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लोकसभा चुनाव 2024 : इस बार भाजपा कितना साध पाई आदिवासी वोट?

देशभर में आदिवासियों के लिए सुरक्षित लोकसभा की 47 सीटें भाजपा के 400 पार अभियान के लिए काफी अहम थीं. 2019 में भाजपा ने इन 47 में से 31 सीटें जीती थीं

प्रधानमंत्री मोदी अप्रैल के आखिर में छत्तीसगढ़ के महासमंद में आयोजित रैली के दौरान आदिवासी समुदाय के बीच
प्रधानमंत्री मोदी अप्रैल के आखिर में छत्तीसगढ़ के महासमंद में आयोजित रैली के दौरान आदिवासी समुदाय के बीच
अपडेटेड 6 जून , 2024

अप्रैल के अंत में दक्षिणी राजस्थान के बांसवाड़ा में एक चुनावी रैली के दौरान पारा 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर था और आदिवासियों की भीड़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ध्यान से सुन रही थी. उन्होंने कहा, "कांग्रेस 60 वर्षों में राष्ट्रपति पद के लिए एक भी आदिवासी नेता नहीं ढूंढ पाई..." उन्होंने भाजपा के नेतृत्व वाली अपनी सरकार में द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति पद पर काबिज होने से लेकर आदिवासियों के लिए किए गए दूसरे कई काम गिनाए.

हालांकि, भीड़ उनकी बातों से ज्यादा सहमत नहीं दिखी. देश में अब सैकड़ों वनवासी और खानाबदोश समुदायों को 'आदिवासियों' की श्रेणी में शामिल कर दिया गया है. भारत की कुल आबादी में आदिवासियों की हिस्सेदारी 8.6 फीसद है. वे देश के अधिकांश प्राकृतिक संसाधनों के रक्षक भी हैं. आदिवासी कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक रहे हैं, लेकिन भाजपा काफी समय से उसमें सेंध लगाने की कोशिशों में जुटी हुई है.

पार्टी को इस दिशा में कुछ हद तक सफलता भी मिली है, खासकर पश्चिमी और मध्य भारत के राज्यों में. आदिवासी हालांकि, पहचान और जीवनशैली के लिहाज से खुद को विशिष्ट मानते हैं. वे उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने के प्रकट-अप्रकट प्रयासों का विरोध करते आए हैं.

अभी कुल 543 लोकसभा सीटों में से 47 एसटी (अनुसूचित जनजाति) के लिए आरक्षित हैं. भाजपा ने 2019 में शानदार प्रदर्शन करते हुए इनमें से 31 सीटों पर जीत दर्ज की थी. वहीं, मुख्य विरोधी दल कांग्रेस की झोली में केवल चार सीटें गई थीं. भाजपा 2024 में भी मजबूत स्थिति में दिख रही है.

हालांकि उसके सामने आदिवासियों के बीच लगाई जा रही इन अटकलों से निबटने की चुनौती है कि पार्टी एसटी को मिला आरक्षण समाप्त करने के लिए संविधान में संशोधन करने के साथ ही समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने जा रही है. इससे उनकी विशिष्ट पहचान को खतरा हो सकता है. भाजपा आदिवासी मतदाताओं को पक्ष में करने के लिए आदिवासी क्षेत्रों में विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं और शहरी विकास परियोजनाएं चला रही है. वह आदिवासी नायकों के योगदान पर प्रकाश डालने और उन्हें सम्मानित करने में भी जुटी हुई है. 

वैसे तो आदिवासी समुदाय और बस्तियां लगभग हर राज्य में मौजूद हैं, लेकिन मध्य भारत की पूरी एक ट्राइबल बेल्ट में भाजपा की मजबूत उपस्थिति है. उसके मिजाज के मुद्दे भी वहां मौजूद हैं. यह बेल्ट दक्षिणी राजस्थान से लेकर गुजरात के पूर्वी बेल्ट और उससे ही लगे मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र और दक्षिण तक फैली है.

