
बतौर फौजी नेपाल के गोरखाओं की दुनिया में बेजोड़ धाक है. स्कॉटलैंड के हाइलैंडर्स की तरह, गोरखा सैनिकों की बहादुरी, समर्पण और वफादारी लाजवाब मानी जाती है. 200 साल पहले गोरखाओं को ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना, ब्रिटिश भारतीय सेना और फिर, 1947 के बाद, भारतीय और ब्रिटिश सेना में भर्ती किया जाने लगा. उन्होंने युद्धों में हर जगह, जहां भी उन्हें तैनात किया गया, अपनी बहादुरी के लिए सम्मान और वीरता पुरस्कार जीते हैं. दोनों विश्व युद्धों सहित और आजाद भारत के कई युद्धों में उनकी भूमिका सराहनीय रही है.
भारतीय सेना का एक स्तंभ, लगभग 32,000 गोरखा (39 बटालियन) फिलहाल सेना की सात गोरखा रेजिमेंट का हिस्सा हैं. इनमें नेपाल के गोरखाओं के साथ-साथ भारत निवासी गोरखा सैनिक भी शामिल हैं. हर बटालियन में लगभग 60 फीसद नेपाली गोरखा हैं. हालांकि, भारतीय सेना में उनकी संख्या लगातार कम हो रही है, और पिछले चार वर्षों में नेपाल से एक भी गोरखा की भर्ती नहीं हो पाई है. नेपाल ही इकलौता दूसरा देश है, जहां के लोग भारतीय सेना में हैं.
पहली बार भर्ती 2020 में कोविड-19 महामारी की वजह से रुकी, लेकिन जून 2022 में अधिकारियों से नीचे स्तर के सामान्य सैनिकों की भर्ती के लिए नई अग्निपथ योजना की घोषणा से असली झटका लगा. इस योजना के तहत, 17.5 वर्ष से 21 वर्ष की आयु के युवाओं को चार साल के लिए भर्ती होगी, जिसके अंत में सिर्फ 25 फीसद को पक्का किया जाएगा. इस ऐलान के फौरन बाद अगस्त 2022 में नेपाल सरकार ने भारतीय सेना में अपने लोगों की भर्ती पर रोक लगा दी क्योंकि यह स्पष्ट हो गया कि अग्निपथ योजना उन पर भी समान रूप से लागू होगी.
वजह यह बताई गई कि यह दिसंबर 1947 के भारत, नेपाल और ब्रिटेन के बीच त्रिपक्षीय समझौते का उल्लंघन है, जिसमें भारतीय और ब्रिटिश सेना में गोरखाओं को शामिल करने का प्रावधान था. शर्तें भारतीयों के समान वेतन, पेंशन और अन्य सुविधाएं देने की हैं. हालांकि नई दिल्ली ने कहा है कि इनमें से कुछ भी नहीं बदला है, लेकिन अग्निपथ योजना से नेपाली गोरखाओं की भर्ती में रुकावट आ गई है जिसे अभी तक दूर नहीं किया जा सका है. दरअसल, 75 फीसद नेपाली अग्निवीरों के अपने देश लौटने से होने वाली संभावित सामाजिक-आर्थिक दिक्कतों से नेपाल चिंतित है.
दो साल बाद इसके दो अलग पहलू खुलने लगे हैं. एक, 2021 से करीब 14,000 नेपाली गोरखा सैनिकों के रिटायर होने से भारतीय सेना के रैंक में एक खालीपन आ गया है. दूसरे, इस मुद्दे ने भारत-नेपाल संबंधों पर असर डाला है और भारत की रणनीतिक, सॉफ्ट-पावर पहुंच कमजोर हो सकती है, जो इस हिमालयी देश में रिटायर और सेवारत गोरखा सैनिकों के जरिए बनती रही है. 2015 के बाद से द्विपक्षीय संबंधों में भी गिरावट आई है, जब भारत और नेपाल दोनों ने पश्चिमी नेपाल में कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा के विवादित भूमि क्षेत्र पर दावा किया था. 2020 में, नेपाल ने रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इन क्षेत्रों को शामिल करके अपना नक्शा अपडेट किया, जिसके कारण नई दिल्ली ने उसे 'एकतरफा कार्रवाई' और 'कृत्रिम विस्तार' करार दिया.
यह विवाद मई की शुरुआत में फिर से बढ़ गया, जब काठमांडू ने एक मानचित्र के साथ 100 रुपए के नए नोट छापने की घोषणा की, जिसमें उन तीन क्षेत्रों को दिखाया गया.
इस असहज स्थिति पर भारत का दुश्मन चीन मंडरा रहा है, जो नेपाल में लगातार अपनी रणनीतिक और आर्थिक अहमियत का विस्तार कर रहा है. नेपाली गोरखाओं की भर्ती पर रोक के नतीजे से एक और खतरनाक संभावना चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) में उनकी भर्ती की पैदा हो गई है. इस खुलासे ने भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान में खतरे की घंटी बजा दी है कि लगभग 15,000 नेपाली युवा यूक्रेन के युद्धक्षेत्र में रूसी सेना की ओर से लड़ रहे हैं.
