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प्रधान संपादक की कलम से

भाजपा ने महत्वपूर्ण सफलताएं दर्ज की हैं—सबसे खास बात, नए क्षेत्रों में बढ़त. लेकिन क्षेत्रीय दलों को हटाकर भारत को एकात्मक, द्विदलीय प्रणाली में बदलने के उसके दीर्घकालिक सपने का सामना एक गंभीर वास्तविकता से हो गया है

इंडिया टुडे कवर : संतुलन का संदेश
इंडिया टुडे कवर : संतुलन का संदेश
अपडेटेड 12 जून , 2024

- अरुण पुरी

इतिहास गवाह है कि जिन महानतम लोगों को उनके नागरिक देवता तुल्य मानते आए थे, अंतत: उनमें भी कमजोरियां निकलीं. यही तो सियासी विरोधाभास है. हद दर्जे का. इस बार भारत में मतदान केंद्रों से निकले एक मजबूत बयान ने उस कद को थोड़ा छोटा कर डाला.

अगर यह एक मिला-जुला जनादेश लग रहा है और बहुत जोरदार नहीं दिख रहा, तो यूं समझें कि दरअसल इसका संदेश ही यही है. यह अति का सुधार, मरम्मत और नए सिरे से गढ़ा गया संतुलन है. नरेंद्र मोदी सरकार को एक और ब्लैंक चेक, भरपूर बहुमत का एक और उपहार देने के बजाए मतदाताओं ने संयम का पक्ष लिया.

लोकतंत्र का मतलब 'जनता का शासन' है. लिहाजा सरकारों को उनकी सामूहिक इच्छाओं-आकांक्षाओं पर ध्यान देना चाहिए. भारतीय मतदाता सचमुच महान शिक्षक हैं. 2024 के चुनाव के कुछ सबक इस प्रकार हैं:

> मतदाता को हल्के में न लें. भाजपा का 'चार सौ पार' नारा भले ही एक आह्वान रहा हो लेकिन बहुतों को लगा कि यह तो पहले ही तय कर लिया गया है, जो उन्हें कतई कुबूल न था. भारतीयों के लिए उनका वोट पवित्र है और यह अधिकार उनसे कोई छीन नहीं सकता.

> मोदी अब भी बेहद लोकप्रिय नेता हैं लेकिन भाजपा अब केवल मोदी के जादू के भरोसे नहीं रह सकती. उसे अपनी संख्या बढ़ाने के लिए अन्य क्षेत्रीय नेताओं को बढ़ावा देना चाहिए.

> वोट बैंक कोई एक सांचे में ढले हुए, एक ही रुझान के नहीं रहते. वे सियासी लैंडस्केप को बदलने के लिए शिफ्ट या अलग-अलग ढंग से संयोजित हो सकते हैं. इस चुनाव में हिंदी पट्टी में नए जातिगत संयोजन उभरे. हरियाणा में दलितों और जाटों ने देवीलाल युग के बाद पहली बार एक साथ मतदान किया. पूर्वी राजस्थान में जाट-मीणा-गुर्जर-जाटव मतदाताओं का दुर्लभ संगम देखा गया. उत्तर प्रदेश में दलितों ने तीन दशकों में पहली बार यादवों के साथ मतदान किया. अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर भाजपा की संख्या 2019 में 46 से घटकर अब 30 हो गई है. महाराष्ट्र में तो 'मा-मू' यानी मराठा और मुसलमान एकजुट होकर मतदान करते दिखे. बड़े ही सहज किस्म की इस सोशल इंजीनियरिंग ने ''चार सौ पार'' के नैरेटिव को क्षतिग्रस्त कर डाला.