पूरब में झारखंड और ओडिशा, जिनमें से हरेक राज्य में पांच लोकसभा सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं और चार आरक्षित सीटों वाला छत्तीसगढ़ भी आदिवासियों को लुभाने की भगवा योजना में अहम भूमिका रखता है. पूर्वोत्तर भारत और आंध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा तेलंगाना जैसे दक्षिणी राज्यों में भी आदिवासी समुदाय की अच्छी-खासी आबादी मौजूद है. इन सभी राज्यों में क्षेत्रीय दल भी मजबूत स्थिति में हैं.

जमीनी स्तर पर असंतोष

महाराष्ट्र में, एसटी के लिए आरक्षित सभी चार निर्वाचन सीटों—पालघर, डिंडोरी, नंदुरबार और गढ़चिरौली पर भाजपा का कब्जा है. राज्य में संघ परिवार के वनवासी कल्याण आश्रम (वीकेए) की भी मजबूत उपस्थिति है. हालांकि, शिक्षा तक बेहतर पहुंच के बावजूद नौकरी के मौके काफी कम हैं. आदिवासी इलाकों में व्याप्त भावनाओं का जिक्र करते हुए कांग्रेस नेता और नंदुरबार जिला परिषद के उपाध्यक्ष सुहास नाइक कहते हैं, "छात्रवृत्ति योजनाएं खत्म हो गई हैं जबकि सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों के लिए भर्ती भी कम हो गई है. भूमिहीन आदिवासियों की संख्या भी बढ़ रही है क्योंकि उनकी जमीन पर बांध सहित अन्य विकास परियोजनाओं का निर्माण किया जा रहा है."

आरक्षण और यूसीसी को लेकर समुदाय का डर भी बेवजह नहीं है. मसलन, उत्तरी महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले के नवापुर तालुका में भाजपा का दामन थामने वाले ईसाई आदिवासी 'धर्मांतरित आदिवासियों' को एसटी श्रेणी से बाहर करने की आरएसएस की मांग से नाराज हैं. राज्य में ओबीसी धनगर चरवाहा समुदाय को एसटी के दायरे में शामिल करने की मांग जोर पकड़ रही है, जिसे लुभाने में भाजपा जोर-शोर से जुटी है. वहीं गुजरात में गिर के जंगलों में रह रहे मालधारी समुदाय को (2021 में) एसटी का दर्जा देने के फैसले ने भी असंतोष पैदा किया है.

वन अधिकार अधिनियम का कार्यान्वयन पश्चिमी और पूर्वी मध्य प्रदेश के साथ देश के कई अन्य आदिवासी क्षेत्रों में एक मुद्दा है. अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी ऐंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) के पोस्टडॉक्टरल रिसर्च एसोसिएट वेंकट रामानुजम रमानी कहते हैं, ''मौजूदा और पिछली सरकारों ने दावों को खारिज कर दिया है इसलिए नौकरियों की तलाश में पलायन हुआ है. भूमि का विखंडन और सिंचाई के लिए पानी की कमी भी आदिवासियों को प्रभावित करने वाले मुद्दों में शामिल है." 

2021 में, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासी ग्राम सभाओं की सुरक्षा करने वाले पीईएसए या पेसा (अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार) नियमों की अधिसूचना को भी बहुत देरी से उठाया अपर्याप्त कदम माना जा रहा है.

गुजरात के भरुच में मजबूत स्थिति रखने वाले आदिवासी नेता छोटू वसावा कहते हैं कि हर सरकार ने आदिवासियों के साथ सौतेला व्यवहार किया है. भारत ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) के संस्थापक वसावा सवाल करते हैं, "ग्रामीण भूमि का उपयोग निर्धारित करने का निर्णय लेने की मुख्य शक्ति ग्राम पंचायतों के हाथों में है लेकिन उसे लगातार कमजोर किया जा रहा है. सरदार पटेल की प्रतिमा (182 मीटर ऊंची स्टैच्यू ऑफ यूनिटी) लगाने का क्या मतलब है जब हमें वास्तव में एक आदिवासी सरोवर की जरूरत थी, जो हमारे लिए सिंचाई का जरिया होता?"

