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एससी-एसटी उपवर्गीकरण: रामबाण दवा या भानुमति का पिटारा?

सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले से बहस छिड़ गई है कि क्या आरक्षण से वाकई सामाजिक समता आएगी या फिर यह महज वोट बैंक साधने का सियासी औजार बनकर रह जाएगा

आरक्षण का कोटा
आरक्षण का कोटा
अपडेटेड 23 अगस्त , 2024

सर्वोच्च न्यायालय ने सकारात्मक उपायों की रूपरेखा को फिर से परिभाषित करते हुए 1 अगस्त को ऐतिहासिक फैसला सुनाया. भारत के प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुआई में सात जजों की पीठ ने 6:1 के बहुमत से दिए फैसले में राज्यों को अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के वर्गों के भीतर उपवर्गीकरण करने की इजाजत दे दी.

इसका मकसद इन वर्गों के भीतर सबसे पिछड़े समुदायों के बीच आरक्षण के फायदों का ज्यादा न्यायसंगत बंटवारा सुनिश्चित करना है. सुप्रीम कोर्ट ने माना कि एससी-एसटी की सूचियां एक समान या सजातीय नहीं हैं और इन समुदायों के बीच सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का स्तर अलग-अलग है.

अब राज्य एससी के लिए निर्धारित 15 फीसद और एसटी के लिए निर्धारित 7.5 फीसद आरक्षण के भीतर विशिष्ट जातियों के लिए आरक्षण की सीमा तय कर सकते हैं. इस फैसले ने 2004 में ई.वी. चिनैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार मामले में दिया गया सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला उलट दिया जिसमें एससी-एसटी सूचियों को एक समान बताते हुए कहा गया था कि उनमें उपविभाजन नहीं किया जा सकता. यह फैसला इस दलील का समर्थन करता है कि आरक्षण के फायदे सभी जातियों तक बराबर-बराबर नहीं पहुंचे हैं और ज्यादा कमजोर समूहों को आरक्षण के ढांचे में निश्चित हिस्सेदारी की जरूरत है.

कई शोध इस फैसले का समर्थन करते हैं, मगर आलोचक आगाह करते हैं कि सियासी तबका वोट बैंक बनाने के लिए इस फैसले का फायदा उठा सकता है. फैसले पर सियासी दलों की प्रतिक्रियाएं मिली-जुली हैं, चाहे वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में हों या विपक्षी भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन (इंडिया) में.

केंद्र सरकार ने अदालत में एससी-एसटी के बीच उपवर्गीकरण का समर्थन किया, मगर सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं दी. वैसे कांग्रेसशासित कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और तेलंगाना के मुख्यमंत्री ए. रेवंत रेड्डी ने फैसले का स्वागत किया. डीएमके और सीपीआइ सरीखे कांग्रेस के सहयोगी दलों ने फैसले का समर्थन किया. राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने इसका विरोध किया है.

बिहार की आबादी में 14.27 फीसद हिस्सेदारी के साथ राज्य के सबसे बड़े जाति समूह यादवों को डर है कि एससी और एसटी में उपवर्गीकरण से अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) में भी ज्यादा उपवर्गीकरण की मांग उठ सकती है. बिहार और उत्तर प्रदेश समेत उत्तर भारत के कई राज्यों में ओबीसी में यादव प्रमुख और प्रभावशाली जाति समूह है.

भाजपा के सहयोगी भी फैसले पर बंटे हुए हैं. जनता दल (यूनाइटेड) और तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) ने इसका समर्थन किया, तो चिराग पासवान की अगुआई वाली लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने फैसले पर पुनर्विचार की मांग की. बिहार के सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, राज्य की आबादी में 5.31 फीसद हिस्सेदारी के साथ पासवान दूसरा सबसे बड़ा जाति समूह है.

उन्हें डर है कि उपवर्गीकरण से आरक्षण में उनकी हिस्सेदारी कम हो जाएगी. 2007 में मुख्यमंत्री और जद (यू) नेता नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार सरकार ने छोटी दलित जातियों के लिए 'महादलित’ शब्द गढ़ा था और उनके विकास के लिए विशेष योजनाएं शुरू की थीं. पासवानों को उस सूची से बाहर रखा गया था. इस बार न सिर्फ पासवान, बल्कि अन्य बड़ी और प्रभावी जाति समूहों में उपर्गीकरण को लेकर बेचैनी है.

