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कवच : एक अटके हुए वादे के लिए उम्मीद से लंबा खिंचता इंतजार!

भारत के विशाल रेल नेटवर्क में लगातार होते हादसों के बावजूद देश में विकसित ट्रेन सुरक्षा सिस्टम कवच को अपनाने में अत्यधिक देरी हो रही है और तकनीकी चुनौतियां भी बढ़ रही हैं

दार्जिलिंग जिले में 17 जून को कंचनजंगा एक्सप्रेस और मालगाड़ी की टक्कर के बाद क्षतिग्रस्त ट्रेन
दार्जिलिंग जिले में 17 जून को कंचनजंगा एक्सप्रेस और मालगाड़ी की टक्कर के बाद क्षतिग्रस्त ट्रेन
अपडेटेड 22 जुलाई , 2024

- अभिषेक जी. दस्तीदार

पश्चिम बंगाल के दार्जिंलिंग जिले में 17 जून की सुबह एक कंटेनर मालगाड़ी ने पटरी पर खड़ी कंचनजंगा एक्सप्रेस को टक्कर मार दी, जिससे मालगाड़ी के चालक और नौ यात्रियों की मौत हो गई. प्रारंभिक जांच में सामने आया कि इस खंड में स्वचालित सिग्नलिंग प्रणाली के रखरखाव का काम चल रहा था, जिसके कारण यहां से गुजरने वाली ट्रेनों को रफ्तार 10-15 किमी प्रति घंटे रखनी थी और बतौर सावधानी हर लाल सिग्नल पर रुकना अनिवार्य था.

इसी क्रम में कंचनजंगा एक्सप्रेस लाल सिग्नल पर रुकी थी. तभी पीछे से मालगाड़ी ने उसे टक्कर मार दी. रेलवे अधिकारियों ने मृत मालगाड़ी चालक 46 वर्षीय अनिल कुमार को सुरक्षा प्रोटोकॉल का पालन न करने का दोषी ठहराते हुए हादसे को 'मानवीय चूक' का नतीजा बताया. इस घटना ने फिर रेखांकित कर दिया कि ट्रेनों के तेज गति से सिग्नल या एक-दूसरे की तरफ बढ़ने के दौरान स्वचालित ब्रेक लगाकर ऐसी टक्करों को रोकने में सक्षम स्वचालित ट्रेन सुरक्षा (एटीपी) प्रणाली को व्यापक स्तर पर लागू किया जाना कितना जरूरी है.

हर रेल हादसे के बाद रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव स्वदेशी स्तर पर विकसित एटीपी समाधान कवच की खूबियों का जिक्र कर अपनी टीम को इसे जल्द लागू करने का निर्देश देते रहे हैं. फिर भी, हकीकत यही है कि इसकी प्रगति बेहद धीमी रही है.

अश्विनी वैष्णव ने जुलाई 2022 में लोकसभा को बताया था कि कवच को सिकंदराबाद केंद्रित दक्षिण मध्य रेलवे में 1,140 किलोमीटर रेलमार्ग पर स्थापित किया गया है और इसे पूरे देश में 35,000 किलोमीटर से अधिक रेल नेटवर्क में लगाने की योजना है. तबसे अब तक रेल हादसों में करीब 300 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं.

उनके मुताबिक, ''जिस तरह हमने मिशन मोड में रेल नेटवर्क का विद्युतीकरण किया, कवच लगाने में यही गति बनाए रखी जाएगी.'' हालांकि, अभी जुलाई तक कवच सुरक्षा कुल 68,000 किलोमीटर लंबे रूट में से केवल 1,465 किमी पर प्रभावी हो पाई है और दो वर्षों में 300 किलोमीटर से अधिक की यह प्रगति अभी दक्षिण मध्य रेलवे तक ही सीमित है.