भाजपा की जवाबी रणनीति

15 नवंबर, 2023 को मध्य प्रदेश के शिवपुरी गांव के सहरिया आदिवासी भागचंद आदिवासी को 'पक्का मकान' मिल गया, जिसे खुद प्रधानमंत्री ने उन्हें रिमोट से सौंपा. विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) मिशन के तहत निर्मित यह मकान 24,000 करोड़ रु. के प्रमुख प्रधानमंत्री जनजाति आदिवासी न्याय महाअभियान (पीएम-जनमन) का हिस्सा है, जो आदिवासी वोटरों को लुभाने की मोदी सरकार की योजना का बड़ा आकर्षण है.

आदिवासी नायक बिरसा मुंडा की जयंती के उपलक्ष्य में मनाए जा रहे 'जनजातीय गौरव दिवस' के दिन शुरू किए गए पीएम-जनमन अभियान ने देशभर के लगभग 22,000 गांवों में 75 आदिवासी समुदायों की पहचान की है, जो पीवीटीजी मिशन के केंद्र में होंगे. पीएमओ के एक नोट के मुताबिक, इसमें 'नौ मंत्रालयों के माध्यम से 18 राज्यों और एक केंद्र-शासित प्रदेश में चलाई जा रही 11 महत्वपूर्ण पहलें’ शामिल होंगी. आदिवासियों के लिए 2.39 लाख रुपए की लागत से 4,90,000 घरों का निर्माण इन प्रमुख 'पहलों' का हिस्सा होगा. 

केंद्र सरकार राज्य के एकलव्य स्कूलों और वीकेए संचालित संस्थानों के माध्यम से आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा के स्तर में सुधार लाने पर भी ध्यान केंद्रित कर रही है. एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालयों (ईएमआरएस) की संख्या 2013-14 के 119 से बढ़कर अब लगभग 700 हो गई है, और यह पार्टी के लिए एक प्रमुख चुनावी हथियार बन गया है.

जनजातीय मामलों के मंत्रालय के एक नोट से पता चलता है कि पिछड़े समुदायों में साक्षरता दर 70 फीसद के आंकड़े को पार कर गई है. यह बेहद खुशी की बात है, लेकिन एक नकारात्मक पहलू भी है और वह है सफेदपोश नौकरियों की कमी. मध्य प्रदेश के धार स्थित संगठन जय आदिवासी युवा शक्ति के विजय सिंह चोपड़ा कहते हैं, "बढ़ती जागरूकता और शिक्षा के स्तर ने बेहतर जीवन की आकांक्षाओं को जन्म दिया है. कई लोग प्रतियोगी परीक्षाओं का रास्ता अपनाते हैं, लेकिन कुछ ही सफल होते हैं. वे सफेदपोश नौकरियों की तलाश में गांव लौटते हैं, लेकिन उन्हें अंतत: खेती करनी पड़ती है या दुकान खोलनी पड़ती है."

भाजपा पिछले साल दिसंबर में लागू हुए विवादास्पद वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 को लेकर भी चुनौती का सामना कर रही है. अधिनियम में किए गए संशोधन, जो अधिकारियों को वाणिज्यिक और सार्वजनिक बुनियादी ढांचा उद्देश्यों के लिए वन क्षेत्रों के इस्तेमाल की अनुमति देने की प्रक्रिया को कथित तौर पर आसान बनाते हैं, आदिवासी समुदाय के उन वर्गों को लुभाने में बाधक साबित हो सकते हैं, जो अभी भी जंगलों के किनारों पर रहते हैं.

