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लोकसभा 2024 में पूर्ण विराम ना लगाकर जनता ने विपक्ष को क्या इशारा दिया?

विपक्षी गठबंधन बीजेपी को सत्ता के करीब पहुंचने से भले रोक न पाया हो लेकिन धीरे-धीरे उसके रथ की गति धीमी करने में जरूर सफल रहा है

नई दिल्ली में 1 जून को मल्लिकार्जुन खड़गे के घर पर गठबंधन के नेता
नई दिल्ली में 1 जून को मल्लिकार्जुन खड़गे के घर पर गठबंधन के नेता
अपडेटेड 20 जून , 2024

राजस्थान की भरतपुर लोकसभा सीट से चुनाव जीतते ही 25 वर्षीय संजना जाटव ने डांस करना शुरू कर दिया. उनका यह वायरल वीडियो सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को अकेले अपने बलबूते साधारण बहुमत यानी 272 का आंकड़ा पार करने तक से रोकने में भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन (इंडिया) को मिली सफलता की एक शानदार मिसाल बन गया है.

एक पुलिस कांस्टेबल की पत्नी संजना ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित इस सीट पर भाजपा के रामस्वरूप कोली को हराया. लगातार दो बार जीतने के बाद यह सीट भाजपा के हाथ से फिसल गई. संजना अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों से संसद के निचले सदन में पहुंचने वाले 19 कांग्रेस सदस्यों में से एक हैं.

उनकी जीत केवल विपक्षी गठबंधन का संख्या बल बढ़ने की ही परिचायक नहीं है. यह पक्का करेगी कि सत्तारूढ़ पार्टी का बहुमत संसद में उसकी आवाज को दबा न पाए. दरअसल, विपक्षी पार्टियां तीसरी नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने के लिए पूरी तरह तैयार हैं और यह बात चुनाव नतीजे आने के दो दिन बाद हुई राहुल गांधी की विशेष प्रेस कॉन्फ्रेंस में साफ जाहिर हो गई. एग्जिट पोल के बाद शेयर बाजार में आए अस्वाभाविक उछाल और फिर नतीजों के दिन 4 जून को जोरदार गिरावट का हवाला देते हुए कांग्रेस नेता ने आरोप लगाया कि मोदी और उनके नंबर 2 अमित शाह शेयर घोटाले में लिप्त हैं; इसके जरिए इन्होंने उद्योगपति गौतम अदाणी की मदद की है.

उन्होंने पूरे मामले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराने की मांग की है. कांग्रेस ने भांप लिया है कि नई सरकार बीते पांच साल की तरह विपक्ष की मांगों की अनदेखी करने की स्थिति में नहीं है. राहुल ने इतना ही कहा, "अब विपक्ष ज्यादा मजबूत है. संसद में परिस्थितियां बदल गई हैं. प्रधानमंत्री अब उस तरह बेधड़क तरीके से काम नहीं कर पाएंगे."

संसद केवल दो पक्षों के बीच जंग का मैदान नहीं बनी रहेगी. बल्कि संजना जैसी सांसद उस सामाजिक गठजोड़ की भी झंडाबरदार हैं जिसे विपक्षी दल धीरे-धीरे तैयार कर रहे हैं ताकि पिछले एक दशक से कायम भाजपा के प्रभुत्व का मुकाबला किया जा सके. आने वाले समय में संसद और विधानसभाओं से इतर भाजपा के लिए इसी गठजोड़ से चुनौतियां बढ़ेंगी.

कांग्रेस में पूछिए तो अंदरूनी सूत्र आपको बताएंगे कि संजना की जीत मौलिक विचारधारा को जगाने संबंधी राहुल गांधी की उस फिलॉसफी का ही नतीजा है जिस पर वे पिछले कुछ सालों से निरंतर मेहनत कर रहे थे और जो अब जमीनी हकीकत में बदलती दिख रही है.

लगातार दो आम चुनावों में शर्मनाक हार के बाद माना जा रहा था कि कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है, और खासकर बीजेपी के हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे का मुकाबला करने में सक्षम नहीं रही. किसी को उम्मीद नहीं थी कि कांग्रेस अब फिर खड़ी हो पाएगी. हालिया चुनाव में जीत हासिल करने वाले एक कांग्रेसी नेता कहते हैं, "पार्टी को भाजपा आइटी सेल और लचर मीडिया के चश्मे से परे खुद को एक विचार के तौर पर पेश करने की जरूरत थी."

न्याय एक नया नैरेटिव

सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि कांग्रेस उस चुनावी समीकरण में सेंध लगाने में सफल रही है जिसे बीजेपी ने बेहद नपी-तुली सोशल इंजीनियरिंग के साथ साधने में सफलता हासिल की थी. मिसाल के तौर पर भगवा पार्टी ने अपनी खास हिंदू पहचान का व्यापक और रंग-बिरंगा खाका तैयार किया और उसके ताने-बाने में अपने मुख्य वोट बैंक कुलीन जाति के साथ पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और जनजातियों को भरपूर जगह दी.