> सियासी दल महिलाओं को अलग समूह के रूप में लुभाने की कोशिश करते रहे हैं पर उन्हें इस तरह से अलग करके नहीं देखा जा सकता. उनकी नियति पुरुषों से कोई अलग थोड़े ही है. महिलाएं पुरुषों से अलग तरीके से मतदान कर सकती हैं लेकिन वे दूसरी महिलाओं से भी अलग तरीके से मतदान कर सकती हैं. यह मान लेना गलत है कि उनके खाते में सीधे पैसे डालने या महिला विशेष वाली दूसरी रियायतें उन्हें सामूहिक रूप से आकर्षित करेंगी. आप देखिए कि ममता बनर्जी के लिए जो कारगर रहा, वही अरविंद केजरीवाल या जगन मोहन रेड्डी के पक्ष में नहीं गया.

> आक्रामक हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद की राजनीति अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई है. उदारवादी हिंदू स्विंग वोटर पर शायद इसका उल्टा असर होता है. 'हिंदुओं का वेटिकन' करार दिए गए अयोध्या में भाजपा की हार इस बात का साफ संकेत है. इसके अलावा, पवित्र नगरी वाराणसी में प्रधानमंत्री की जीत के अंतर में 68 फीसद की कमी आई है. ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि विभाजनकारी राजनीति के दिन बीत गए हैं.

> भ्रष्टाचार से लड़ना अच्छी बात है लेकिन ऐसे मामलों में भेदभाव भरी मनमानी तो ठीक नहीं. मसलन, भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों वाले दलबदलुओं का स्वागत करना और उनके मामले दबा देना. भाजपा के 43 दलबदलू उम्मीदवारों में से केवल 14 और कांग्रेस के 28 में से केवल पांच ही जीते.

> राजनैतिक विरोधियों की पार्टियों को तोड़ा जाना कतई पसंद नहीं. महाराष्ट्र में यह जाहिर हो गया, जहां भाजपा ने दो क्षेत्रीय दलों को तोड़ा था. वहां 48 में से 30 सीटों पर इंडिया ब्लॉक का कब्जा हो गया.

> ईवीएम में धांधली का मुद्दा अब दब गया है. भारत में चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष होते हैं.

> टीना (देअर इज नो आल्टरनेटिव) या कोई विकल्प न होने का मिथक टूट गया है. अब टीआइएफए/टीफा (देअर इज फेडरल आल्टरनेटिव) है यानी एक संघीय विकल्प. यह जुमला कपिल सिब्बल ने गढ़ा है.

> मुख्य मुद्दा बेरोजगारी और महंगाई था. अलबत्ता, कुछ समय से यह मुद्दा हर चुनाव में रहा है. फर्क सिर्फ इतना था कि भाजपा ने इसे बमुश्किल ही स्वीकार किया. नौकरियों की कमी और रोजमर्रा की चीजों के दाम का असर सभी पर पड़ता है. खैरात अपने ही नागरिकों को हल्के में लेने जैसा है और यह हमेशा नाकाफी होती है. 'लाभार्थी' 5 किलो मुफ्त राशन से संतुष्ट नहीं होने वाले. वे नौकरी चाहते हैं ताकि वे इज्जत की जिंदगी जी सकें. सभी दलों की ओर से अपनाई जा रही प्रतिस्पर्धी कल्याणकारी नीति देश को नीचे ले जाने की दौड़ है.

> आरक्षण का मुद्दा नौकरियों से संबंधित है, और आरक्षण संविधान में निहित है. इंडिया ब्लॉक का बयान था कि भाजपा का 400 सीटों का लक्ष्य संविधान को बदलने के लिए आरक्षण को खत्म करना है. इस भ्रामक बयान ने काफी लोकप्रियता हासिल की और दलित तथा ओबीसी वोटों को प्रभावित किया. यह मुद्दा खत्म नहीं होने वाला क्योंकि जाति जनगणना के प्रमोटर अब विजयी गठबंधन का हिस्सा हैं.

> ग्रामीण संकट ने मतदान पैटर्न को साफ तौर पर प्रभावित किया. भाजपा ने 198 ग्रामीण सीटों में से 49 खो दीं; कांग्रेस ने अपने पिछले 29 के आंकड़े में 26 सीटें जोड़ीं. किसान साफ तौर पर महसूस कर रहे थे कि मोदी 2.0 ने उनकी अनदेखी की है. 