पार्टी ने अपने शासन वाले राज्यों में असंतोष कम करने की कोशिश की है. मसलन, उसने छत्तीसगढ़ में तेंदूपत्ता तोड़ने वालों (जिनमें से अधिकांश आदिवासी हैं) के लिए मजदूरी और बोनस में बढ़ोतरी करने के साथ ही सीओटीपीए (सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पाद अधिनियम) में विवादास्पद संशोधनों से पीछे हटने जैसे कई कदम उठाए हैं. बेशक, मोदी सरकार के पास देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति मुर्मू के रूप में एक तुरुप का इक्का भी है. भाजपा को उक्वमीद है कि इससे मुर्मू के गृह राज्य ओडिशा (राष्ट्रपति मयूरभंज जिले के रायरंगपुर से ताल्लुक रखती हैं) में अपना वोट प्रतिशत बढ़ाने में उसे मदद मिलेगी.

चुनावी रुझान क्या कहते हैं

चुनाव रुझानों से ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा आदिवासी क्षेत्रों में अच्छी स्थिति में है, खासकर आदिवासी बहुल राज्यों—छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में हाल ही हुए विधानसभा चुनावों में मिली जीत के मद्देनजर. इन चारों राज्यों में अभी कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है, लेकिन रुझानों से संकेत मिलता है कि स्थितियां बदल सकती हैं. दरअसल, इन राज्यों की लगभग सभी सीटों पर भाजपा को मुख्य चुनौती तेजतर्रार युवा आदिवासी नेताओं से मिल रही है, जिन्होंने कांग्रेस के दिग्गजों को हाशिये पर धकेल दिया है.

गुजरात को ले लीजिए, जहां भाजपा का 2014 से ही सभी चार आदिवासी सीटों पर कब्जा है और पार्टी अपना प्रदर्शन दोहराने के लिए तैयार नजर आ रही है. दो युवा आदिवासी विधायक-'आप' के चैतर वसावा, जो भरुच से इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस (इंडिया) के उम्मीदवार हैं और कांग्रेस के अनंत पटेल, जिन्हें कांग्रेस ने वलसाड से चुनाव मैदान में उतारा है, भाजपा की जीत का सिलसिला टूटने की उम्मीद कर रहे हैं. चैतर का मुकाबला छह बार के सांसद मनसुख वसावा से है, जबकि अनंत भाजपा के आदिवासी मोर्चे के राष्ट्रीय सोशल मीडिया प्रभारी धवल पटेल को चुनौती दे रहे हैं.

भारत आदिवासी पार्टी (बीएपी) ने भी हलचल पैदा कर रखी है, जिसने हाल के विधानसभा चुनावों में मध्य प्रदेश में 1 और राजस्थान में 3 सीटें जीती हैं. बीएपी का उदय और युवा आदिवासी मतदाताओं के बीच पार्टी की लोकप्रियता इस आम भावना की पुष्टि करती है कि मुख्यधारा के राजनैतिक दलों ने आदिवासियों को निराश किया है. बीएपी ने मध्य प्रदेश में दो आरक्षित सीटों—रतलाम और धार—पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं लेकिन वह राजस्थान में सबसे तेजी से पैठ जमा रही है.

दक्षिणी राजस्थान की डूंगरपुर-बांसवाड़ा सीट पर बीएपी उम्मीदवार और चौरासी विधायक राजकुमार रोत का मुकाबला कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हुए महेंद्रजीत मालवीय से है. डूंगरपुर नगर परिषद के पूर्व सभापति और भाजपा नेता के.के. गुप्ता कहते हैं कि कुछ इलाकों में लहर इतनी तेज है कि गैर-आदिवासी खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं.

उन्होंने आरोप लगाया, "हम लगातार डर के साए में रहते हैं और किसी भी निर्वाचित निकाय में हमारा प्रतिनिधित्व न के बराबर है. हम या तो प्रताड़ना झेलते हैं या पलायन करते हैं." गुप्ता के मुताबिक, संघ की राजस्थान वनवासी परिषद यहां बीएपी का मुकाबला करने को पर्याप्त प्रयास नहीं कर रही.