इसी तरह कवच भी 90 इंजनों से बढ़कर अब 144 तक पहुंच पाया है जो कुल 15,200 इंजनों का 1 प्रतिशत से भी कम है. पिछले दो वर्षों के दौरान ट्रेनों की भिड़ंत की दो घटनाओं में 20 लोग मारे गए. इसे विडंबना ही कहेंगे कि इनमें एक आंध्र प्रदेश के विजयनगरम में हुई, जहां कवच का परीक्षण चल रहा है और दूसरा हाल में बंगाल में हुआ हादसा है.

दूसरी तरफ, पिछले वर्ष ओडिशा में बालासोर के नजदीक तीन ट्रेनों के टकराने से हुए भीषण हादसे, जिसमें 300 लोगों की जान चली गई, के बारे में रेलवे का कहना है कि यह जान-बूझकर छेड़छाड़ और तोड़फोड़ के कारण हुई थी, जिन्हें कवच रोक नहीं सकता था.

इंडिया टुडे के पास उपलब्ध दस्तावेज दर्शाते हैं कि नागरिक उड्डयन मंत्रालय के अधीन रेल हादसों की जांच करने वाले वैधानिक निकाय रेलवे संरक्षा आयुक्त (सीआरएस) ने लोगों की जान बचाना सुनिश्चित करने के लिए स्पष्ट शब्दों में उन हिस्सों में भी कवच की सिफारिश की थी, जो अभी तक रोलआउट योजना में शामिल नहीं हैं.

अक्तूबर 2023 के विजयनगरम रेल हादसे पर सीआरएस जांच रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि कवच की टक्कर-रोधी खूबियों को सभी इंजनों का हिस्सा बनाया जाना चाहिए, यहां तक कि गैर-कवच क्षेत्रों में भी. रिपोर्ट में कहा गया, ''कवच की गैर-सिग्नलिंग आधारित टक्कर-रोधी खूबियों का लाभ उठाने के लिए इसे गैर-कवच क्षेत्रों समेत भारतीय रेलवे के प्रत्येक लोकोमोटिव/कैब पर अनिवार्य तौर पर लगाया जाना चाहिए.'' 

यह कोई मुश्किल काम नहीं है. कवच प्रणाली में दो हिस्से होते हैं. एक टेलीकॉम आधारित सिग्नल सिस्टम होता है जो कवच-सक्षम ट्रेनों की आवाजाही पर लगातार नजर रखता है. इसके लिए पटरियों के किनारे उपकरण लगाने के साथ स्टेशनों के पास टेलीकॉम टावर आदि लगाना भी जरूरी होता है. यह काफी समय लेने वाली प्रक्रिया है. दूसरा हिस्सा इंजन में लगा हार्डवेयर है जो ड्राइवर के कैब के अंदर सिग्नल दर्शाता है और सिग्नल तोड़ने पर स्वचालित तौर पर ब्रेक लगाने में भी सक्षम है. इसे लगाना अपेक्षाकृत आसान काम है. लेकिन इस प्रक्रिया में भी बहुत ज्यादा समय लग रहा है.

रेलवे की कार्यप्रणाली पर दशकों से नजर रखने वालों का तर्क है कि विलंब की वजह सिर्फ परियोजना की जटिलता नहीं, इससे इतर अन्य मुद्दों की ओर इशारा करती है. सूत्रों के मुताबिक, सीआरएस की सिफारिश के बाद गैर-कवच खंडों में भी सभी नए इंजनों में कवच लगाने पर रेलवे के भीतर सहमति है.

चेन्नै स्थित इंटीग्रल कोच फैक्ट्री के पूर्व महाप्रबंधक सुधांशु मणि कहते हैं, ''धीमी प्रगति यह बताती है कि प्रणाली की प्रभावकारिता पर लोगों को पूरा भरोसा नहीं है. शायद, यह अभी इतना सशक्त नहीं हो पाया है कि पूर्ण सुरक्षा में सक्षम हो. क्योंकि करीब 1,400 किलोमीटर की दूरी में इसे लगाने का काम ही परीक्षण के तीन साल बाद हो पाया है. जब तक कवच पूरी तरह से तैयार नहीं हो जाता, तब तक महत्वपूर्ण हिस्सों पर यूरोपीय स्वचालित ट्रेन सुरक्षा प्रणाली ही क्यों नहीं स्थापित कर देते?''

