दी जाती है, जिनकी उद्योग के लिए सस्ती और स्वच्छ हाइड्रोजन बनाने की खातिर जरूरत है.

भारत के पास यूरेनियम कम मात्रा में है, जो फ्यूजन या विखंडन ऊर्जा प्राप्त करने के लिए प्राकृतिक रूप से उपलब्ध अकेला स्रोत है. इसकी वजह से यह जरूरी हो गया है कि हम थोरियम को यूरेनियम-233 में बदलें. इस तरह उत्पन्न फिसाइल या विखंडनीय पदार्थ मूल जगह पर या सतत प्रजनक चक्र में थोरियम के साथ पूरी दक्षता से बिजली का उत्पादन कर सकते हैं. यूरेनियम रिएक्टरों में थोरियम के इस्तेमाल से हमें दुर्घटना सहनशीलता में बढ़ोतरी और रिएक्टर के सुरक्षा तथा प्रसार प्रतिरोध बढ़ाने वाले मानदंडों में सुधार जैसे फायदे भी मिलते हैं.
इतना ही नहीं, पीएचडब्ल्यूआर में ईंधन के जलने को थोरियम दूसरे वॉटर रिएक्टर के स्तर तक बढ़ा सकता है, जिससे खर्च होने वाले ईंधन में सात गुना कमी आती है. ये खूबियां उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में एटमी ऊर्जा के बड़े पैमाने पर उपयोग की अड़चनों को काफी हद तक कम कर सकती हैं, खासकर जब इन देशों में वैश्विक स्तर पर नेट जीरो का लक्ष्य साकार करने के संदर्भ में अतिरिक्त स्वच्छ ऊर्जा की जरूरत सबसे प्रबल है.
इस तरह भारत अपने थोरियम संसाधनों का फायदा उठाकर दुनिया की ऊर्जा राजधानी बन सकता है, काफी कुछ उसी तरह जैसे बड़े तेल और गैस उत्पादक देश आज हैं.
क्या यह कभी हो सकता है? इस का उत्तर नेट जीरो की चुनौती के बावजूद विकसित भारत बनने के देश के संकल्प और इस मकसद के लिए थोरियम टेक्नोलॉजी विकसित करने के पक्के इरादे पर निर्भर करता है. विकसित होने के लिए किसी भी देश को 0.95 का मानव विकास सूचकांक हासिल करना होगा. इसके लिए न्यूनतम सीमा से ज्यादा प्रति व्यक्ति ऊर्जा सुलभ करवाने की जरूरत होगी.
यह सीमा प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति करीब 2,400 केजीओई (किलोग्राम ऑफ ऑइल इक्विवैलेंट) है. चूंकि बिजली और दूसरे साधनों के ज्यादा इस्तेमाल के जरिए बेहतर ऊर्जा दक्षता की तरफ आगे बढ़ने की उम्मीद की जाती है, इसलिए इस सीमा में काफी कमी आ सकती है. मान लें कि इसमें करीब 60 फीसद कमी आ जाती है, तो विकसित भारत की कुल ऊर्जा जरूरत करीब 28,000 टीडब्ल्यूएच/ईयर (टेरावॉट घंटे प्रति वर्ष) होगी.
हम उचित ही तेजी से अक्षय या नवीकरणीय ऊर्जा का विकास कर रहे हैं. हालांकि विशाल हाइड्रो सहित देश की कुल नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता 8,000 टीडब्ल्यूएच/ईयर से ज्यादा होने की संभावना नहीं है. ऊर्जा की इतनी मात्रा आज की जरूरतों को पूरा करने के लिए शायद काफी हो. लेकिन हम विकसित भारत के लिए ढाई गुना अतिरिक्त स्वच्छ ऊर्जा कैसे हासिल करेंगे? साफ है कि थोरियम अकेला जवाब है. हम तत्काल जरूरी स्वच्छ ऊर्जा की पूर्ति के लिए पीएचडब्ल्यूआर और यहां तक कि आयातित एलडब्ल्यूआर (लाइट वॉटर रिएक्टर) का अधिकाधिक इस्तेमाल कर रहे हैं.