राजस्थान में आदिवासी वोट लोकसभा चुनाव में सामान्य सीटों पर पड़ने वाले 'स्पिलओवर इफेक्ट' (एक क्षेत्र की असंबद्ध घटनाओं से दूसरे क्षेत्र पर पड़ने वाला प्रभाव) के कारण भी महत्वपूर्ण हैं. मसलन, सवाईमाधोपुर-टोंक सामान्य श्रेणी की सीट है लेकिन इसका प्रतिनिधित्व मीणा एसटी समुदाय के सांसद कर बार चुके हैं. दक्षिणी राजस्थान में भी आदिवासी प्रभाव आरक्षित सीटों के अलावा तीन और सीटों तक फैला हुआ है.

क्षेत्रीय दलों का दबदबा

बड़ी आदिवासी आबादी वाले दूसरे राज्यों में क्षेत्रीय ताकतें बराबर का असर रखती हैं. ओडिशा में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल (बीजद) की आदिवासी क्षेत्रों पर मजबूत पकड़ है, जबकि पश्चिम बंगाल में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर है. भाजपा ने 2019 में बंगाल की दो आरक्षित लोकसभा सीटें, अलीपुरद्वार और झाड़ग्राम जीती थीं लेकिन 2021 के विधानसभा चुनावों में तृणमूल ने मजबूत वापसी की और क्षेत्र में नौ सीटें जीतीं. झारखंड में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद उनकी पत्नी कल्पना और सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चे (जेएमएम) के पक्ष में सहानुभूति की लहर पैदा होने से एसटी के लिए रिजर्व पांच सीटों पर असर पड़ सकता है.

इस बीच, पूर्वोत्तर में आदिवासियों के साथ भाजपा के रिश्ते जटिल बने हुए हैं. असम, मणिपुर और त्रिपुरा को छोड़कर, अन्य पांच पूर्वोत्तर राज्यों में आदिवासी आबादी बहुसंख्यक है. कुकी और मैतेई समुदाय के बीच संघर्ष ने क्षेत्र में पार्टी की विश्वसनीयता को नुक्सान पहुंचाया है, लेकिन पूर्वोत्तर में आदिवासियों के बीच वोटिंग पैटर्न बदलने की संभावना नहीं है.

विकास पर मोदी सरकार के जोर से खुश असम और अरुणाचल के आदिवासियों की निष्ठा बदलने की संभावना नहीं है. मणिपुर में पार्टी नगा बहुल आउटर मणिपुर सीट पर चुनाव तक नहीं लड़ रही. अन्य राज्य एनडीए सहयोगियों और कांग्रेस/क्षेत्रीय दलों के बीच टक्कर के गवाह बनेंगे. त्रिपुरा में भाजपा ने आदिवासियों के बीच लोकप्रिय शाही वंशज प्रद्योत देवबर्मा के नेतृत्व वाली टिपरा मोथा के साथ गठबंधन किया है.

जमीनी स्तर पर मिली प्रतिक्रियाओं से यह दिलचस्प बात सामने आई है कि आदिवासी मतदाताओं में राम मंदिर के निर्माण और अनुच्छेद-370 को निरस्त करने जैसे कदमों को लेकर ज्यादा उत्साह नहीं है. यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता भी मतदाताओं को लुभाने वाला प्रमुख कारक नहीं नजर आती. क्षेत्र में 'टीना (कोई विकल्प नहीं) फैक्टर' भाजपा के लिए ज्यादा काम करेगा. विपक्षी दल कांग्रेस अपने आदिवासी गढ़ों को फिर से हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है.

राहुल गांधी अक्सर आदिवासी (मूल निवासियों) बनाम भाजपा के वनवासी मुद्दा उठाते हैं, और इसे "समुदाय को अपमानित करने के सत्तारूढ़ पार्टी के विकृत तर्क" के उदाहरण के रूप में पेश करते हैं. अब यह देखना है कि सत्तारूढ़ दल के मजबूत संगठन नेटवर्क के मद्देनजर जमीनी स्तर पर इस तरह की बयानबाजी का असर होगा या नहीं.

साथ में राहुल नरोन्हा, अर्कमय दत्ता मजूमदार, कौशिक डेका, अमरनाथ के. मेनन, धवल एस. कुलकर्णी, रोहित परिहार और अमिताभ श्रीवास्तव

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