कवच महज एक तकनीक भर नहीं है; बल्कि भारतीय रेलवे के लिए एक महत्वपूर्ण छलांग है, जो वैश्विक स्तर पर 1980 के दशक से अपनाए जा रहे आधुनिक सुरक्षा उपायों की ओर कदम बढ़ा रही है. कवच की यात्रा 2016 में ट्रेनों की टक्कररोधी प्रणाली अपनाने को मंजूरी के साथ शुरू हुई, इसके बाद 2019 में अंतरराष्ट्रीय स्वतंत्र मूल्यांकनकर्ताओं से उच्चतम स्तर का सुरक्षा प्रमाणन मिला. 2020 में कवच को राष्ट्रीय एटीपी प्रणाली के तौर पर अनुमोदित किया गया. कोविड-19 महामारी जैसी बाधाओं के बावजूद परियोजना आगे बढ़ती रही. इसके लिए धन आवंटित किया गया, और महत्वपूर्ण राजनैतिक समर्थन भी मिला है.

आखिर क्यों लग रहा इतना समय?

रेलवे की दलील है कि इस तरह की जटिल सुरक्षा प्रणाली लगाने में समय लगता है: रेल मंत्रालय के प्रवक्ता कहते हैं, ''इसके लिए टावर स्थापित करने के अलावा ट्रैक की पूरी लंबाई में ऑप्टिकल फाइबर केबल बिछाने, प्रत्येक लोकोमोटिव पर लोको कवच और प्रत्येक स्टेशन पर स्टेशन कवच लगाने जैसे काम करने होते हैं. यह काफी जटिल काम है, खासकर जब ट्रेन यातायात बाधित किए बगैर इसे मौजूदा नेटवर्क पर थापित किया जाना हो.''

भले ही इस प्रणाली का डिजाइन रेलवे ने तैयार किया हो, और तकनीक का कर्ता-धर्ता वही हो लेकिन कवच के पुर्जे निजी कंपनियां तैयार करती हैं. मौजूदा समय में केवल तीन कंपनियां ही कलपुर्जों की आपूर्ति कर रही हैं—मेधा सर्वो ड्राइव्स, केर्नेक्स माइक्रोसिस्टम्स और एचबीएल पावर सिस्टम्स. चार और कंपनियां वेंडर बनने का मौका पाने के लिए होड़ में हैं: जी.जी. ट्रॉनिक्स, क्वाड्रेंट फ्यूचर टेक, एरेका एंबेडेड सिस्टम्स और सरकारी स्वामित्व वाली बीएचईएल.

लेकिन सूत्रों का कहना है कि उन्हें भागीदार बनाने की प्रक्रिया बेहद धीमी गति से चल रही है. अधिकारियों के मुताबिक, रेलवे को सिग्नलिंग सिस्टम की आपूर्ति करने वाली जापानी कंपनी क्योसन और जर्मनी की सीमेंस भी कवच पर काम कर रही हैं.

हालिया हादसे के बाद रेलवे बोर्ड की चेयरपर्सन और सीईओ जया वर्मा सिन्हा ने कहा कि पूरे भारत में रोलआउट के लिए वेंडर कंपनियों को अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ानी होगी. बहरहाल, कहने को चाहे कुछ भी कहते रहें लेकिन कई एजेंसियों की भागीदारी और तकनीकी पेचों के मद्देनजर ऐसा करना इतना आसान भी नहीं है.