हालांकि कोई फौरी चिंता की बात नहीं है, लेकिन हिमालयी सीमाओं पर भारत के विरुद्ध चीनियों के लिए गोरखाओं के लड़ने की संभावना चिंता पैदा करने वाली तो है ही. भारतीय सेना के एक अधिकारी कहते हैं, "हमें नेपाली गोरखा की भर्ती किए हुए करीब पांच साल हो गए हैं. दोनों देशों के अड़ियल रुख को देखते हुए ऐसा लगता है कि गोरखा ब्रिगेड और उसकी 38 बटालियनों का भविष्य अंधकारमय है."
परस्पर सहयोग का रिश्ता
ब्रिटिश कमांडर सर डेविड ऑक्टरलोनी ने एंग्लो-नेपाल युद्ध (1814-1816) के दौरान गोरखा सैनिकों के लड़ाकू गुणों को पहचाना और 1815 में पहली गोरखा रेजिमेंट की स्थापना की थी. तब से वे भारतीय सेना का हिस्सा रहे हैं. आजादी के बाद, गोरखा रेजिमेंट से सेना के कई नामधारी निकले, जिनमें महान फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ और हाल ही में जनरल दलबीर सिंह सुहाग, जनरल बिपिन रावत और वर्तमान चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान शामिल हैं. इसके अलावा सबसे प्रतिष्ठित भारतीय जनरल, दिवंगत लेफ्टिनेंट जनरल जोरावर चंद (जोरू) बख्शी भी हैं.
भारतीय सेना में गोरखाओं की भर्ती की दशकों पुरानी व्यवस्था दोनों पक्षों के लिए फायदेमंद रही है. नेपाल की कमजोर अर्थव्यवस्था का मतलब है कि वहां के युवाओं के लिए करियर के अवसर बेहद सीमित हैं. भारतीय सेना में सेवा आकर्षक रही है, क्योंकि वेतन नेपाली सेना के वेतन का 2.5 गुना है, जबकि पेंशन आर्थिक सुरक्षा प्रदान देती है. रिटायर नेपाली गोरखा भारत को घर बना सकते हैं यानी स्थायी रूप से यहीं रह सकते हैं.
अप्रैल 2024 तक, नेपाल में लगभग 1,22,000 पेंशनभोगी थे जिन्होंने भारत में सेवा दी. भारत सरकार, रक्षा विभाग की विभिन्न शाखाओं के माध्यम से, उन्हें और उनके आश्रितों को भारतीयों के समान सामाजिक और चिकित्सा लाभ प्रदान करती है. सेवारत गोरखा जो पैसा घर भेजते रहे हैं, उससे कठिन समय में नेपाल को आर्थिक सहारा मिला है. नेपाल की जीडीपी में उनका योगदान भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत से मिलने वाला वेतन और पेंशन नेपाल के रक्षा बजट से अधिक है.
इसलिए, अग्निपथ योजना पर नेपाल की आपत्तियां कठिन आर्थिक तथ्यों पर आधारित हैं. वापस आने वाले 75 फीसद रंगरूटों के पास कोई पेंशन अधिकार नहीं होगा और उन्हें कहीं और रोजगार तलाशना होगा. इसके अलावा, बड़ी संख्या में सैन्य प्रशिक्षण के साथ बेरोजगार युवा कानून-व्यवस्था के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं.
नेपाली सेना के पूर्व उच्च पदस्थ अधिकारी ब्रिगेडियर जनरल प्रेम बासनायत (सेवानिवृत्त) का मानना है कि अग्निपथ भर्ती योजना सैनिक सिद्धांतों के बुनियादी मानदंडों के खिलाफ है. उन्होंने काठमांडू से इंडिया टुडे को बताया, "अब समय आ गया है कि त्रिपक्षीय समझौते में संशोधन किया जाए या उसे नया रूप दिया जाए ताकि नेपाली युवा नियम और शर्तों के साथ अग्निपथ के तहत भारतीय सेना में शामिल हो सकें."
चार वर्षों में कोई भी नेपाली गोरखा भारतीय सेना में भर्ती नहीं हुआ, जिससे गोरखा रेजिमेंट में सैनिकों की संख्या लगातार गिर रही है और इससे उनके लड़ने की ताकत घट सकती है. यही स्थिति जारी रही, तो अगले 10 वर्षों में सेना में कोई भी नेपाली नहीं होगा, जिससे उच्च गुणवत्ता वाले सैनिक छिन जाएंगे. इसके समाधान के लिए, सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे ने 2022 में कहा था कि नेपाली गोरखाओं की जगह 'कुछ समय के लिए' दूसरों को भर्ती किया जाएगा. इसी तरह, कुछ भारतीय कुमाऊंनी और गढ़वाली युवाओं को गोरखा रेजिमेंट में भर्ती किया गया था और गोरखाओं के समान गुणों वाले पहाड़ी युवाओं की तलाश की जा रही है.