यह रणनीति जातीय समीकरणों पर केंद्रित यूपी और बिहार जैसे बड़े राज्यों में कारगर तो साबित हुई. लेकिन दूसरी तरफ हिंदू धर्म को लेकर उसकी अवधारणा और उससे जुड़ी कट्टरता, जिसमें अक्सर अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता रहा, ने ओबीसी, दलित, आदिवासियों और खासकर मुसलमानों के एक बड़े वर्ग के बीच असंतोष को जन्म दिया. यहां तक कि इसकी वजह से उदार हिंदुओं को भी भारत के धर्मनिरपेक्ष मूल्य खतरे में नजर आने लगे.

कोविड के बाद आबादी का बड़ा हिस्सा, खासकर निम्न-आय वर्ग वालों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों के लोग भी नौकरियों की कमी और बढ़ती महंगाई की मार से हलकान थे. देश की अर्थव्यवस्था बढ़ रही थी लेकिन इसका लाभ गरीबों तक नहीं पहुंच रहा था. दूसरे शब्दों में कहें तो देश के-आकार वाली वृद्धि का गवाह बन रहा था, जिसमें अर्थव्यवस्था संकट से उबर रही थी लेकिन यह वृद्धि समान रूप से सभी क्षेत्रों में नहीं हो रही थी.

यही जनता की वह दुखती रग थी जिसे भुनाने के लिए राहुल गांधी ने एक नया नैरेटिव गढ़ने का फैसला किया. राहुल के एक करीबी सहयोगी बताते हैं, "हमको साफ कहा गया कि हमें लोगों को समझाना होगा: कांग्रेस की राजनीति मुख्य रूप से तीन चीजों पर केंद्रित है - धर्मनिरपेक्षता, ओबीसी, एससी, एसटी और अल्पसंख्यकों समेत सभी वंचित तबकों का कल्याण और गरीब समर्थक राजनीति." माना जा रहा है कि यह रणनीति कारगर साबित हुई क्योंकि कांग्रेस ने एससी-एसटी के लिए आरक्षित सीटों पर अपना प्रदर्शन सुधारा है. 2019 में उसने ऐसी कुल 131 सीटों में से जहां 10 पर सफलता हासिल की थी, वहीं इस बार यह आंकड़ा बढ़कर 31 पर पहुंच गया.

राहुल गांधी की 2022-23 की भारत जोड़ो यात्रा का उद्देश्य जहां बीजेपी की नफरती राजनीति के खिलाफ प्रेम और भाईचारे के संदेश को फैलाना और सभी वर्गों को एकजुट करना था, वहीं इस वर्ष के शुरू में निकाली गई भारत जोड़ो न्याय यात्रा गरीबों और वंचित तबके के लोगों को सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने पर केंद्रित थी.

उस सहयोगी के मुताबिक, "राहुल गांधी को सत्ता पाने की कोई हड़बड़ी नहीं है. बल्कि वे चाहते हैं कि सबसे पहले लोग अच्छी तरह समझें कि आखिर कांग्रेस की विचारधारा क्या है."

हालांकि, यह चुनाव इस लिहाज से कुछ अलग रहा कि अतीत में अपने विचार स्पष्ट तौर पर सामने न रख पाने वाले राहुल गांधी ने अपने राजनैतिक नैरेटिव को साफ-साफ समझाने के लिए हर मुमकिन संसाधन का इस्तेमाल किया. इस क्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को क्रोनी कैपिटलिज्म यानी पूंजीपति समर्थक सरकार का प्रतीक बताया गया, जिसमें उद्योगपति गौतम अदाणी सबसे बड़े लाभार्थी हैं.

महाराष्ट्र ने चौंकाया

और कांग्रेस की राय है कि सोशल मीडिया की वजह से राहुल की जो नई छवि उभरकर सामने आई, वह फलदायी साबित होने लगी है. इस क्रम में पार्टी उन सभी राज्यों का उदाहरण सामने रखती है जिन्हें भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कवर किया गया. अगर छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश को छोड़ दें तो बाकी सभी राज्यों में कांग्रेस की सीटें या तो बढ़ी हैं या फिर भी पहले जितनी बरकरार रही हैं.