> आखिरकार, मतदाता ने कहा है कि ताकत के साथ विनम्रता भी होनी चाहिए, वरना यही ताकत आपको ले डूबेगी.

इन सभी कारकों के अलावा, एक अमूर्त कारक भी है और वह है समाज में भय की व्यापक भावना. लोग ड्रॉइंग रूम में फुसफुसाते हुए बात करते हैं. सरकार के मंत्री मिलते वक्त, यहां तक कि निजी बातचीत में भी अपना फोन बंद कर देते हैं और आपको भी बंद करने के लिए कहते हैं. व्यवसायी सरकार के खिलाफ जाने से डरते हैं. शिक्षाविद् अपनी राय खुलकर जाहिर करने से घबराते हैं. गैर सरकारी संगठनों को दुश्मनी भरे माहौल का सामना करना पड़ता है.

चूंकि सभी एग्जिट पोल एक साथ गलत थे, इसलिए मुझे शक है कि उनके पूर्वानुमान गलत साबित हुए क्योंकि लोगों ने डर की वजह से उन्हें सच नहीं बताया कि वे किसके पक्ष में वोट कर रहे हैं और सत्तारूढ़ दल को 'हां' कहा. किसी भी जीवंत और धड़कते हुए लोकतंत्र के लिए एक स्वतंत्र प्रेस जरूरी है. अगर प्रेस पर कड़ी निगरानी रखी जाती है, अनगिनत सरकारी घटनाओं को कवर करने के लिए 'निर्देशित' किया जाता है और प्रतिशोध के डर से आलोचना को दबा दिया जाता है, तो हम सभी जमीनी हकीकत से बहुत दूर हो जाते हैं.

यह दूसरे सत्तारूढ़ दलों के लिए भी इतना ही सच है. अगर पिछली सरकार ईको चैंबर्स में नहीं रहती तो शायद उसे इस चुनावी नियति का सामना नहीं करना पड़ता. संस्थानों की स्वायत्तता को कमजोर किया गया है. प्रवर्तन एजेंसियों का इस्तेमाल आतंकित करने के औजार के रूप में किया जा रहा है.

पीएमएलए और राजद्रोह जैसे ढीले-ढाले ढंग से ड्राफ्ट किए गए कठोर कानूनों का लापरवाही से इस्तेमाल किया जा रहा है. अनगिनत नियमों और कानूनों के साथ, बिना किसी ठोस सबूत के मामले दर्ज किए जा सकते हैं. सभी जानते हैं कि भारत में प्रक्रिया अपने आप में सजा है और बहुत कम मामले परिणति तक पहुंचते हैं. यह कोई नई बात नहीं पर अब आम हो गई है.

दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बारे में बहुत प्रचार किया जा रहा है लेकिन यह नहीं समझा जा रहा कि इसके पीछे हमारी बड़ी आबादी मुख्य कारक है. प्रति व्यक्ति आय (पीपीपी) के मामले में हम अब भी दुनिया में 125वें स्थान पर हैं. घोर असमानता है. शीर्ष 1 फीसद आबादी के पास अब कहीं ज्यादा राष्ट्रीय संपत्ति है. शीर्ष 10 फीसद के पास लगभग 80 फीसद है. ये सब किसी स्वस्थ समाज के संकेत नहीं.

इन सबके बावजूद, भाजपा को भारत पर शासन करने का एक और मौका दिया गया है. दस साल की सत्ता विरोधी लहर से लड़ने के लिए उसे बधाई दी जानी चाहिए. यह बहुत सराहनीय है कि मोदी ने भाजपा को लगातार तीन कार्यकालों तक पहुंचाया है. यह उपलब्धि जवाहरलाल नेहरू ने छह दशक पहले हासिल की थी. मतदाता भले ही अब भी उदार हों लेकिन उन्होंने भाजपा को चेतावनी भरा संदेश दिया है: दिखावा कम करें क्योंकि प्रतीकात्मकता का मतलब वास्तविकता नहीं होता. इसके बजाए उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करें जो वास्तव में इंसानी जिंदगी और रोजी-रोटी के लिए मायने रखती हैं.