वहीं पीएचडब्ल्यूआर में थोरियम का तेजी से इस्तेमाल शुरू करने से एक तरफ प्राकृतिक यूरेनियम का इस्तेमाल करके पैदा और खर्च ईंधन से उपजे कूड़े के विशाल भंडार की संभवत: असाध्य समस्या का समाधान होगा और दूसरी तरफ हमारे पीएचडब्ल्यूआर उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों के लिए आकर्षक पेशकश बन जाएंगे. किफायत और कार्य प्रदर्शन के लिहाज से वे पहले ही काफी प्रतिस्पर्धी हैं.
इस तरह थोरियम का फायदा उठाकर घरेलू जरूरतों को पूरा किया जा सकता है और हम अपनी निर्यात महत्वाकांक्षाओं को भी सहारा दे सकते हैं. चूंकि हमें दूसरे और तीसरे चरण की फ्यूल रिसाइकल टेक्नोलॉजी में वैसे भी निपुणता हासिल करनी ही होगी, इसलिए यह नजरिया हमारे तीन चरणों के नियोजित कार्यक्रम के अनुरूप भी है.
नागरिक परमाणु सहयोग का लाभ
हमें ऐसे दोहरे उद्देश्यों को पूरा करने में अपने अंतरराष्ट्रीय असैन्य एटमी सहयोग, और खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका के सहयोग का लाभ उठाने की अहमियत को भी पहचानना चाहिए. एटमी ईंधन की आपूर्ति अंतत: एटमी रिएक्टरों की आपूर्ति के मुकाबले ज्यादा बड़ा कारोबार बन जाती है. हाइ असे लो एनरिच्ड यूरेनियम (एचएएलईयू) तमाम उभरती एटमी रिएक्टर टेक्नोलॉजी के लिए दुनिया भर में तेजी से आकर्षक पेशकश बन रहा है.
इसलिए एचएएलईयू के उत्पादन का बुनियादी ढांचा बढ़ाने के लिए मांग का शुरुआती तौर पर संकेत दे देने की तत्काल जरूरत है. जैसा कि पहले ध्यान दिलाया गया है, पीएचडब्ल्यूआर में थोरियम का इस्तेमाल ऐसे उद्देश्य के अनुरूप है और दोनों देशों के आपसी सहयोग के जरिए तेजी से इस्तेमाल किया जा सकता है. ज्यों-ज्यों हम नेट जीरो की तरफ बढ़ रहे हैं, स्वच्छ ऊर्जा की बढ़ती मांग की वजह से यूरेनियम की वैश्विक आपूर्ति पर खासा दबाव आ जाएगा. इस तरह भारत और दुनिया की ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारत अपने थोरियम संसाधनों और पीएचडब्ल्यूआर की विशेषज्ञता का लाभ उठाने की अच्छी स्थिति में है.
— अनिल काकोदकर
लेखक परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष हैं
लंबी छलांग
- भारत के पास साधारण मात्रा में यूरेनियम है जो नाभिकीय ऊर्जा पाने का उपलब्ध एकमात्र प्राकृतिक संसाधन है. इससे थोरियम को यूरेनियम-233 में बदलने की हमारी जरूरत और बढ़ गई है.
- स्वच्छ ऊर्जा की तत्काल जरूरत पूरी करने के लिए प्रेशराइज्ड हैवी वाटर रिएक्टर्स (पीएचडब्ल्यूआर) में थोरियम का इस्तेमाल शुरू किया जा सकेगा. इससे प्राकृतिक यूरेनियम से पैदा बिजली खर्च करने से उपजे विशाल कचरे की संभवत: असाध्य समस्या से निबटने में मदद मिलेगी.
- इससे हमारे पीएचडब्ल्यूआर उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों के लिए आकर्षक पेशकश बन जाएंगे.