शीर्ष नेताओं के पार्टी छोड़ने के बावजूद यह महाराष्ट्र में प्रमुख खिलाड़ी बनकर उभरी है. कांग्रेस ने राज्य की 48 में से जिन 17 सीटों (सहयोगी शिवसेना-यूबीटी की तुलना में चार कम) पर चुनाव लड़ा, उसमें 13 पर जीत हासिल की, जबकि शिवसेना (यूबीटी) 21 पर लड़ी और उसने नौ सीटें जीतीं. 15 सीटों पर उसने बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ा. पूरे देश की बात करें तो जिन 164 सीटों पर कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला हुआ, ग्रैंड ओल्ड पार्टी ने उसमें से 38 पर सफलता हासिल की. 2019 के मुकाबले इस आंकड़े में काफी सुधार हुआ है जब उसने ऐसी 190 सीटों में से केवल 15 पर जीत हासिल की थी.

महाराष्ट्र इसका स्पष्ट प्रमाण भी है कि कांग्रेस ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ते असंतोष को सफलतापूर्वक वोटों में तब्दील करने में सफल रही. भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में बिताए दो हफ्तों के दौरान पार्टी ने जिन ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्रों को कवर किया, उन सभी पर उसने जीत हासिल की है. देश के कुल 398 ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्रों के लिहाज से बात करें तो कांग्रेस ने अपना आंकड़ा काफी सुधारा है - पार्टी ने 2019 में 31 की तुलना में इस बार 75 सीटों पर जीत हासिल की है. अलबत्ता, भाजपा ने 165 सीटों यानी कांग्रेस के मुकाबले करीब दोगुनी सीटों पर जीत दर्ज की.

बहरहाल, ऐसे कई कारक हैं जिनकी वजह से सफलता का यह जश्न बहुत लंबे समय तक चलना मुश्किल हो सकता है, खासकर महाराष्ट्र में जहां इंडिया ब्लॉक ने 30 सीटें हासिल की हैं. राज्य में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं और एनडीए के खिलाफ एकजुट होकर लड़ना शायद उतना आसान नहीं होगा, जितना अभी लग रहा है. फिलहाल, यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि जनता की नजर में कौन-सा गुट असली शिवसेना है. सेना (यूबीटी) ने जिन 21 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, उनमें से नौ पर जीत हासिल करने में सफल रही. वहीं, शिंदे की सेना ने कुल 15 सीटों पर चुनाव लड़ा और उनमें सात पर जीत हासिल की. जिन 13 सीटों पर दोनों गुटों ने एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा, उनमें सात पर सेना (यूबीटी) के उम्मीदवार जीते.

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की बात करें तो दोनों गुटों के मामले में जनता का नजरिया अधिक स्पष्ट लगता है. अजित पवार गुट के चार उम्मीदवारों में से केवल एक जीत दर्ज कर पाया, जबकि 10 सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाली एनसीपी (शरदचंद्र पवार) ने आठ सीटों पर सफलता हासिल की.

महा विकास अघाड़ी बनने के बाद से यह पहला मौका है जब चुनाव में कांग्रेस को अधिकतम सीटें मिली हैं, और यही वजह है कि शिवसेना खेमे में साझेदारी की दीर्घकालिक उपयोगिता को लेकर सुगबुगाहट शुरू हो गई है. खासकर, इसलिए भी क्योंकि अब वह एमवीए में सबसे बड़ा घटक नहीं रही है. यही नहीं, पहले अपनी पार्टी के कांग्रेस में विलय पर विचार कर रहे सीनियर पवार भी ऐसे शानदार प्रदर्शन के बाद अपनी योजना को विराम दे सकते हैं.

जातीय समीकरण

राहुल गांधी के सामाजिक न्याय फॉर्मूले का एक प्रमुख आधार जाति जनगणना रही. हालांकि, मूलत: यह विचार बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) नेता नीतीश कुमार ने दिया था, जिन्होंने बाद में पाला बदल लिया. जितनी आबादी उतना हक या आनुपातिक प्रतिनिधित्व के इस वादे के पीछे असल मकसद ओबीसी, दलित और आदिवासियों को भाजपा के पाले से बाहर लाना रहा है. और, ऐसा लगता है कि यूपी और बिहार ने इस रणनीति पर माकूल प्रतिक्रिया भी दी जहां ग्रैंड ओल्ड पार्टी इन राज्यों के प्रमुख क्षेत्रीय दलों, राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर मैदान में उतरी.

दोनों पार्टियां पारंपरिक रूप से यादव और मुस्लिम वोटबैंक पर सबसे अधिक निर्भर रही हैं, जिस वजह से ही अन्य जाति समूह उनसे छिटक गए. यही सियासी तस्वीर बदलने के इरादे के साथ दोनों दलों ने अपने जातीय समीकरणों को नए सिरे से साधने की रणनीति अपनाई जिसमें समावेशिता पर खास ध्यान दिया गया.