दलितों की नुमाइंदगी कर रहे कुछ अन्य राजनेताओं ने भी फैसले की आलोचना की. बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि एससी-एसटी के लोगों ने जो अत्याचार झेले, वे एक समूह के रूप में झेले, और यह समूह एक समान है और इसलिए इसे उपवर्गों में नहीं बांटना चाहिए. वंचित बहुजन अघाड़ी के प्रमुख प्रकाश आंबेडकर ने सवाल उठाया कि अगर एससी, एसटी और ओबीसी के लिए उपवर्गीकरण सही है, तो सामान्य वर्ग के बीच समान आरक्षण क्यों लागू नहीं किया जाता.

सांसद और आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने फैसले को दलितों को बांटने की कोशिश बताते हुए कहा कि जाति जनगणना के बगैर इसे लागू नहीं किया जा सकता. फैसला देशभर में जाति जनगणना की मांग को और हवा दे सकता है, जो विपक्ष का प्रमुख चुनावी मुद्दा है. खासकर जब उपवर्गीकरण करने के राज्यों के अधिकार को अदालत ने सही ठहराया, पर आगाह भी किया कि महज सनक या सियासी लाभ के लिए ऐसा नहीं किया जाना चाहिए. इसके बजाए उपवर्गीकरण जाति के पिछड़ेपन को सही ठहराने वाले आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए.

सियासी एक्टीविस्ट योगेंद्र यादव कहते हैं, ''आंकड़ों पर आधारित नीति का यह तकाजा देशभर में जाति जनगणना की अनिवार्यता को मजबूती देता है.’’ दूसरी चेतावनियां भी हैं. राज्य एससी की सूची से दूसरी जातियों को निकालकर 100 फीसद आरक्षण किसी एक उपवर्ग के लिए तय नहीं कर सकते. कोर्ट ने यह भी कहा कि उपवर्गीकरण के बारे में फैसला न्यायिक समीक्षा के अधीन होगा.

ऐतिहासिक संदर्भ

इस फैसले का बीज 1975 में ही पड़ गया था, जब पंजाब सरकार ने एससी के 25 फीसद आरक्षण को दो हिस्सों में बांट दिया—आधा बाल्मिकियों और मजहबी सिखों के लिए और बाकी आधा एससी के अन्य धड़ों के लिए. यह व्यवस्था 31 साल तब तक चली जब पंजाब और हरियाणा हाइकोर्ट ने 25 जुलाई, 2006 को अधिसूचना रद्द कर दी और ऐसा करते हुए सुप्रीम कोर्ट के 2004 के उस फैसले का हवाला दिया जिसमें ऐसे उपवर्गीकरण कानूनों को अमान्य कर दिया गया था. हाइकोर्ट ने हरियाणा की 1994 की उस अधिसूचना को भी रद्द कर दिया जिसमें चमार समुदाय को आरक्षण के फायदों पर एकतरफा कब्जा करने से रोकने के लिए ऐसा ही उपवर्गीकरण किया गया था.

इस फैसले के बाद पंजाब ने पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 बनाया और लागू किया. इस कानून की धारा 4(5) ने एससी के लिए आरक्षित सीटों में से आधी सीटें एससी के अन्य धड़ों को देने से पहले बाल्मिकियों और मजहबी सिखों को देने का हक दिया. पंजाब और हरियाणा हाइकोर्ट ने 2010 में इस प्रावधान को भी रद्द कर दिया. फिर पंजाब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसके नतीजतन मौजूदा फैसला आया है.

कोटे की हिस्सेदारी में बदलाव

एससी के भीतर विविधता को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट का फैसला आरक्षण के लाभों के ज्यादा सूक्ष्म और न्यायसंगत बंटवारे की सहूलत देता है, खासकर उन राज्यों को जहां एससी-एसटी की अच्छी-खासी आबादी है. पंजाब, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और हरियाणा सरीखे राज्य पहले उपवर्गीकरण की कोशिशें कर चुके हैं. अब उन्हें सकारात्मक उपायों से जुड़ी अपनी नीतियों के लिए न्यायिक समर्थन भी हासिल है.