बौद्धिक संपदा पर निजी खिलाड़ियों के साथ रेलवे की तकनीकी शोध शाखा अनुसंधान डिजाइन और मानक संगठन (आरडीएसओ) का साझा अधिकार है. रेलवे मानकों के तहत, इन उत्पादों, उनके डिजाइन और प्रभावकारिता पर मुहर लगाना आरडीएसओ के ही जिम्मे है. यही नहीं, इस बात का भी ध्यान रखना जरूरी है कि सभी कलपुर्जे एक-दूसरे के अनुकूल संचालन क्षमता रखते हों, यानी बनाया भले ही अलग-अलग कंपनियों हो लेकिन इन्हें एक साथ इस्तेमाल करने में किसी तरह की कोई दिक्कत न आए.

इसके लिए जमीनी स्तर पर कड़े परीक्षण की आवश्यकता होती है. यही वजह है कि कवच के लिए सेंटर ऑफ एक्सीलेंस (उत्कृष्टता केंद्र) भी बनाया गया है. सिकंदराबाद में भारतीय रेलवे सिग्नल इंजीनियरिंग एवं दूरसंचार संस्थान में यह केंद्र कवच की प्रौद्योगिकी के विकास और प्रशिक्षण को ध्यान में रखकर बनाया गया है. कार्यान्वयन प्रक्रिया के दौरान यह निरंतर समन्वय बनाए रखता है, फीडबैक जुटाता है और जमीनी परीक्षणों आदि में भी शामिल होता है. हालांकि, केंद्र की स्थिति थोड़ी अजीब भी है क्योंकि मुख्यत: इसका काम सलाहकार का है.

नाम न छापने की शर्त पर जानकारों ने बताया कि आरडीएसओ को पूरी प्रक्रिया में शामिल करने और हर चरण पर इसकी मंजूरी लेने के अलावा उत्कृष्टता केंद्र के कवच विशेषज्ञों पर भी नजरें टिकाए रहने की वजह से अक्सर अप्रत्याशित देरी होती है. वेंडर कंपनियों, आरडीएसओ और उत्कृष्टता केंद्र की इस तिकड़ी के अलावा रेलवे बोर्ड के तौर पर नौकरशाही की निगरानी का एक और घेरा भी है.

वैष्णव ने दार्जिलिंग हादसे के तुरंत बाद परियोजना और मंत्रालय की प्रगति की समीक्षा की और एक बार फिर अपना बयान दोहराया कि कवच को 'मिशन मोड' में अपनाया जाना चाहिए. हमें बताया गया कि कवच अब अपने पिछले संस्करण 3.2 से नवीनतम संस्करण (4.0) पर पहुंच चुका है. हालांकि, परियोजना से जुड़े लोग इसे अलग तरह से देखते हैं. एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ''फीडबैक और जवाबदेही बहुत ज्यादा होने की वजह से संस्करण 4.0 का विकास करीब दो वर्ष पिछड़ चुका है. यहां तक कि यह संस्करण अभी भी तैयार नहीं है.'' स्थिति यह है कि जिस 1,465 किलोमीटर रेलखंड में कवच स्थापित है, वहां भी समग्र परीक्षण वर्षों पहले हो चुका था. 

लंबा इंतजार

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि भिड़ंतरोधी ट्रेन प्रणाली के लिए इंतजार उम्मीद से कहीं अधिक लंबा खिंचता जा रहा है. जया कहती हैं कि अगले दो वर्षों में करीब 6,000 किलोमीटर में काम पूरा करने की योजना है. उनके मुताबिक, ''इस वर्ष हम 3,000 किलोमीटर मार्ग में इसे पूरा कर लेंगे. अगले वर्ष 3,000 किलोमीटर में और लगाने की योजना है. हम अपने उपकरण आपूर्तिकर्ताओं से उत्पादन बढ़ाने को कह रहे हैं और हम इसमें उनकी मदद भी कर रहे हैं, क्योंकि इसे धीरे-धीरे पूरे देश में स्थापित करना होगा.''