राजद नेता तेजस्वी यादव ने जहां मोदी सरकार के दौरान बढ़ी बेरोजगारी को बड़ा मुद्दा बनाया और इसकी तुलना बिहार में अपने उपमुख्यमंत्री रहते कथित तौर पर दी गईं 2,00,000 सरकारी नौकरियों से भी की. वहीं, यूपी में समाजवादी पार्टी ने पीडीए - पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक - समीकरण को फिर सक्रियता से साधा. दोनों राज्यों में कांग्रेस के साथ गठबंधन ने गैर-बीजेपी वोटों का कम से कम विभाजन सुनिश्चित किया. नतीजा, बिहार में एनडीए की संक्चया 39 से घटकर 30 और यूपी में 64 से 36 रह गई.

फिर, बात आती है अल्पसंख्यकों की भूमिका की. लोकसभा चुनाव के दौरान ही यह काफी हद तक स्पष्ट हो चुका था कि अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान, पहली बार बीजेपी को हराने के इरादे के साथ मतदान करेंगे. यह मोर्चेबंदी यूपी और बिहार - जहां एनडीए को खासा नुक्सान उठाना पड़ा - के अलावा तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए एक ऐसे राज्य में अपनी सीट संख्या 22 से 29 पर पहुंचाने में मददगार साबित हुई, जहां नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 ध्रुवीकरण वाला एक प्रमुख मुद्दा बन गया था. मणिपुर में जातीय हिंसा के बाद पूर्वोत्तर में ईसाई गैर-एनडीए दलों के पक्ष में एकजुट हो गए.

इसका तात्कालिक फायदा कांग्रेस को मिला जिसने मणिपुर की दोनों सीटें झटक लीं. यही नहीं, पड़ोसी राज्य नगालैंड की एकमात्र सीट पर दो दशकों के बाद कब्जा जमाया और 1998 के बाद पहली बार मेघालय की तुरा सीट पर जीत दर्ज की. बहरहाल, अल्पसंख्यक ध्रुवीकरण के अपने निहितार्थ भी हैं, और इसने बीजेपी को विपक्ष पर तुष्टिकरण का आरोप मढ़ने का खुला मौका दे दिया है. असम के सीएम हेमंत बिस्व सरमा पहले ही कह चुके हैं कि 2024 का लोकसभा चुनाव दिखाता है कि कांग्रेस राज्य में अल्पसंख्यकों की पसंदीदा पार्टी बन गई है. कांग्रेस की जीती तीन सीटों में से दो पर मुसलमानों की भागीदारी 60 फीसद से अधिक है.

एक लंबी यात्रा

विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक आर्थिक संकट और सामाजिक असमानता के इर्द-गिर्द गढ़े गए नैरेटिव और अपनी सोशल इंजीनियरिंग की बदौलत बीजेपी की सीट संख्या 63 घटाने में सफल रहा है, जिससे उसका आंकड़ा साधारण बहुमत से 32 कम रह गया. लेकिन उसे अभी एक लंबा सफर तय करना बाकी है. इंडिया ब्लॉक के कुल सांसदों की संख्या अकेली भाजपा की सीटों से आठ कम है. कुछ गठबंधनों, जैसे दिल्ली और अन्य जगहों पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठजोड़, का भविष्य पूरी तरह निश्चित नहीं है.

वहीं, कांग्रेस पर तो तभी इंडिया ब्लॉक में बड़े भाई की तरह धौंस जमाने का आरोप लगा था, जब उसके पास केवल 52 सांसद थे. अब, जबकि कांग्रेस अच्छी-खासी सीट संख्या के साथ गठबंधन में एक प्रमुख पार्टी बनकर उभरी है, उसे न केवल भविष्य में चुनाव जीतने के लिए बल्कि संसद के अंदर और बाहर सत्तारूढ़ पार्टी को जवाबदेह बनाए रखने के लिए गठबंधन की एकजुटता को बरकरार रखने के उद्देश्य के साथ अधिक जिम्मेदार भूमिका निभानी होगी.

देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद कांग्रेस तीन अंकों का आंकड़ा छूने से महज एक कदम पीछे रह गई और बीजेपी की तुलना में तो उसे 140 सीटें कम मिली हैं. उधर, बीजेपी अपने अधिकांश गढ़ों में कांग्रेस के खिलाफ पूरी मजबूती से डटी है. ग्रैंड ओल्ड पार्टी जब तक इन राज्यों में खुद को मजबूत नहीं करती, तब तक तो सहयोगी दल उसे उन राज्यों में अपने समर्थन का लाभ नहीं उठाने देंगे जहां यह जूनियर पार्टनर है.

2014 की तरह ही 2024 में भी राहुल गांधी के लिए चुनौतियां बरकरार हैं - यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु जैसे राज्यों में कांग्रेस संगठन को फिर खड़ा करना और मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में इसे एक जिताऊ पार्टी बनाना. पार्टी का भविष्य काफी हद तक इस पर भी निर्भर करेगा कि यह राजस्थान, हरियाणा और कर्नाटक में सफलता के बड़े प्रवेश द्वार में तब्दील कर पाती है या नहीं.

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