पंजाब के 2006 के उस कानून को भी अब वैधता मिल गई है जो दो निश्चित समुदायों के लिए एससी वर्ग के भीतर आरक्षण निर्धारित करता है. इसी तरह आंध्र प्रदेश अपने रद्द कर दिए गए आंध्र प्रदेश अनुसूचित जाति (आरक्षण का युक्तिकरण) अधिनियम, 2000 के उस प्रारूप को वापस ला सकेगा जो मूलत: आंध्र, तेलंगाना और कर्नाटक में फैले और माला सरीखी दबदबे वाली अनुसूचित जातियों के आगे दरकिनार महसूस कर रहे मडिगा समुदाय की शिकायतों को दूर करने के लिए बनाया गया था. इस कानून का उद्देश्य एससी के आरक्षण कोटे को चार अलग-अलग श्रेणियों में बांटना था.

फैसले के बाद आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने 1996 में एससी उपवर्गीकरण के लिए न्यायमूर्ति रामचंद्र राजू आयोग के जरिए यह कोशिश शुरू करने में टीडीपी की भूमिका पर जोर दिया. तेलंगाना में रेवंत रेड्डी ने सरकारी नौकरियों की भर्ती में मडिगा समुदाय के लिए अलग कोटे का ऐलान किया. तमिलनाडु में मडिगा को अरुंथतियार के नाम से जाना जाता है. यहां अब अरुंथतियार समुदाय को एससी के 18 फीसद कोटे के भीतर निश्चित आरक्षण देन वाले तमिलनाडु अरुंथतियार (विशेष आरक्षण) अधिनियम, 2009 के सामने अब कोई कानूनी चुनौती नहीं है.

हरियाणा ने 2020 में हरियाणा अनुसूचित जाति (शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम लागू किया, जो उच्च शिक्षा में एससी के लिए आरक्षित 20 फीसद सीटों में से आधी ''वंचित अनुसूचित जातियों’’ के लिए आरक्षित करता है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने 1994 की अधिसूचना और 2020 के कानून दोनों को वैधता दे दी. 

विभिन्न राज्यों ने अलग-अलग एससी-एसटी समूहों के बीच आरक्षण के फायदों में गैरबराबरी की जांच के लिए आयोगों का गठन किया. महाराष्ट्र में 2003 के लहूजी साल्वे आयोग ने मांग जाति के उपवर्गीकरण की सिफारिश की, तो कर्नाटक में 2005 के न्यायमूर्ति ए.जे. सदाशिव आयोग ने 101 जातियों को चार वर्गों में बांटने का प्रस्ताव रखा. बिहार के महादलित आयोग ने 2007 में विशेष विचार करने के लिए 18 अत्यंत वंचित जातियों की पहचान की थी.

क्या उप-वर्गीकरण जरूरी है?

कई शोध और डेटा दर्शाते हैं कि सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति के आधार पर एससी समुदायों के भीतर काफी असमानताएं हैं और उप-वर्गीकरण से कुछ जातियों को निश्चित तौर पर फायदा पहुंचता है. 2008 में आंध्र प्रदेश में उषा मेहरा आयोग ने बताया कि 'अग्रवर्ती’ माला जाति आइएएस और आईपीएस के 76 से 86 फीसद पदों पर काबिज है, जबकि मडिगा जाति को महज 13 से 23 फीसद पद पर हिस्सेदारी मिली है. राज्य की कुल दलित आबादी में 41 फीसद मालाओं की तुलना में 49 फीसद हिस्सेदारी के बावजूद मडिगा का प्रतिनिधित्व कमजोर है. इसी तरह, जैसा योगेंद्र यादव बताते हैं कि तमिलनाडु में अरुंथतियार भी राज्य की एससी आबादी में करीब 16 फीसद हिस्सेदारी रखते हैं, लेकिन दलित सरकारी कर्मचारियों के बीच उनकी उपस्थिति महज 0.5 फीसद है.

समाजविद् एस.एस. जोधका और अविनाश कुमार का 2007 का एक अध्ययन बताता है कि हरियाणा में 1996 से 2003 तक उपवर्गीकरण का ही नतीजा था कि चमार जाति के 60 फीसद लोग प्रथम श्रेणी के अधिकारी बन गए. वहीं, अन्य दलित जातियों के लोगों ने भी 50 फीसद ऐसे पद हासिल किए. अन्य वंचित तबकों का भी प्रतिनिधित्व बढ़ा और द्वितीय श्रेणी की नौकरियों में इनकी भागीदारी 8 से बढ़कर 48 फीसद और तृतीय श्रेणी की नौकरियों में 10 से 49 फीसद हो गई.