रेल मंत्रालय ने संसद को बताया है कि दिल्ली-मुंबई और दिल्ली-हावड़ा कॉरिडोर (करीब 3,000 किलोमीटर मार्ग) पर कवच के लिए टेंडर दिए जा चुके हैं और अन्य 6000 किलोमीटर लंबे मार्ग के लिए सर्वेक्षण, विस्तृत परियोजना रिपोर्ट और विस्तृत अनुमान जैसे अन्य प्रारंभिक कार्य चल रहे हैं.

हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि आज जो स्थिति है, उसे देखते हुए यह भी महज ख्याली पुलाव ही नजर आ रहा है. पूर्व मध्य रेलवे के पूर्व महाप्रबंधक एल.सी. त्रिवेदी कहते हैं, ''करीब 15,000 इंजनों में कवच होना चाहिए. लेकिन इतने सालों के बाद भी यह संख्या करीब 150 ही है. इस गति से यह काम हमारे जीवनकाल में तो पूरा होता नहीं दिखता.''

रेलवे बोर्ड के पूर्व सदस्य (यातायात) मोहम्मद जमशेद कहते हैं कि करीब 1,500 किमी प्रति वर्ष के हिसाब से भी रेलवे को पूरे नेटवर्क में कवच लगाने में कई साल लग जाएंगे. उनका मानना है कि तीव्रता लाने के लिए रेलवे को अपने सार्वजनिक उपक्रमों को इसमें शामिल करना चाहिए और गहन यातायात वाले मार्गों के बजाय सभी मार्गों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. वे कहते हैं, ''कवच ही एकमात्र उपाय नहीं है. सुरक्षा चाक-चौबंद करने की दिशा में पहले से जारी ठोस उपायों को भी उच्च प्राथमिकता देने की जरूरत है.'' स्वदेशी तकनीकी क्षमता विकसित करना अहम लक्ष्य है लेकिन प्राथमिकता सुरक्षा ही होनी चाहिए.

विशेषज्ञ कहते हैं, दो साल पहले कवच 90 इंजनों में मौजूद था. अब यह 144 इंजनों में है. यह बताता है कि मसला प्रोजेक्ट की जटिलता से बहुत आगे का है

कवच: एक अटका हुआ वादा

कवच क्या है?

एक स्वचालित ट्रेन सुरक्षा प्रणाली, जिसे रेल मंत्रालय के अनुसंधान डिजाइन और मानक संगठन ने निजी कंपनियों के सहयोग  से विकसित किया है

कैसे सुनिश्चित करता है सुरक्षा

> ट्रेनों को सिग्नल तोड़ने से रोकता है.

> दो ट्रेनों की एक ही ट्रैक पर भिड़ंत को रोकता है

> यह सुनिश्चित करता है कि ट्रेनें गलत दिशा में न चलें

> लोको पायलटों को सिग्नल की सही जानकारी देता है.

> लेवल क्रॉसिंग पर बतौर चेतावनी सीटी की आवाज देकर

गति क्यों नहीं बढ़ सकी

> लगाना जटिल इसे लगाने के लिए बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होती है जिसमें ट्रेनों की आवाजाही से तालमेल बैठाते हुए टावर लगाना और केबल बिछाना शामिल है

> सीमित निर्माण क्षमता स्वीकृत मैन्युफैक्चरर्स बहुत कम, कलपुर्जों के परिचालन में एक-दूसरे पर निर्भरता के परीक्षण से उत्पादन कठिन हो जाता है. परीक्षण के बाद रेलवे को और कंपनियों को साथ जोड़ने की जरूरत

> नौकरशाही की परतें आरडीएसो, सेंटर ऑफ एक्सीलेंस, रेलवे बोर्ड जैसी अनेक एजेंसियों का टेस्टिंग और मंजूरी देने में शामिल होना विलंब की वजह बनता है

> तकनीक परिपक्वता और संसाधनों की कमी 2020 तक सिस्टम पर भरोसे की मुश्किल और लॉजिस्टिक की अहम चुनौतियों के कारण इसे तेजी से लागू करने में बाधाएं आईं