भाजपा ने महत्वपूर्ण सफलताएं दर्ज की हैं—सबसे खास बात, नए क्षेत्रों में बढ़त. लेकिन क्षेत्रीय दलों को हटाकर भारत को एकात्मक, द्विदलीय प्रणाली में बदलने के उसके दीर्घकालिक सपने का सामना एक गंभीर वास्तविकता से हो गया है. विडंबना यह है कि जिस बात ने भाजपा की लाज बचाई, वह एनडीए के सहयोगियों का समूह था, जिनके बारे में चुनावी पंडितों ने भविष्यवाणी की थी कि वे इसकी सबसे कमजोर कड़ी होंगे.

मतदाताओं का संदेश कांग्रेस पर भी समान रूप से लागू होता है, जिसने राहुल गांधी के नेतृत्व में एक जोशीला अभियान चलाया, जो आर्थिक तंगी के बावजूद क्रांतिकारी जोश से भरे व्यक्ति की तरह देश भर में घूमे. इसका नतीजा यह हुआ कि केरल से लेकर पंजाब और पूर्वोत्तर तक पूरे भारत में उसकी सीटों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई.

लेकिन अगर वह अपने गौरवशाली दिनों की वापसी के बारे में कल्पना करना शुरू कर देती है, तो यह अहंकार होगा. वह केवल बड़े पैमाने पर मोहभंग की अभिव्यक्ति के लिए एक आसान साधन बन गया है. अगर कांग्रेस को आगे बढ़ना है, तो उसे मोदी और भाजपा की आलोचना से परे एक नैरेटिव गढ़ना होगा. एक ऐसा विजन जो भारत को आगे ले जाए, न कि पीछे, जैसा कि उसकी कई खामखयाली भरी योजनाएं बताती हैं.

अब हमारे पास एक एनडीए सरकार होगी जो पिछले दशक से काफी अलग है. मोदी 3.0 सरकार अलग होगी क्योंकि उसे दो बैसाखियों पर निर्भर रहना होगा—दोनों ही अस्थिर मानी जाती रही हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सबसे बड़ी खासियत यही है कि आप किसी भी गठबंधन का नाम पूरा बोल पाएं, उससे पहले वे उसे छोड़ सकते हैं. हमारे सामने चंद्रबाबू नायडू का आश्चर्यजनक पुनरुत्थान भी है, जो बड़े सौदेबाज हैं और अपने नए साथी से बड़ी रियायतें लेंगे. नीतीश और नायडू दोनों समर्थन की कीमत वसूलेंगे.

मेरा मानना है कि भारत को मोदी जैसे व्यक्ति की जरूरत है, जिनके पास आधुनिक भारत के लिए एक स्पष्ट दृष्टिकोण है, जो कड़ी मेहनत करते हैं, काम करके दिखाते हैं और भ्रष्टाचार से दूर हैं. फिर भी उन्हें यह समझना चाहिए कि अपनी अपार विविधता के साथ भारत खुद एक गठबंधन है. और गठबंधन आपसी चर्चा, बहस और आम सहमति से ही चल सकते हैं.

यह पकाऊ और थकाऊ लेकिन ज्यादा टिकाऊ होगा. भारत एक ऐसा देश है जिसमें अपार संभावनाएं हैं. मोदी के पिछले नेतृत्व ने दुनिया और भारत को इसका एहसास कराया, लेकिन हमें उस उज्ज्वल भविष्य की ओर ले जाने के लिए एक अलग रास्ते और शैली की जरूरत है जो हमारे इंतजार में है.

मैं 2024 के जनादेश के लिए भारतीय मतदाता को सलाम करता हूं.

- अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह)

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