मगर, हर कोई ऐसे अनुभवजन्य अध्ययनों से आश्वस्त नहीं है. एससी और एसटी में कुछ समूह आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाते हैं और सरकारी नौकरियों में एससी/एसटी कोटा का एक अहम हिस्सा हर साल रिक्त रहता है. ऐसे में आलोचकों का सवाल है कि क्या प्रमुख उप-जातियां और जनजातियां वाकई अधिक वंचित लोगों को लाभ से बाहर कर देती हैं. कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) की 2022-23 की रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र सरकार की नौकरियों में दलितों की हिस्सेदारी 17 फीसद है, इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि मोटे तौर पर 35 फीसद सफाई कर्मचारियों के तौर पर काम कर रहे हैं. समूह ए अधिकारियों के बीच एससी का प्रतिनिधित्व 13 फीसद है जो आवंटित कोटा 15 फीसद से नीचे है.

एक तर्क यह भी है कि फैसला सकारात्मक उपाय के मूल इरादे को दरकिनार करता है. समाजशास्त्री और आदिवासी मामलों के विशेषज्ञ वर्जिनियस खाखा का कहना है कि आरक्षण के पीछे मूल उद्देश्य यही था कि अतीत में व्यवस्थागत और ऐतिहासिक भेदभाव का सामना करने वाले दलितों-आदिवासियों का उत्थान हो और यह सिर्फ आर्थिक मानदंडों के आधार पर संभव नहीं है. खाखा को डर है कि उपवर्गीकरण का फैसला इन समुदायों के भीतर खाई न बना दे जिससे सामाजिक न्याय का व्यापक लक्ष्य हासिल करना मुश्किल हो सकता है.

विवादास्पद क्रीमीलेयर

फैसला सुनाने वाले न्यायाधीशों में एकमात्र दलित सदस्य जस्टिस बी.आर. गवई ने तो 1992 के इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में ओबीसी के लिए निर्धारित ''क्रीमीलेयर’’ नियमों को एससी-एसटी समूहों तक विस्तारित करने का भी सुझाव दिया. हालांकि उन्होंने साफ किया कि उसके मानदंड ओबीसी से भिन्न होने चाहिए.

क्रीमीलेयर विवादास्पद मसला रहा है. कई एससी-एसटी कार्यकर्ताओं का तर्क है कि सामाजिक-ऐतिहासिक अन्याय से उबारने के लिए बनाई गई व्यवस्था में आर्थिक मानदंड शामिल करना उसके मूल उद्देश्य के खिलाफ है. उनका दावा है कि इस तबके के लोग कितने भी अमीर क्यों न हो जाएं, उनके प्रति भेदभाव और बहिष्कार जारी रहता है, और क्रीमीलेयर को बाहर किए जाने से इन चुनौतियों की उपेक्षा हो सकती है.

रोहिणी आयोग पर क्या?

अदालती फैसले से रोहिणी आयोग की सिफारिशें प्रकाशित करने की मांग जोर पकड़ सकती है, जिसे 2017 में ओबीसी के भीतर उपवर्गीकरण का पता लगाने के मकसद से गठित किया गया था. आलोचकों का मानना है कि केंद्र की भाजपा सरकार गैर-प्रमुख ओबीसी जातियों में अपना आधार मजबूत करने के लिए अब उसकी रिपोर्ट का इस्तेमाल कर सकती है. उस आयोग ने यह जांच की कि ओबीसी के लिए 27 फीसद आरक्षण को कैसे लागू किया जा रहा है.

सूत्रों की मानें तो आयोग की 21 जुलाई, 2023 को पेश की गई रिपोर्ट ने बताया है कि करीब 6,000 ओबीसी जातियों और समुदायों में से केवल 40 ने केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों और सिविल सेवा भर्ती में प्रवेश के लिए 50 फीसद कोटा पर दावा किया. 27 फीसद ओबीसी कोटे में एक-चौथाई पर सिर्फ 10 जातियों का वर्चस्व रहा, जबकि ओबीसी समुदायों में से करीब 20 फीसद ने 2014 और 2018 के बीच कोटा का लाभ नहीं उठाया. आयोग ने केंद्रीय सूची में ओबीसी उप-जातियों को कथित तौर पर चार समूहों में बांटने की सिफारिश की है ताकि तर्कसंगत तरीके से आरक्षण का लाभ देना सुनिश्चित किया जा सके.

वहीं, सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला एक अधिक समावेशी समाज पर जोर देता है, मगर इस पर अमल पूरी तरह इस पर निर्भर करेगा कि क्या राज्य सरकारें असल में सबसे वंचित समुदायों को आगे बढ़ाने की इच्छा रखती हैं.

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