1,465 किमी लंबे ट्रैक पर ही कवच लगाया जा सका है जो कि कुल रूट लंबाई का करीब  2% है

44,640 करोड़ रु. अनुमानित लागत है भारत के 68,000 किमी लंबे रेल रूट और 15,200 डीजल और इलेक्ट्रिक इंजन को कवच से लैस करने की. (50 लाख रु. प्रति किमी की दर से 34,000 करोड़ रु. ट्रैक पर लगाने के लिए और 70 लाख रु. प्रति यूनिट के हिसाब से 10,640 करोड़ रु इंजन में लगाने के लिए)

अब तक का सफर

2012-13: प्रारंभिक विकास और परीक्षण

फरवरी 2012 में अनिल काकोदकर समिति ने भारतीय रेलवे के लिए रेडियो-आधारित ट्रेन नियंत्रण स्वचालित ट्रेन सुरक्षा प्रणाली की सिफारिश की

जनवरी 2013 में रेलवे बोर्ड समिति ने कम व्यस्त मार्गों के लिए एक पूर्ण-विकसित, बहु-विक्रेता अंतर-संचालन योग्य ट्रेन नियंत्रण प्रणाली विकसित करने का निर्देश दिया. 250 किमी के लिए प्रारंभिक आरऐंडडी के ठेके दिए, लोकोमोटिव और मालगाड़ियों पर फील्ड परीक्षण शुरू

2014-15: आरऐंडडी और लागू करने की शुरुआत

कोर आरऐंडडी को ऑटो-सिग्नलिंग सेक्शन तक बढ़ाया गया, तेलंगाना में दक्षिण मध्य रेलवे के 15 किलोमीटर खंड पर कवच का प्रदर्शन सफल रहा

2016-17: प्रगति और नीति पर भ्रम

फरवरी 2016 यात्री ट्रेनों के लिए जमीनी स्तर पर परीक्षण शुरू

मई 2017 में कवच विनिर्देशों (संस्करण 3.2) को मंजूरी

जुलाई 2017 में रेलवे बोर्ड के सभी स्वर्णिम चतुर्भुज-स्वर्णिम विकर्ण (जीक्यू-जीडी) मार्गों पर पहले स्तर की यूरोपीय ट्रेन नियंत्रण प्रणाली लगाना अनिवार्य करने से नीतिगत भ्रम की स्थिति बनी

2018-20: उत्पाद को मंजूरी और विस्तार

2018 में पहले कवच उत्पाद (संस्करण 3.2) को मंजूरी मिली.

2019 में दक्षिण मध्य रेलवे के 1,200 किलोमीटर रेलखंड में इसे लगाने संबंधी निर्देश तीन ओईएम जारी जबकि 265 किलोमीटर पर पहले ही परीक्षण चल रहे थे. कुल मार्ग की लंबाई: 1,465 किमी

2020 में रेलवे बोर्ड ने नीति में सुधार किया, हर जगह ट्रेनों की टक्कररोधी प्रणाली लगाए जाने को अनिवार्य किया. संस्करण 4 पर काम शुरू.

2021-2024: नया नाम और प्रयासों को गति

जुलाई 2021 में ट्रेन टक्कररोधी प्रणाली का नाम बदलकर 'कवच' रखा गया.

2022 में 2,000 किलोमीटर खंड में इसी तीव्र गति से लागू करने के लिए केंद्रीय बजट में धन आवंटित. 3,000 किलोमीटर के लिए अनुबंध पर हस्ताक्षर.

फरवरी 2024 में मथुरा-पलवल रेलखंड में परीक्षण शुरू, 4,055 किलोमीटर ऑप्टिकल फाइबर केबल बिछा, 273 स्टेशनों और 301 लोको में उपकरण लगे, 356 दूरसंचार टॉवर स्थापित, 1,330 रूट किलोमीटर पर ट्रैकसाइड उपकरण लगे.

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