इससे सिर्फ जांबाज लड़ाकू सैनिकों की हानि ही नहीं, विशेषज्ञों का मानना है कि नेपालियों का भारतीय सेना में शामिल नहीं होना इस हिमालयी राष्ट्र में भारत की रणनीतिक पहुंच के लिए एक बड़ा नुक्सान है, क्योंकि वे वहां हमारी 'आंख और कान' हैं. यह मुख्य चिंता का विषय है कि नेपाली युवा चीन के दायरे में खींचे जा सकते हैं.
चीन फैक्टर
नेपाल रणनीतिक रूप से भारत और चीन के बीच एक बफर देश की तरह है, और बीजिंग पिछले एक दशक में वहां अपना असर बढ़ा रहा है. चीन ने नेपाल में 18.80 करोड़ डॉलर से अधिक का निवेश किया है. यह निवेश ज्यादातर ऊर्जा और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में किया गया है जिससे यह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का सबसे बड़ा स्रोत बन गया है. 2016 में, नेपाली नेताओं ने चीन को 'सदाबहार दोस्त' घोषित किया और अगले वर्ष उसके बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) पर हस्ताक्षर किए. तब नेपाली सेना ने पीएलए के साथ एक संयुक्त सैन्य अभ्यास भी किया था. 2018 में, बीजिंग ने नेपाली सेना के लिए 250 करोड़ नेपाली रुपए (157 करोड़ भारतीय रुपए) देने का वादा किया था. हालांकि हाल के महीनों में, नेपाल के अधिकारियों ने यूक्रेन में रूसी सेना में लड़ने वाले युवाओं को रोकने की कसम खाई है, लेकिन कुछ का मानना है कि यह चीन में उनकी भर्ती का पहला कदम है.
गोरखा रेजिमेंट के पूर्व अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल शोकिन चौहान (सेवानिवृत्त) कहते हैं, "नेपालियों को साथ न लेने से वहां एक खालीपन पैदा हो रहा है जिस पर चीन जैसा कोई भी देश कब्जा करना चाहेगा. चीन ऐसे अवसर पर नजर गड़ाए हुए है." वे कहते हैं कि हालांकि पीएलए के पास वर्तमान में विदेशी सैनिकों की भर्ती के लिए कोई तंत्र नहीं है, लेकिन यह संभव है कि चीन गोरखा सैनिकों के साथ एक सीमा सुरक्षा गार्ड इकाई बना सकता है.
वैसे, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि गोरखा कभी भी चीन की फौज पीएलए में भर्ती होना पसंद नहीं करेंगे क्योंकि परंपरा और धर्म उनके आड़े आएगा. लेकिन रोजगार की कमी के कारण, वे उस दिशा में बढ़ सकते हैं. असल में, ऐसे संकेत हैं भी कि बीजिंग करीने से इन युवाओं को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहा है.

पूर्वी लद्दाख में 2020 की गर्मियों में भारतीय सेना और पीएलए का आमना-सामना हुआ, तो बीजिंग ने भारतीय गोरखा रेजिमेंट में भर्ती होने वाले नेपालियों पर एक विस्तृत अध्ययन करने के लिए एक नेपाली थिंक-टैंक - चाइना स्टडी सेंटर—को फंड दिया था. इसका उद्देश्य न केवल गोरखाओं के भारतीय सेना में शामिल होने के पीछे के कारणों का पता लगाना था, बल्कि उन क्षेत्रों पर सामाजिक-आर्थिक प्रभाव भी जानना था जहां से ऐसी भर्ती की जाती है और दूसरे देशों के सशस्त्र बलों में शामिल होने में उनकी रुचि भी थी. भारत-नेपाल सीमा पर चीनी वित्त पोषित थिंक-टैंक की बढ़ती गतिविधियों की जानकारी भारतीय खुफिया एजेंसियों को भी है. इस प्रकार भारतीय सेना में नेपाली गोरखाओं की निरंतर उपस्थिति नेपाल में बढ़ती चीनी उपस्थिति का मुकाबला करने के लिए महत्वपूर्ण है.
नेपाली सेना के पूर्व अधिकारी और रणनीतिकार मेजर जनरल बिनोज बसन्यात (सेवानिवृत्त) का मानना है कि जब तक नेपाल और भारत दोनों अग्निपथ पर मतभेदों को हल नहीं कर लेते, तब तक नेपाली युवाओं को किसी व्यवस्था के तहत भारतीय सेना में शामिल होने की अनुमति दी जानी चाहिए. उनकी दलील है, "अगर वे कुछ पैसों के लिए रूसी सेना में शामिल हो सकते हैं, तो वे भारतीय सेना में क्यों नहीं शामिल हो सकते? वरना, अन्य देश बेरोजगार युवाओं को लुभाएंगे."
नेपाली गोरखाओं का भारतीय सेना में फिर से शामिल होना भारत और नेपाल की सुरक्षा, रणनीतिक और आर्थिक हित में है. इस नुक्सानदेह दरार को ठीक करना और गतिरोध को तोड़ना दोनों सरकारों पर निर्भर है.